tag:blogger.com,1999:blog-57881236017177603372024-02-28T15:41:36.743-08:00REPORTERहिन्दी पत्रकारिता पर एकाग्र, शोध एवं अध्ययन का मंचManoj Kumarhttp://www.blogger.com/profile/07148316160659906464noreply@blogger.comBlogger443125tag:blogger.com,1999:blog-5788123601717760337.post-35911319687445709732024-02-11T20:48:00.000-08:002024-02-11T20:48:49.154-08:00नागर समाज से समुदाय का रेडिय<p style="text-align: justify;"> 13 फरवरी</p><p style="text-align: justify;">विश्व रेडियो दिवस पर विशेष</p><p style="text-align: justify;">मनोज कुमार</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>कभी नागर समाज के लिए प्रतिष्ठा का प्रतीक होने वाला रेडियो आज समुदाय के रेडियो के रूप में बज रहा है। समय के विकास के साथ संचार के माध्यमों में परिवर्तन आया है और उनके समक्ष विश्वसनीयता का सवाल खड़ा है तो रेडियो की विश्वसनीयता के साथ उसका प्रभाव भी समूचे समाज पर है। ऑल इंडिया रेडियो से आकाशवाणी का नाम धर लेने के बाद एफएम रेडियो और सामुदायिक रेडियो की दुनिया का अपरिमित विस्तार हुआ है। करीब ढाई सौ वर्षों से प्रिंट मीडिया का एकछत्र साम्राज्य था जिसे कोई पांच दशक पहले इलेक्ट्रानिक मीडिया के आगमन के साथ चुनौती मिली। इन माध्यमों के साथ रेडियो का संसार अपने आप में अकेला और अछूता था। अपने जन्म के साथ रेडियो प्रामाणिक एवं उपयोगी रहा है और नए जमाने में रेडियो की सामाजिक उपयोगिता बढ़ी है। रेडियो क्यों उपयोगी है और रेडियो की दुनिया किस तरह बढ़ती गई है, इसके बारे में विस्तार से चर्चा करना जरूरी होता है। महात्मा गांधी से लेकर वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लोगों तक पहुंचने के लिए संचार माध्यम में रेडियो को चुना। रेडियो अपने जन्म से विश्वसनीय रहा है। सुभाष बाबू का रेडियो आजाद हिन्द हो या आज का ऑल इंडिया रेडियो। प्रसारण की तमाम मर्यादा का पालन करते हुए जो शुचिता और सौम्यता रेडियो प्रसारण में दिखता है, वह और कहीं नहीं। मौजूं सवाल यह है कि रेडियो प्रसारण सेवा का आप कैसे उपयोग करते हैं? इस मामले में महात्मा गांधी से लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जो अभिनव प्रयोग किया है, वह अलहदा है। गांधीजी ने रेडियो को शक्तिशाली माध्यम कहकर संबोधित किया था और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसे चरितार्थ कर दिखाया। संचार के विभिन्न माध्यमों के साथ मोदीजी का दोस्ताना व्यवहार रहा है लेकिन रेडियो प्रसारण के साथ वे मन से जुड़ते हैं।</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span> शुरूआती दौर में रेडियो सामान्य दिनचर्या का एक हिस्सा बना हुआ रहता था, वहीं देश और दुनिया से जोड़े रखने का भी यही एक माध्यम था। मोबाइल का दौर आया और रेडियो बाजार से गायब हो गए। हालांकि संचार की इस दौड़ में बने रहने के लिए रेडियो बन गए अब मोबाइल रेडियो। लेकिन वर्ष 2014 के बाद मोबाइल रेडियो में बड़ा बदलाव देखा गया जब 3 अक्टूबर, 2014 को ऑल इंडिया रेडियो पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने शुरू किया कार्यक्रम ‘मन की बात’। इस कार्यक्रम की शुरुआत करने का मकसद भारत में एक बार फिर लोगों का ध्यान रेडियो की ओर लाना तो था ही साथ ही जनता से रेडियो के जरिए संवाद कर जनता के मुद्दों पर बातचीत करना भी था। इसका असर यह हुआ कि जहां जनता पहले तक खास मौकों पर ही रेडियो सुना करती थी वही नरेंद्र मोदी के मन की बात के शुरू होने के बाद तक भी जनता इस कार्यक्रम से जुडी हुई है।</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>यह सवाल स्वाभाविक है कि संचार के विभिन्न साधनों में रेडियो की उपयोगिता क्यों बनी हुई है? वजह साफ है कि रेडियो का प्रभाव व्यापक है लेकिन रेडियो के संचालन के लिए सीमित संसाधन चाहिए। रेडियो के लिए सबसे सुविधाजनक पक्ष यह है कि रेडियो सुनने के लिए किसी श्रोता का साक्षर होना जरूरी नहीं है लेकिन रेडियो सुनकर एक श्रोता साक्षर हो सकता है। दूसरा यह कि रेडियो का एक विकल्प भी होता है जिसे हम ट्रांजिस्टर कहते हैं। यह एक तरह का मोबाइल यंत्र होता है और महज दो-चार बैटरी डाल कर इसे संचालित किया जा सकता है। यह रखने में भी सुविधाजनक होता है अत: किसान खेत में, मजदूर अपने काम की जगह पर और रेडियो के शौकीन रास्ते में सुन सकते हैं। रेडियो आम आदमी के लिए इसलिए भी सुविधाजनक है कि इंटरनेट, बिजली और बड़़े बजट इस पर खर्च करना नहीं होता है। बहुत छोटे बजट में रेडियो खरीदा जा सकता है और बिना तामझाम के इसे संचालित किया जा सकता है।</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>रेडियो और आकाशवाणी एक दूसरे के पर्याय बन चुके हैं। रेडियो का उल्लेख होते ही हमें आकाशवाणी का स्मरण हो आता है। लेकिन व्यवहारिक तौर पर रेडियो की दुनिया भी बदल चुकी है। अब रेडियो के तीन प्रकार हैं जिसमें प्रथम सरकारी रेडियो जिसे हम आकाशवाणी कहते हैं और दूसरा एफएम रेडियो एवं तीसरा सामुदायिक रेडियो कहलाता है। रेडियो एक ही है लेकिन इसकी उपयोगिता अलग-अलग है। रेडियो अर्थात आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले कार्यक्रम प्रामाणिक होते हैं क्योंकि इस पर सीधा-सीधा भारत सरकार का नियंत्रण होता है। </p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>भारत सरकार के नियंत्रण में ही एफएम रेडियो संचालन की अनुमति मिलती है लेकिन इस पर कई बंदिशें हैं। मसलन, अभी तक एफएम रेडियो पर समाचार प्रसारण की अनुमति नहीं है और ना ही ऐसे किसी कार्यक्रम प्रसारण की अनुमति है जो समाज को प्रभावित करते हों और कदाचित शांति भंग होने का खतरा बना हो। वर्तमान समय में एफएम रेडियो का उपयोग विशेषकर मनोरंजक कार्यक्रमों तक सीमित है। हालांकि अनेक प्रायोजित कार्यक्रमों के माध्यम से सूचना देने का कार्य एफएम रेडियो करता है। एफ एम रेडियो का पूरा मॉडल कामर्शियल है और इसकी आय का जरिया भी विभिन्न विज्ञापनों के माध्यम से होता है। एफएम के कार्यक्रम प्रस्तोता को आरजे अर्थात रेडियो जॉकी या एमजे अर्थात म्यूजिक जॉकी संबोधित किया जाता है।</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>वर्ष 2006 से भारत में सुप्रीमकोर्ट के अहम फैसले के पश्चात सामुदायिक रेडियो का प्रसारण आरंभ हुआ। सामुदायिक रेडियो जिसे हम अंग्रेजी में कम्युनिटी रेडियो भी कहते हैं का अर्थ है कि समुदाय द्वारा समुदाय के लिए समुदाय पर कार्यक्रम का निर्माण करना। भारत जैसे महादेश के लिए कम्युनिटी रेडियो वरदान है। तमाम विकास की संरचनाओं के बाद भी देश के अनेक अंचल ऐसे हैं जहां संचार सुविधाओं का अभाव है। उन्हें समय पर अपने हित की सूचना नहीं मिल पाता है। कई बार तो आपदा के समय वे अकाल मुसीबत में फंस जाते हैं क्योंकि संचार सुविधा के अभाव में जानकारी नहीं मिल पाने के कारण वे स्वयं को सुरक्षित नहीं कर पाते हैं। देश का पहला कम्युनिटी रेडियो अन्ना रेडियो को कहा जाता है। कम्युनिटी रेडियो की उपयोगिता सघन बस्ती से अलग दूर-दराज इलाकों के लिए ज्यादा उपयोगी होता है। खासतौर पर समुद्र के किनारे रहने वाले समुदाय या जंगलों में जीवन बसर करने वाले समुदाय। भारत सरकार की नीति में कम्युनिटी रेडियो की अनुमति दूर-दराज के इलाकों में देना रही है। शहरी और अद्र्धशहरी इलाकों में कम्युनिटी रेडियो संचालन की अनुमति नहीं दी जाती है।</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>देश में सर्वाधिक कम्युनिटी रेडियो स्टेशन अगर किसी राज्य के पास है तो वह मध्यप्रदेश है। राज्य शासन के जनजातीय कार्य विभाग के उपक्रम वन्या ने सुदूर ग्रामीण अंचलों में आठ कम्युनिटी रेडियो की स्थापना की। इसके अतिरिक्त स्वाधीनता संग्राम पर केन्द्रित एकमात्र कम्युनिटी रेडियो ‘रेडियो आजाद हिन्द’ की स्थापना की गई। इसके उपरांत एशिया के प्रथम पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के बिशनखेड़ी स्थित परिसर में ‘रेडियो कर्मवीर’ की स्थापना की गई। यह कैम्पस रेडियो नहींं होकर कम्युनिटी रेडियो का स्वरूप है। इस तरह मध्यप्रदेश के पास दस कम्युनिटी रेडियो है। इन कम्युनिटी रेडियो स्टेशनों में कार्य करते हुए मुझे जमीनी अनुभव हासिल हुआ। </p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के मन की बात कार्यक्रम को सामुदायिक रेडियो मॉडल से जोडक़र देखता हूं। भारत जैसे महादेश में अनेक ऐसे लोग हैं जो गुमनामी का जीवन जी रहे हैं लेकिन उनका काम, उनकी सफलता की कोई चर्चा नहीं होती है। ऐसे में कोई कारीगर, कोई किसान, कोई महिला जब प्रधानमंत्री से बात करती है तो उसकी कामयाबी ना केवल सामने आती है बल्कि ये लोग और आगे बढऩे का हौसला पाते हैं। हमारे भारतीय समाज में परीक्षा प्रतिभा मूल्यांकन के स्थान पर भय का वातावरण निर्मित करता है और बच्चे फेल होने के डर से कई बार जान देने तक उतारू हो जाते हैं। इन बच्चों के भीतर साहस जगाने के लिए और परीक्षा से भयभीत ना होने का मंत्र मोदीजी देते हैं तो ज्यादतर बच्चों के भीतर का डर पूरी तरह भले ही खत्म ना हो लेकिन कम तो जरूर हो जाता है। परीक्षा देने जाने से पहले हम उस अदृश्य शक्ति से पास हो जाने की कामना करते हैं क्योंकि हमारी पीठ पर हाथ रखकर हमें हौसला देने वाला कोई नहीं होता है। समाज का कोई भी तबका इस बड़ी समस्या पर कभी कोई पहल करने की जरूरत नहीं समझा इसलिये परीक्षा का भूत हमेशा हावी रहा लेकिन मोदीजी ने एक पालक की भूमिका का निर्वहन किया तो सारा का सारा मंजर ही बदल गया। ‘मन की बात’ के जरिए मोदीजी ने बड़ी ही खामोशी के साथ बाजार को बदल दिया। कम्युनिटी रेडियो का वैसे तो कोई रेवेन्यू मॉडल नहीं है लेकिन सूचना प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार प्रत्येक एक घंटे के प्रसारण में पांच मिनिट विज्ञापन प्रसारण की अनुमति देता है। इसके लिए सरकार द्वारा चार रुपये प्रति सेकंड की दर तय की गई है। बंधन यही है कि विज्ञापन सामाजिक चेतना जगाने वाला हो ना कि व्यवसायिक। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पूर्व समन्वयक रेडियो वन्या, भोपाल)</p>Manoj Kumarhttp://www.blogger.com/profile/07148316160659906464noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5788123601717760337.post-81931007015173766862023-09-28T19:09:00.008-07:002023-09-28T19:10:21.682-07:00 नागरिक बोध और प्रशासनिक दक्षता से सिरमौर स्वच्छ मध्यप्रदेश<p></p><div style="text-align: right;"><span style="text-align: justify;"> </span></div><div style="text-align: right;"><p></p><div style="text-align: justify;">मनोज कुमार</div><p style="text-align: left;"><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small; text-align: justify;"></span></p><div style="text-align: justify;"><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"></span><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;">वरिष्ठ पत्रकार</span><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"> </span></div><div style="text-align: justify;"><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"><span> <span> </span></span>स्वच्छ भारत अभियान में एक बार फिर मध्यप्रदेश ने बाजी मार ली है और लगातार स्वच्छ शहर बनने का रिकार्ड इंदौर के नाम पर दर्ज हो गया है. स्वच्छ मध्यप्रदेश का तमगा मिलते ही मध्यप्रदेश का मस्तिष्क गर्व से ऊंचा हो गया है. यह स्वाभाविक भी है. नागरिक बोध और प्रशासनिक दक्षता के कारण मध्यप्रदेश के खाते में यह उपलब्धि दर्ज हो सकी है. स्वच्छता गांधी पाठ का एक अहम हिस्सा है. गांधी जी मानते थे कि तंदरूस्त शरीर और तंदरूस्त मन के लिए स्वच्छता सबसे जरूरी उपाय है. उनका कहना यह भी था कि स्वच्छता कोई सिखाने की चीज नहीं है बल्कि यह भीतर से उठने वाला भाव है. गांधी ने अपने जीवनकाल में हमेशा दूसरे यह कार्य करें कि अपेक्षा स्वयं से शुरूआत करें के पक्षधर थे. स्वयं के लिए कपड़े बनाने के लिए सूत कातने का कार्य हो या लोगों को सीख देने के लिए स्वयं पाखाना साफ करने में जुट जाना उनके विशेष गुण थे. आज हम गौरव से कह सकते हैं कि समूचा समाज गांधी के रास्ते पर लौट रहा है. उसे लग रहा है कि जीवन और संसार बचाना है तो एकमात्र रास्ता गांधी का है.</span><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"> </span></div><div style="text-align: justify;"><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"><span> </span><span> </span>लगातार सातवीं बार इंदौर स्वच्छ शहर के खिताब से देशभर में नवाजा जाने वाला इकलौता शहर है तो यह नागरिक बोध का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है. इंदौरियों का इंदौर प्रेम जगजाहिर है. वे अपने परिवार से जितना प्रेम करते हैं, उससे कहीं अधिक अपने शहर को प्यार करते हैं. जब-जब शहर को अधिक संवारने की बात आयी तो सब एकसाथ कदमताल करने लगे. दलीय राजनीति से परे राजनेताओं के मन में भी नागरिक बोध है जो उन्हें दल से ऊपर उठाता है. आम नागरिक से लेकर धनाठ्य वर्ग तक अपने शहर इंदौर को लेकर संजीदा है. इंदौर और इंदौरिये समूचे समाज के लिए रोल मॉडल के रूप में उपस्थित हैं. इंदौर के बाहर हैं तो आप सर्तक हो जाइए क्योंकि किसी तरह का कचरा नियत स्थान पर ना फेंकने या शहर को गंदा करने की कोशिश पर आपको लज्जित होना पड़ सकता है. ऐसा करने वालों के साथ इंदौरिये सख्ती से ना तो पेश आते हैं और ना ही कोई ऐसा व्यवहार करते हैं जिससे इंदौर लज्जित हो. बल्कि पूरी शालीनता और आपके सम्मान में भिया कहते हुए आपके फेंके गए कचरे को स्वयं उठाकर कचरे की टोकरी में डाल देते हैं. वे शालीनता का परिचय देेते हैं और आप उनके बिना कुछ कहे लज्जित हो जाते हैं. संभव है कि इंदौर से नागरिक बोध का यह सबक आपके जीवन में आगे काम आएगा. मध्यप्रदेश के अन्य शहर इंदौर के रास्ते पर चल पड़े हैं और स्वच्छता के मापदंड में अपना स्थान बना रहे हैं.</span><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"> </span></div><div style="text-align: justify;"><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"><span> </span><span> </span>इंदौरियों का इंदौर प्रेम के कई किस्से मशहूर हैं. हालिया यह तय किया गया कि प्रदूषण से बचाने के लिए एक दिन ‘नो कार डे’ होगा. अर्थात कोई भी व्यक्ति इस पूर्व से तयशुदा दिन पर अपनी कार का उपयोग नहीं करेगा. अधिकांश लोगों ने इसका समर्थन किया लेकिन कुछ लोगों ने ऐसा करना जरूरी नहीं समझा. इसके बाद तो जागरूक इंदौरियों ने हर मंच से कार चलाने वालों के खिलाफ मुहिम छेड़ दी. सोशल मीडिया में अलग अलग एंगल से इन लोगों की आलोचना की जाने लगी. निश्चित रूप से आने वाले समय में लोग ‘नो कार डे’ को मानने के लिए बाध्य होंगे. दिल्ली राज्य सरकार की तरह इंदौर में आड एवं इवन का प्रयोग नहीं किया गया बल्कि ‘नो कार डे’ मतलब नो ‘नो कार डे’. इस कैम्पेन को लोगों तक पहुंचाने में लेखक राजकुमार जैन ने अहम भूमिका का निर्वाह किया. इसके पहले वे यातायात ठीक करने के लिए मुहिम चलाते रहे हैं और जिला प्रशासन ने उनके मुहिम के लिए सम्मानित भी किया है. ऐसा नहीं है कि इस तरह मुहिम चलाने वाले अकेले राजकुमार जैन हैं लेकिन सोशल मीडिया के खासे जानकार होने की वजह से वे जागरूकता फैलाने में आगे रहे हैं.</span><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;">नागरिक बोध के साथ प्रशासनिक दक्षता ने देश के ह्दय प्रदेश मध्यप्रदेश को स्वच्छता का सिरमौर बना दिया है. बदलते समय में सब चीजें बदल रही हैं. परिवर्तन का ऐसा दौर है जहां हर कुछ आपकी मु_ी में है. आप खरीददारी घर पर बैठे मोबाइल फोन से कर सकते हैं, यात्रा की टिकट बुक करा सकते हैं और स्वादिष्ट मनपसंद भोजन भी इसी मोबाइल से मंगा सकते हैं तो व्यवस्था दुरूस्त करने में आधुनिक यंत्रों का सकरात्मक उपयोग क्यों ना किया जाए. इसी सोच के साथ मध्यप्रदेश के नगरीय निकाय जिसके कंधे पर पूरे प्रदेश की स्वच्छता का भार है, उसने अभिनव प्रयोग किया. मंडला से लेकर झाबुआ तक स्थानीय निकाय आपस में मोबाइल, टैब और कम्प्यूटर के साथ प्रतिदिन सुबह जुड़ जाते हैं. समस्या और समाधान के बारे में बात होती है. पहले जिला मुख्यालयों के अधिकारियों को जोड़ा और संवाद का सिलसिला शुरू किया. थोड़े अड़चन के बाद परिणाम हमारे पक्ष में दिखने लगा तो आहिस्ता आहिस्ता हमने पूरे प्रदेश को टेक्रोफ्रैंडली सिस्टम का हिस्सा बना लिया और स्वच्छता अभियान की मॉनिटरिंग राजधानी भोपाल से करने लगे. संभवत: मध्यप्रदेश इकलौता राज्य है जिसने स्वयं आगे बढक़र टेक्रोफ्रैंडली सिस्टम को बनाया और इसके पॉजिटिव रिजल्ट हासिल किया.</span><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"> </span></div><div style="text-align: justify;"><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"> स्थानीय निकाय के प्रमुख सचिव बताते हैं कि प्रधानमंत्री ने जब देश में स्वच्छता अभियान का श्रीगणेश किया तो हम सबके लिए एक चुनौती थी. दूसरा इसमें एक काम्पीटिशन भी था जिसमें स्वच्छता के नम्बर मिलते थे. यह आसान नहीं था क्योंकि केन्द्र के अधिकारी और विशेषज्ञ आकर जांच करते थे. वे जब संतुष्ट होते थे तब कहीं जाकर स्वच्छता के मानक पर खरा उतरने वाले शहरों को नम्बर मिलते थे. एक बार किसी शहर को जीत का श्रेय मिल गया तो चुनौती और बढ़ जाती थी कि इस मानक से आगे बढक़र कैसे खरा उतरें? इसका एक सीधा समाधान यह था कि मीटिंग की जाए और लोगों से संवाद कर इसे स्तरीय बनाया जाए. कहने और बोलने के लिए यह तो सरल है लेकिन इसके इम्पलीमेंट में कई व्यवहारिक दिक्कतें हमारे सामने आयी. ऐसे में विचार करने के बाद हमें टेक्रोफ्रैंडली का एक सुगम रास्ता सूझा.</span><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"> </span></div><div style="text-align: justify;"><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"> इस बारे में स्थानीय निकाय आयुक्त कहते हैं कि स्वच्छता अभियान में प्रशासनिक पहल की कसावट जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है नागरिकों की सहभागिता. वे इंदौर का उदाहरण देते हुए बताते हैं कि इंदौर में प्रशासनिक पहल के साथ नागरिक बोध ने भी इंदौर को स्वच्छता क्रम में देश में सबसे आगे रखा. आने वाले दिनों में इसी टेक्रोफ्रैंडली सिस्टम के माध्यम से हम आम आदमी से संवाद करेंगे और उन्हें जागरूक करने का प्रयास करेंगे. यही नहीं स्वच्छता के लिए बेहतर कार्य करने वाले व्यक्ति और संस्था को रोल मॉडल के रूप में प्रदेश के समस्त स्थानीय निकायों के बीच रखेंगे जिससे लोगों में प्रतिस्पर्धा की भावना उत्पन्न हो और प्रदेश को बेहतर परिणाम मिले. टेक्रोफ्रैंडली सिस्टम को कोआर्डिनेट करने वाले मीडिया इंचार्ज संजीव परसाई कहते हैं कि टेक्रोफ्रैंडली सिस्टम की सबसे पहले जरूरत होती है समय की पाबंदी. और जब हम स्वच्छता जैसे विषय पर पहल करते हैं तो हम सब जानते हैं कि अलसुबह सफाई का कार्य होता है. जब हम टेक्रोफ्रैंडली सिस्टम में वीडियो कॉल पर सबकुछ अपनी आंखों से देखते हैं तो यह भ्रम भी दूर हो जाता है कि जो कुछ बताया जा रहा है, वह हकीकत में हो भी रहा है कि नहीं. यानि इस सिस्टम में हेरफेर की गुंजाईश बची नहीं है.</span><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"> </span></div><div style="text-align: justify;"><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"> तस्वीर साफ हो जाती है कि नागरिक बोध के साथ प्रशानिक दक्षता ने स्वच्छता के शीर्ष पर मध्यप्रदेश को ला खड़ा किया है. अब चुनौती इस बात की नहीं है कि आपने मंजिल प्राप्त कर ली है लेकिन चुनौती है इस कामयाबी के साथ खड़ा रहने की. इंदौर ने तो बता दिया कि कामयाबी के साथ-साथ कामयाबी के शीर्ष पर खड़े रहना भी आता है. महात्मा गांधी का नागरिक बोध की सीख को मध्यप्रदेश का हर नागरिक सीख गया है. </span></div></div>Manoj Kumarhttp://www.blogger.com/profile/07148316160659906464noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5788123601717760337.post-87232921381637072702023-08-28T09:48:00.001-07:002023-08-28T09:48:07.690-07:00 'मन में देश का दिल मध्यप्रदेश<p style="text-align: justify;">मनोज कुमार</p><p style="text-align: justify;">देश का दिल है मध्यप्रदेश और मध्यप्रदेश प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दिल में भी बसता है. प्रधानमंत्री अपने लोकप्रिय कार्यक्रम 'मन की बातÓ में निरंतर मध्यप्रदेश की उपलब्धियों का उल्लेख करते रहे हैं. वे अपने संबोधन में मध्यप्रदेश की उपलब्धियों और विशेषताओं से अन्य राज्यों को अवगत कराते रहे हैं. वे मानते हैं कि मध्यप्रदेश देश का ह्दयप्रदेश ही नहीं है बल्कि वह देश के लिए एक आदर्श प्रदेश है. एक रोल मॉडल राज्य के रूप में मध्यप्रदेश ने अपनी पहचान स्थापित की है. यह जानना रोचक होगा कि इस विशाल देश के कोने-कोने से हुनरमंद लोगों की तलाश कर लोगों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं. मध्यप्रदेश के संदर्भ में यह तो और भी रोचक है.</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>यूं तो मन की बात कार्यक्रम के करीब 105 एपिसोड होने जा रहे हैं. इनमें से कुछ ऐसे एपिसोड हैं जिसमें मध्यप्रदेश का विशेष रूप से उल्लेख हुआ है. मन की बात का 103वां एपिसोड मध्यप्रदेश के लिए खास था। पीएम मोदी ने इस कार्यक्रम में मध्यप्रदेश के शहडोल का उल्लेख करते हुए कहा कि 'कुछ समय पहले, मैं, एम.पी. के शहडोल गया था। वहां मेरी मुलाकात पकरिया गांव के आदिवासी भाई-बहनों से हुई थी। वहीं पर मेरी उनसे प्रकृति और पानी को बचाने के लिए भी चर्चा हुई थी। अभी मुझे पता चला है कि पकरिया गांव के आदिवासी भाई-बहनों ने इसे लेकर काम भी शुरू कर दिया है। यहां, प्रशासन की मदद से, लोगों ने, करीब सौ कुओं को वॉटर रिजार्च सिस्टम में बदल दिया है। बारिश का पानी, अब इन कुओं में जाता है, और कुओं से ये पानी, जमीन के अंदर चला जाता है। इससे इलाके में भू-जल स्तर भी धीरे-धीरे सुधरेगा। अब सभी गांव वालों ने पूरे क्षेत्र के करीब-करीब 800 कुएं को रिचार्ज के लिए उपयोग में लाने का लक्ष्य बनाया है।Ó उन्होंने शहडोल के ही विचारपुर गांव का भी उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि इसे मिनी ब्राजील कहा जाता है। पीएम मोदी ने कहा कि 'ये गांव आज उभरते सितारों का गढ़ बन गया है। यहां मेरी मुलाकात इन खिलाडिय़ों से हुई। विचारपुर गांव के मिनी ब्राजील बनने की यात्रा 2 दशक पहले शुरू हुई। यह गांव कभी अवैध शराब के लिए बदनाम था। इसका सबसे बड़ा नुकसान यहां के युवाओं को हो रहा था। एक पूर्व नेशनल प्लेयर और कोच रईस एहमद ने इन युवाओं की प्रतिभा को पहचाना। रईस जी ने युवाओं को फुटबॉल सिखाना शुरू किया। कुछ साल के भीतर ही यहां फुटबॉल इतनी प्रसिद्ध हो गई कि विचारपुर गांव की पहचान ही इससे होने लगी। अब यहां फुटबॉल क्रांति नाम से एक प्रोग्राम भी चल रहा है।Ó</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>मन की बात में जिन दो प्रसंग का मोदीजी ने उल्लेख किया है, वह मध्यप्रदेश में हो रहे नवाचार की झलकी तो दिखाते ही हंै बल्कि दूसरों को प्रेरणा भी देते हैं. उज्जैन में अलग-अलग शैलियों में बन रही पुराणों पर आधारित पेंटिंग के बारे में बताया। अमेरिका द्वारा भारत को लौटाई गई मूर्तियों में एक मूर्ति का नाता मध्य प्रदेश से है यह भी प्रधानमंत्री ने बताया। वहीं फिर एक बार शहडोल जिले के विचारपुर गांव जिसे मिनी ब्राजील के नाम से जाना जाता है उसका जिक्र करते हुए बताया कि कैसे यह गांव नशे से मुक्त होकर फुटबाल से प्रेम करने लगा।</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>मन की बात में उज्जैन में बन अलग-अलग शैली के चित्रों का उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया कि एक प्रयास इन दिनों उज्जैन में चल रहा है। यहां देशभर के 18 चित्रकार, पुराणों पर आधारित आकर्षक चित्रकथाएं बना रहे हैं। ये चित्र, बूंदी शैली, नाथद्वारा शैली, पहाड़ी शैली और अपभ्रंश शैली जैसी कई विशिष्ट शैलियों में बनेंगे। प्रधानमंत्री ने कहा कि, इन्हें उज्जैन के त्रिवेणी संग्रहालय में प्रदर्शित किया जाएगा, यानि कुछ समय बाद, जब आप उज्जैन जाएंगे, तो, महाकाल महालोक के साथ-साथ एक और दिव्य स्थान के आप दर्शन कर सकेंगे। अपना अनुभव शेयर करते हुए उन्होंने बताया कि कुछ दिन पहले इंटरनेट मीडिया पर एक अद्भुत क्रेज दिखा। अमेरिका ने हमें 100 से ज्यादा दुर्लभ और प्राचीन कलाकृतियां वापस लौटाई हैं। इनमें से कुछ तो ऐसी हैं, जो आपको, आश्चर्य से भर देंगी। आप इन्हें देखेंगे, तो देखते ही रह जाएंगे। इनमें 11वीं शताब्दी का एक खुबसूरत सेंड स्टोन स्कल्पचर भी आपको देखने को मिलेगा। ये नृत्य करती हुई एक 'अप्सराÓ की कलाकृति है, जिसका नाता मध्यप्रदेश से है। युवाओं में अपनी विरासत के प्रति गर्व का भाव दिखा। भारत लौटीं ये कलाकृतियां 2500 साल से लेकर 250 साल तक पुरानी हैं।</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>मन की बात में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मध्य प्रदेश के तीन ऐसे उदाहरण बताए जिन्होंनेे देश में अनोखा काम किया है. इनमें इंदौर की ह्यूमन चेन, मंडला में अमृत सरोवर और दतिया के मेरा बच्चा अभियान है. प्रधानमंत्री मोदी ने दतिया जिले के मेरा बच्चा अभियान की सराहना करते हुए कहा कि आप कल्पना कर सकते हैं कि कुपोषण दूर करने में गीत-संगीत और भजन का भी इस्तेमाल हो सकता है? मध्यप्रदेश के दतिया जिले में मेरा बच्चा अभियान में इसका सफलतापूर्वक प्रयोग किया गया। बीते 15 अगस्त को इंदौर में 5000 से अधिक स्कूली छात्र, सामाजिक कार्यकर्ता और अन्य लोग सबसे बड़ी मानव श्रृंखला के जरिए भारत का भौगोलिक नक्शा बनाने का नया विश्व रिकॉर्ड बनाया था. पीएम नरेंद्र मोदी ने मण्डला के मोचा ग्राम पंचायत में बने अमृत सरोवर को अनूठा बताया. </p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>सामाजिक जागरूकता के लिए उम्र और साधन सम्पन्न होने की जरूरत नहीं. केवल मन में इच्छा भी लोगों को जागरूक कर सकती है. कटनी जिले की नन्हीं मीनाक्षी और बश्वर ने ऐसा कर दिखाया. मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा है कि प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने आज मन की बात में प्रदेश की प्रतिभाओं का उल्लेख कर उनका मनोबल बढ़ाने का कार्य किया है। मन की बात में प्रधानमंत्री श्री मोदी ने बच्चों के योगदान का उल्लेख करते हुए कहा कि 'हम सब जानते हैं कि बच्चों को गुल्लक से कितना प्यार होता है। लेकिन मध्यप्रदेश के कटनी जिले की 13 वर्ष की मीनाक्षी और पश्चिमी बंगाल के डायमंड हार्बर के 11 वर्ष के बश्वर मुखर्जी कुछ अलग हैं। इन दोनों बच्चों ने अपनी गुल्लक के पैसे टी.बी. मुक्त भारत के लिए लगा दिए। उनका यह उदाहरण भावुकता से भरे होने के साथ प्रेरक करने वाला भी है। कम आयु में बड़ी सोच रखने वाले इन सभी बच्चों की मैं प्रशंसा करता हूँ।Ó कटनी जिले की हमारी बेटी मीनाक्षी सहित अनेक बच्चों के टी.बी.मुक्त भारत के लिए दिये गये योगदान की प्रशंसा कर प्रधानमंत्री ने अन्य बच्चों का मनोबल बढ़ाया है। इ</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>मन की बात में ग्वालियर निवासी कु. निधि पवैया जिन्होंने उत्तर प्रदेश में हाल ही में सम्पन्न खेलो इंडिया यूनिवर्सिटी गेम में शॉट-पुट प्रतिस्पर्धा में स्वर्ण पदक जीता था, का भी उल्लेख किया। प्रधानमंत्री ने कहा कि भोपाल के बरकतउल्ला विश्वविद्यालय की छात्रा कु. निधि पवैया ने घुटने में गंभीर चोट के बावजूद शॉट-पुट में गोल्ड मेडल जीतने में कामयाबी हासिल की। कु. निधि ग्वालियर जिले के चिनौर गाँव की निवासी है और उनके पिता छोटे सिंह पवैया किसान हैं.</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>प्रधानमंत्री मन की बात में मध्यप्रदेश के जिन लोगों का उल्लेख कर चुके हैं, उनमें मुख्य रूप से ममता शर्मा, आसाराम चौधरी, मास्टर तुषार, उषा दुबे, रजनीश, बबीता राजपूत, अर्जुन सिंह , रोहित सिसोदिया , फील्ड डायरेक्टर पेंच टाइगर रिजर्व, सुभाष सिसोदिया अतुल पाटीदार, अनुराग असाटी और पद्म पुरस्कार विजेता डॉक्टर जनक पलटा, शांति परमार और भूरी बाई हैं. इनके अलावा भी जिन लोगों का जिक्र मन की बात में हुआ उनमें ग्राम पंचायत के कमलेश और कविता चंदवानी, भावना, राम लोटन कुशवाह ,किशोरी लाल धुर्वे , मीना राहंगडाले, भज्जू श्याम , शिवा चौबे, आशीष पारे, स्वाति श्रीवास्तव, अवनि चतुर्वेदी समेत कई लोग शामिल हैं. इन अद्भुत लोगों का मन की बात के सौ एपिसोड पूरे होने पर राजभवन भोपाल में सम्मान किया गया. यह सारे प्रसंग बताते हैं कि मध्यप्रदेश में प्रतिभावान, सामाजिक सरोकार और पर-हितैषी लोगों की संख्या बेशुमार हैं. कला, खेल और रोजगार के अवसर उत्पन्न करने में इनका कोई सानी नहीं है. इनकी प्रतिभा, इनका समर्पण दबा-छिपा रहता लेकिन मन की बात में उल्लेख होते ही ये लोग पूरे देश और दुनिया के लिए बेमिसाल उदाहरण बन गए हैं. (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)</p>Manoj Kumarhttp://www.blogger.com/profile/07148316160659906464noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5788123601717760337.post-25828408147176218182023-07-02T09:55:00.000-07:002023-07-02T09:55:04.800-07:00‘सिकल सेल’ के खिलाफ शंखनाद<p style="text-align: justify;"><span style="color: white;"><br /></span></p><span style="color: white;"><span style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"><div style="text-align: justify;">मनोज कुमार</div></span><span style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"><div style="text-align: justify;">मध्यप्रदेश सहित कुछ राज्यों में निकट भविष्य में चुनाव होने वाले हैं और राज्य सरकार मतदाताओं को लुभाने के लिए खजाने का मुंह खोले बैठी है लेकिन इससे इतर एक यज्ञ के रूप में जिस देशव्यापी अभियान की शुरूआत मध्यप्रदेश के शहडोल जिले से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किया है, वह चुनाव नहीं बल्कि एक-एक आदिवासी की धडक़न बचाने से वास्ता रखता है. इसे सिकल सेल रोग के खिलाफ शंखनाद कह सकते हैं. आदिवासी समाज को आहिस्ता-आहिस्ता निगल रही सिकल सेल नाम एनीमिया के उन्मूलन का बीड़ा केन्द्र सरकार ने उठाया है और आने वाले साल 47 तक सिकल सेल बीमारी को खत्म करने का निश्चिय किया है. सिकल सेल एनीमिया एक प्रकार की अनुवांशिक बीमारी यानी जेनेटिक डिसऑर्डर है. माता और पिता दोनों में सिकल सेल के जीन्स होने पर उनके बच्चों में यह बीमारी होना स्वाभाविक है. सिकल सेल में रोगी की लाल रक्त कोशिकाएं हंसिए के आकार में परिवर्तित हो जाती हैं. हंसिए के आकार के ये कण शरीर के विभिन्न अंगों में पहुंच कर रुकावट पैदा करते हैं. इस जन्मजात रोग से ग्रसित बच्चा शिशु अवस्था से बुखार, सर्दी, पेट दर्द, जोड़ों एवं घुटनों में दर्द, सूजन और कभी रक्त की कमी से परेशान रहता है. सिकलसेल-एनीमिया ऐसा रक्त विकार है, जिसमें लाल रक्त कोशिकाएं जल्दी टूट जाती है. इसके कारण एनीमिया और अन्य जटिलताएं जैसे कि वेसो-ओक्लुसिव क्राइसिस, फेफड़ों में संक्रमण, एनीमिया, गुर्दे और यकृत की विफलता, स्ट्रोक आदि की बीमारी और यहां तक की पीडि़त के मौत तक की आशंका रहती है।</div></span><span style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"><div style="text-align: justify;">विशेषज्ञों के अनुसार सिकल सैल एनीमिया 3 प्रकार का होता है. पहला प्रकार सिकल वाहक है, सिकल वाहक में कोई लक्षण दिखाई नहीं देते और ऐसे व्यक्ति को उपचार की आवश्यकता नहीं होती, लेकिन ऐसे व्यक्ति को यह पता होना चाहिये कि वह सिकल वाहक है. यदि अनजाने में सिकल वाहक दूसरे सिकल रोगी से विवाह करता है, तो सिकल पीडि़त संतान पैदा होने की संभावना बढ़ जाती है. दूसरे प्रकार के सिकल रोगी में सिकल सैल बीमारी के लक्षण दिखाई देते हैं. इन्हें उपचार की आवश्यकता होती है. सिकल बीटा थेलेसिमिया तीसरे प्रकार का सिकल सैल रोग है. बीटा थैलेसिमिया बीटा ग्लोबिन जीन में दोष के कारण होता है. सिकल सैल बीमारी अनुवांशिक बीमारी है. सिकल सैल रोगी के साथ खाना खाने, साथ रहने, हाथ मिलाने अथवा गले मिलने से यह रोग नहीं होता. यह बीमारी केवल माता.पिता से ही बच्चों में आ सकती है, जिसे बचपन में यह बीमारी नहीं हैए उसे आगे जिंदगी में कभी भी किसी भी तरीके से सिकल सैल की बीमारी नहीं हो सकती.</div></span><span style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"><div style="text-align: justify;">सिकल सेल बीमारी को नेस्तनाबूद करने के लिए मध्यप्रदेश के गर्वनर मंगूभाई पटेल ने सर्वाधिक सक्रियता के साथ इस अभियान में जुटे हुए थे. मध्यप्रदेश के शहडोल जिले से सिकल सेल एनीमिया के खात्मे के संकल्प के साथ एक जनअभियान की शुरूआत हो चुकी है. सिकल सेल किस तरह आदिवासी समाज का काल का ग्रास बना रही है, यह जानने से पहले जरूरी है कि यह जान लें कि अकेले मध्यप्रदेश ही नहीं बल्कि देश के करीब 17 राज्यों 7 करोड़ से अधिक आदिवासीजन इस बीमारी की चपेट में हैं. आबादी के मान से मध्यप्रदेश एक बड़ा आदिवासी प्रदेश है लिहाजा मध्यप्रदेश सर्वाधिक प्रभावित राज्य माने जा सकते हैं. वैसे इस समय देश के 17 जिलों में इस बीमारी का प्रकोप है जिनमें मुख्य रूप से ओडिशा, छत्तीसगढ़, झारखंड, गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और केरल में यह बीमारी जड़े जमाए हुए है. आए दिन जनजातीय समुदाय की मौतें एनीमिया सिकल सेल में कारण हो रही है। मध्यप्रदेश में एनीमिया सिकलसेल आदिवासी बाहुल्य इलाकों में ज्यादा फैला हुआ है उनमें शहडोल, उमरिया, अनुपपुर, बालाघाट, डिंडोरी, मंडला, सिवनी, छिंदवाड़ा, बड़वानी, अलीराजपुर, बुरहानपुर, बैतूल, धार, शिवपुरी, होशंगाबाद, जबलपुर, खंडवा, खरगोन, रतलाम, सिंगरौली और सीधी के नाम शामिल हैं. सिकल सेल रोग (एससीडी) एक क्रोनिक एकल जीन विकार है जो क्रोनिक एनीमिया, तीव्र दर्दनाक एपिसोड, अंग रोधगलन और क्रोनिक अंग क्षति और जीवन प्रत्याशा में महत्वपूर्ण कमी की विशेषता वाले दुर्बल प्रणालीगत सिंड्रोम का कारण बनता है।</div></span><span style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"><div style="text-align: justify;">उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत, भारत सरकार अपने वार्षिक पीआईपी प्रस्तावों के अनुसार सिकल सेल रोग की रोकथाम और प्रबंधन के लिए राज्यों का समर्थन करती है। वित्त वर्ष 2023-24 के केंद्रीय बजट में, 2047 तक सिकल सेल एनीमिया को खत्म करने के लिए एक मिशन शुरू करने की घोषणा की गई है. इस मिशन में जागरूकता सृजन, प्रभावित क्षेत्र में 0-40 वर्ष आयु वर्ग के लगभग सात करोड़ लोगों की सार्वभौमिक जांच पर ध्यान केंद्रित किया गया है. केंद्रीय मंत्रालयों और राज्य सरकारों के सहयोगात्मक प्रयासों के माध्यम से जनजातीय क्षेत्रों और परामर्श. सिकल सेल रोग की जांच और प्रबंधन में चुनौतियों से निपटने के लिए मध्य प्रदेश में राज्य हीमोग्लोबिनोपैथी मिशन की स्थापना की गई है. प्रधानमंत्री द्वारा बीते 15 नवंबर 2021 को मध्यप्रदेश के झाबुआ और अलीराजपुर जिले और परियोजना के दूसरे चरण में शामिल 89 आदिवासी ब्लॉकों में स्क्रीनिंग के लिए एक पायलट परियोजना शुरू की गई. राज्य द्वारा दी गई रिपोर्ट के अनुसार कुल 993114 व्यक्तियों की जांच की गई है जिनमें से 18866 में एचबीएएस (सिकल ट्रेट) और 1506 (एचबीएसएस सिकल रोगग्रस्त) पाए गए हैं. इसके अलावा, राज्य सरकार ने रोगियों के उपचार और निदान के लिए 22 जनजातीय जिलों में हीमोफिलिया और हीग्लोबिनोपैथी के लिए एकीकृत केंद्र की स्थापना की है.</div></span><span style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"><div style="text-align: justify;">नेशनल फाउंडेशन ऑफ इंडिया की मीडिया फेलोशिप के तहत तैयार रिपोर्ट में राजेन्द्र जोशी लिखते हैं कि सिकल सेल एनीमिया में लाल रक्त कोशिकाओं की कमी के कारण फेफड़ों तक पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं पहुंच पाती है. यह आपातकालीन स्थिति पैदा कर सकता है जैसे छाती में दर्द, सांस लेने में तकलीफ बच्चों को बुखार होना आदि। हंसिए के आकार रक्त कोशिकाओं द्वारा रक्त–वाहिकाओं को बाधित करने के कारण तेज दर्द उठ सकता है। आमतौर पर पेट, छाती और हड्डियों के जोड़ों में तेज चुभने वाला दर्द होता है। दर्द शरीर के किसी भी हिस्से में हो सकता है। इस बीमारी में डिहाइड्रेशन, बुखार, शरीर के तापामान में उतार-चढ़ाव, तनाव आदि भी हो सकता है। बच्चों में ये सभी लक्षण कुछ दिनों से लेकर सप्ताह भर तक नजर आ सकते हैं। बच्चे में इनसे लक्षण अलग भी हो सकते हैं। सिकल सेल एनीमिया का इलाज - दुर्भाग्यवश इस बीमारी का इलाज संभव नहीं है। बच्चों के लक्षणों को देखकर उसका इलाज किया जाता है। स्टेट हेल्थ रिसोर्स सेन्टर (छत्तीसगढ़) के पूर्व निदेशक (2014-2020) डॉ. प्रबीर चटर्जी ने बताया कि उन्होंने अपने कार्यकाल में यह सुनिश्चित करवाया कि हीमोग्लोबीन की कमी वाली प्रत्येक गर्भवती महिला की सिकल सेल एनीमिया की जांच हो। किसी महिला के सिकल सेल पाजीटिव होने पर अन्य परिजनों की भी जांच करवाई जाती थी. उन्होंने भी स्वीकार किया कि सिकल सेल एनीमिया की जांच की संख्या जितनी बढ़ाई जाएगी पीडि़तों की पहचान आसान होगी। राज्य सरकारों को यह काम करना चाहिए. मध्यप्रदेश सरकार ने सिकल सेल से पीडि़त मरीजों को विकलांग मान लिया है और जो मरीज 40 प्रतिशत से अधिक सिकल सेल एनीमिया से प्रभावित है उनके विकलांगता प्रमाण पत्र बनाए जा रहे हैं। सिकल सेल एनीमिया से पीडि़त मरीज और परिजन सरकारी अस्पतालों में मिलने वाली नि:शुल्क सुविधाओं के बारे में अनजान हैं. इसी कारण वे निजी जांच केन्द्रों और निजी चिकित्सकों से इलाज में हजारो रूपये खर्च कर देते हैं, जबकि सरकारी जिला अस्पतालों में सिकल सेल एनीमिया से पीडि़त मरीजों को जांच और दवाइयाँ नि:शुल्क मिलती है। मध्य प्रदेश के 45 में से 22 जिले सिकल सेल बेल्ट के अंतर्गत आते हैं और एचबीएस की व्यापकता 10 से 33 प्रतिशत के बीच है. पीडि़त व्यक्ति को प्रति माह 400 से 500 रूपये की दवाई खरीदनी पडती है। इसके अलावा सिकल सेल की तीनों तरह की जांच 200 रूपये से लगाकर 1,200 रुपयों तक की होती है। सिकल सेल के गंभीर मरीजों को ब्लड चढ़ाना पड़ता है जिसका निजी अस्पतालों में 3,000 रूपये यूनिट का खर्च पडता है. जबकि सरकारी जिला अस्पताल में यह सुविधा नि:शुल्क है. डोनर अगर निकट संबंधी हो तो उसका ब्लड इस्तेमाल किया जाता है। सिकल सेल प्रमाणीकरण के लिये एक बार जांच की जरुरत होती है जबकि नियमित रूप से हीमाग्लोबीन की जांच करवाई जाती हैं.</div></span><span style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"><div style="text-align: justify;">आदिवासी जिलों में सरकारी स्वास्थ सेवाओं के हाल में पहले की तुलना में सुधार तो हुआ है लेकिन सिकल सेल एनीमीया को उतनी गम्भीर बीमारी नहीं माना जा रहा है जितनी यह गम्भीर है। मध्यप्रदेश के आदिवासी जिले धार के के सुदूर विकासखंड डही में स्थित सामुदायिक स्वास्थ केन्द्र में सिकल सेल एनीमिया की प्रारम्भिक जांच सुविधा उपलब्ध तो है लेकिन लम्बे समय से सिकल सेल टेस्ट किट नहीं है। आश्चर्यजनक है कि यहां मरीजों के गाँव तथा संपर्क नंबर तक से संबंधित कोई डाटा संधारित नहीं किया जाता है। केवल इतना ही नहीं, सामुदायिक केन्द्र होने के बावजूद ऑन रिकार्ड कोई भी बात करने को तैयार नहीं है। यही हाल सिविल अस्पताल कुक्षी के हैं जहाँ पर मरीजों की सूची और सम्पर्क नम्बर तो है लेकिन सिकल सेल जांच की एचपीएलसी मशीन नहीं है। लम्बे समय से यहां जांच किट भी उपलब्ध नहीं है नहीं है। उपलब्ध सुविधाओं और कमियों के बारे में जिम्मेदार ऑन रेकार्ड बात करने को तैयार नहीं है। 17 दिसम्बर 2021 को प्राप्त रिपोर्ट के अनुसार खरगोन जिले में सिकल सेल एनीमिया से प्रभावित मरीजों को आंकडा 6,492 है तो बडवानी जिले में यह आंकडा 5,794 है आलीराजुपर में 5,055 खंडवा में 133 छिंदवाडा में 88 तो बालाघाट 702 मरीज, बैतूल में 290 छिन्दवाडा में 90 खंडवा में 133, झाबुआ में 800, शहडोल में 75 मरीज दर्ज है। जिलों से प्राप्त जानकारी अनुसार कुल मरीजों की संख्या 19,519 है। प्रदेश के इन्हीं जिलो में निजी चिकित्सकों से इलाज करवाने वाले मरीजों के आंकड़े इनमें शामिल नही है, जिनकी संख्या सरकारी आंकडो से कई गुना ज्यादा हो सकती है। जबकि मप्र के स्वास्थ विभाग के 2020-21 के वार्षिक प्रतिवेदन में सम्पर्ण मप्र में सिकल सेल एनीमिया से प्रभावित मरीजों की संख्या मात्र 6,649 बताई गई है। वहीं दूसरी और इन्हीं जिलों में विकासखंड स्तर के सामुदायिक स्वास्थ केन्द्रों पर लेबोरेटरी की सुविधा जरूर है लेकिन वहां पर सिकल सेल एनीमिया की जांच किट न होने से मरीजों को पहचान नहीं हो पा रही है।</div></span><span style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"><div style="text-align: justify;">केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट 2023 में सिकल सेल एनीमिया बीमारी को लेकर एक ऐलान किया था। इस दौरान उन्होंने बताया था कि हमारी सरकार का लक्ष्य है कि साल 2047 तक इस रोग को भारत से जड़ से खत्म कर दिया जाए। इसी कड़ी में पीएम मोदी ने शहडोल में सिकल सेल कार्ड वितरण कर बीमारी की स्क्रीनिंग के लिए लोगों को जागरूक करने का संदेश दिया. (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)</div></span></span>Manoj Kumarhttp://www.blogger.com/profile/07148316160659906464noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5788123601717760337.post-16434182092647381782023-06-21T21:53:00.001-07:002023-06-21T21:53:02.891-07:00 टेक्नो फ्रेंडली संवाद से स्वच्छत<p style="text-align: justify;"><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;">मनोज कुमार</span></p><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"><div style="text-align: justify;"><span> </span><span> </span>देश के सबसे स्वच्छ शहर के रूप में जब इंदौर का बार-बार जिक्र करते हैं तो मध्यप्रदेश को अपने आप पर गर्व होता है, मध्यप्रदेश के कई शहर, छोटे जिलों को भी स्वच्छ भारत मिशन के लिए केन्द्र सरकार सम्मानित कर रही है. साल 2022 में मध्यप्रदेश ने देश के सबसे स्वच्छ राज्य का सम्मान प्राप्त किया। स्वच्छता का तमगा एक बार मिल सकता है लेकिन बार-बार मिले और वह अपनी पहचान कायम रखे, इसके लिए सतत रूप से निगरानी और संवाद की जरूरत होती है. कल्पना कीजिए कि मंडला से झाबुआ तक फैले मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में बैठकर कैसे निगरानी की जा सकती है? कैसे उन स्थानों में कार्य कर रही नगरपालिका, नगर परिषद और नगर निगमों से संवाद बनाया जा सकता है? एकबारगी देखें तो काम मुश्किल है लेकिन ठान लें तो सब आसान है. और यह कहने-सुनने की बात नहीं है बल्कि प्रतिदिन मुख्यालय भोपाल में बैठे आला-अधिकारी मंडला हो, नीमच हो या झाबुआ, छोटे शहर हों या बड़े नगर निगम, सब स्थानों का निरीक्षण कर रहे हैं और वहां कार्य करने वाले अधिकारी-कर्मचारियों, सफाई मित्रों (मध्यप्रदेश में सफाई कर्मियों को अब सफाई मित्र कहा जाता है) के साथ कई मर्तबा आम आदमी से भी संवाद करते हैं. ऐसी कवायद करने वाला देश का पहला राज्य मध्यप्रदेश है जिसने टेक्नोफ्रैंडली बनकर निरीक्षण और संवाद को नियमित बनाये रखा है. स्थानीय निकाय से मिली जानकारी के मुताबिक अब तक चार सौ से अधिक घंटे का स्वच्छता संवाद आयोजित हो चुका है और यह सिलसिला प्रतिदिन जारी है। इसके अतिरिक्त दिन में भी अनेक स्थानों से लोगों से सीधे चर्चा और अवलोकन का सिलसिला बना रहता है. </div></span><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"><div style="text-align: justify;"><span> </span><span> </span>कायदे से देखा जाए तो इस पूरी प्रक्रिया में पूरा लाव-लश्कर चाहिए और भारी-भरकम बजट लेकिन ‘दुनिया कर लो मु_ी’ में की तर्ज पर अधिकारी अपने-अपने लैपटॉप पर और प्रदेश भर के अधिकारी कर्मचारी लैपटॉप, डेस्कटॉप या मोबाइल पर एक-दूसरे के साथ जुड़ जाते हैं. किस शहर में स्वच्छता का आलम क्या है और वे क्या नया कर रहे हैं, यह दूसरे लोगों को भी पता चलता है. ऐसे ही अन्य लोगों के पास स्वच्छता को लेकर क्या प्लानिंग है, सब आपस में आइडिया शेयर करते हैं. इस टेक्नोफ्रेंडली प्रक्रिया ने शून्य बजट पर एक बड़े काम को बिना अतिरिक्त तनाव दिये पूरा किया जा रहा है. इसे आप कह सकते हैं कि टेक्नोफ्रेंडली होना मध्यप्रदेश की इस नयी स्वच्छता व्यवस्था के लिए एक वरदान की तरह है. मध्यप्रदेश में 413 नगर निगम, नगर पालिका और नगर परिषद हैं और इनमें हर दिन तीन चार सौ अधिकारी-कर्मचारी ऑनलाईन होते हैं. यह व्यवस्था अपने आप में अनूठा है और अन्य विभागों के लिए भी रोल मॉडल बन गया है. </div></span><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"><div style="text-align: justify;"><span> </span><span> </span>इसका परिणाम यह है कि अलसुबह से पूरे प्रदेश के नगर निगमों, नगर पालिका और नगर परिषदों के अधिकारी-कर्मचारी सक्रिय हो जाते हैं. इसके बाद संवाद का सिलसिला शुरू होता है. पिछले दिनों नजर में आयी कमियों को दूर किया गया कि नहीं किया गया और आने वाले दिनों में स्वच्छता के लिए क्या प्लान किये जा रहे हैं. सबके पास अपनी-अपनी प्लानिंग होती है और आला अफसरों के सवालों के जवाब भी. सबकुछ इतने सहज और सरल ढंग से हो रहा है कि जो काम कल तक पहाड़ की तरह लगता था, वह आज राई में बदल गया है. एक किस्म से सबकी दिनचर्या में शामिल हो गया है. यही नहीं, सुबह की मीटिंग के बाद दिन में जब किसी को जरूरत लगे बेखटके वह सवाल कर समाधान पा सकता है. इस टेक्नोफ्रेंडली सिस्टम में दिक्कतें कम और सुविधाएं अधिक हैं.</div></span><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"><div style="text-align: justify;"><span> </span><span> </span>इस बारे में आयुक्त, नगरीय प्रशासन श्री भरत यादव बताते हैं कि ‘प्रधानमंत्री जी ने जब देश में स्वच्छता अभियान का श्रीगणेश किया तो हम सबके लिए एक चुनौती थी. दूसरा स्वच्छ सर्वेक्षण देश के शहरों में स्वच्छता का काम्पीटिशन है, तो हमें हर लिहाज से बेहतर बनना होगा। फिर चाहे वो जमीनी व्यवस्था हो, अधोसंरचना हो या हमारा निगरानी और समाधान तंत्र। एक बार की जीत से उपजे उत्साह को हमने ताकत बनाया और तय किया गया कि सभी भागीदारों से नियमित संवाद किया जाए और उनकी समस्याओं के तत्काल समाधान भी दिए जाएं। ऐसे में हमें स्वच्छता संवाद का एक सुगम रास्ता सूझा. हमने मुख्यालय के अधिकारियों से विमर्श किया और हमारी टीम ने इसे सफल बना दिया। कई तरह के सुझाव आए और कई तरह की दिक्कतों का भी उल्लेख किया गया. हमारी टीम ने इतने बड़े प्रकल्प को शून्य बजट में प्लान किया, यह हमारी बड़ी सफलता है। सो हमने संभागवार अधिकारियों को जोड़ा और संवाद का सिलसिला शुरू किया.’ अब इस नियमित संवाद में आंतरिक चर्चा के अलावा नागरिकों और जनप्रतिधियों से भी शहरी स्वच्छता पर उनका फीडबैक लिया जाता है।</div></span><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"><div style="text-align: justify;"><span> </span><span> </span>आज आहिस्ता आहिस्ता इस माध्यम से प्रदेश के सभी छोटे बड़े नगरीय निकायों को टेक्नोफ्रैंडली सिस्टम का हिस्सा बना लिया और स्वच्छता अभियान की मॉनिटरिंग राजधानी भोपाल से नियमित रूप से की जा रही है। अब तक 400 घंटों से अधिक के 190 से अधिक संवाद सत्रों का आयोजन किया जा चुका है। संभवत: मध्यप्रदेश इकलौता राज्य है जिसने स्वयं आगे बढक़र टेक्नोफ्रेंडली सिस्टम को बनाया और इसके पॉजिटिव रिजल्ट हासिल किया.</div></span><div style="text-align: justify;"><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"><span> </span><span> </span>इस बारे में मिशन संचालक स्वच्छ भारत मिशन शहरी श्री अवधेश शर्मा का कहना है कि स्वच्छता अभियान में प्रशासनिक पहल की कसावट जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है नागरिकों की सहभागिता। हम इसी टेक्नोफ्रैंडली सिस्टम के माध्यम से संवाद कर उन्हें जागरूक करने का प्रयास कर रहे हैं। हम स्वच्छता के लिए बेहतर कार्य करने वाले व्यक्ति और संस्था को रोल मॉडल के रूप में प्रदेश के समस्त स्थानीय निकायों के बीच रखेंगे जिससे लोगों में प्रतिस्पर्धा की भावना उत्पन्न हो और प्रदेश को भविष्य में भी बेहतर परिणाम मिलें।</span></div><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"><div style="text-align: justify;"><span> </span><span> </span>इस प्रकल्प को क्रियान्वित करने वाली सलाहकार टीम केपीएमजी का कहना है कि टेक्नोफ्रेंडली सिस्टम की सबसे पहले जरूरत होती है समय की पाबंदी. और जब हम स्वच्छता जैसे विषय पर पहल करते हैं तो हम सब जानते हैं कि अलसुबह सफाई का कार्य होता है. जब हम टेक्नोफ्रेंडली सिस्टम में वीडियो कॉल पर सबकुछ अपनी आंखों से देखते हैं तो यह भ्रम भी दूर हो जाता है कि जो कुछ बताया जा रहा है, वह हकीकत में हो भी रहा है कि नहीं. यानि इस सिस्टम में हेरफेर की गुंजाईश बची नहीं है । इस प्रकार यह स्वच्छता संवाद ज्ञान प्रबंधन और क्षमतावर्धन का एक सशक्त माध्यम बनकर उभरा है। </div></span><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"><div style="text-align: justify;"><span> </span><span> </span>मध्यप्रदेश में स्थानीय निकाय के इन प्रयासों ने स्वच्छता अभियान को ना केवल नया स्वरूप दिया है बल्कि उस ढर्रे को तोडऩे का प्रयास किया है जिसमें बेहिसाब खर्च करने के बाद भी परिणाम शून्य आता था. टेक्नोफ्रेंडली सिस्टम से व्यवस्था को गति मिली है और अतिरिक्त बजट से भी विभाग मुक्त है. इसे एक पुरानी कहावत से जोड़ सकते हैं जिसमें कहा जाता था कि आम के आम, गुठली के दाम. अर्थात नए जमाने की टेक्रनालॉजी की आप चर्चा करते हैं लेकिन उसे अमलीजामा पहनाना नहीं आता था. स्वच्छ भारत मिशन, शहरी मध्यप्रदेश ने एक रास्ता दिखाया है कि कैसे आम आदमी के टैक्स के पैसों का सदुपयोग किया जा सकता है.</div></span>Manoj Kumarhttp://www.blogger.com/profile/07148316160659906464noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5788123601717760337.post-23413015454285300972023-06-02T00:05:00.004-07:002023-06-02T00:05:52.998-07:00 वो अढाई साल और भोपाल का गौरव दिवस<p style="text-align: justify;">मनोज कुमार</p><p style="text-align: justify;"> 15 अगस्त 1947 को जब पूरा देश आजाद हवा में सांस ले रहा था तब भोपाल की धडक़न थरथरा रही थी. भोपाल के वाशिंदों को एक-दो दिन नहीं, पूरे अढाई साल आजाद हवा में सांस लेने के लिए इंतजार करना पड़ा था. आखिर एक लम्बे इंतजार के बाद हौले से आजादी ने भोपाल के दरवाजे पर दस्तक दी. ये अढाई साल भोपालियों के लिए संघर्ष के उन दिनों से ज्यादा भारी थे जो उन्होंने फिरंगियों से लिये थे. इस बार लड़ाई घर में थी. वह तो भला हो उस लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल का जिन्होंने उन नापाक मंसूबों को धराशायी कर दिया. वे ऐसा नहीं करते तो आज भोपाल, भोपाल नजर नहीं आता और गौरव दिवस तो छोडिय़े, मेरा भोपाल कहने लायक भी नहीं रहते . आज भोपाल का गौरव दिवस मनाते समय उस घाव का दर्द महसूस करना इसलिए जरूरी हो जाता है कि हमारी नयी पीढ़ी जान सके कि गौरव ऐसे ही नहीं पाया जाता है. 1947 में ब्रिटिश हुकूमत से देश को भले ही आजादी मिली हो, लेकिन, भोपाल के लोगों ढाई साल तक गुलाम ही महसूस करते रहे। 15 अगस्त 1947 के बाद भी यहां नबावों का शासन था। इसके लिए ढाई साल तक संघर्ष हुआ। खास बात यह भी है कि तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल की सख्ती के बाद 1 जून 1949 को भोपाल रियासत का विलय भारत में हो गया।</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>15 अगस्त, 1947 को तब भोपाल रियासत के नवाब हमीदुल्लाह थे। अंग्रेजों के खास नवाब हमीदुल्लाह भारत में विलय के पक्ष में नहीं थे क्योंकि वे भोपाल पर शासन करना चाहते थे। जब भारत को आजाद करने का फैसला किया गया उस समय यह निर्णय भी लिया गया कि पूरे देश में से राजकीय शासन हटा लिया जाएगा। मौजूदा तथ्य बताते हैं कि जब पाकिस्तान बनाने पर निर्णय हुआ और जिन्ना ने हिन्दुस्तान के सभी मुस्लिम शासकों को भी पाकिस्तान का हिस्सा बनाने का प्रस्ताव दिया। जिन्ना के करीबी होने के कारण भोपाल नवाब को पाकिस्तान में सेक्र्रेटरी जनरल का पद सौंपने की बात की गई। ऐसे में हमीदुल्लाह ने अपनी बेटी आबिदा को भोपाल का शासन बनाकर रियासत संभालने को कहा, लेकिन इंकार कर दिया गया। अंतत: हमीदुल्लाह भोपाल में ही रहे और भोपाल को अपने अधीन बनाए रखने के लिए भारत सरकार के खिलाफ खड़े हो गए। देश आजाद हो चुका था, हर मोर्चों पर भारतीय ध्वज लहराया जाता था लेकिन, भोपाल में इसकी आजादी किसी को नहीं थी। दो साल तक ऐसी स्थिति रही। तब भोपाल के नवाब भारत सरकार के किसी कार्यक्रम में शिरकत नहीं करते थे और आजादी के जश्न में भी नहीं जाते थे।</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>सरदार पटेल जैसे कडक़ मिजाज वाले होम मिनिस्टर नहीं होते तब शायद संभव था कि भोपाल पाकिस्तान का हिस्सा बन चुका होता. इधर मार्च 1948 में भोपाल नवाब हमीदुल्लाह ने रियासत को स्वतंत्र रहने की घोषणा कर दी। मई 1948 में नवाब ने भोपाल सरकार का एक मंत्रिमंडल घोषित कर दिया। प्रधानमंत्री चतुरनारायण मालवीय बनाए गए थे। इसी दौर में भोपाल रियासत में विलीनीकरण के लिए विद्रोह शुरू हो चुका था। भोपाल में चल रहे बवाल पर आजाद भारत के पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने सख्त रवैया अपना लिया। पटेल ने नवाब के पास संदेश भेजा कि भोपाल स्वतंत्र नहीं रह सकता है। भोपाल को मध्यभारत का हिस्सा बनना ही होगा। 29 जनवरी 1949 को नवाब ने मंत्रिमंडल को बर्खास्त करते हुए सत्ता के सभी अधिकार अपने हाथ में ले लिए। इसके बाद भोपाल के अंदर ही विलीनीकरण के लिए विरोध-प्रदर्शन का दौर शुरू हो गया। तीन माह तक जमकर आंदोलन हुआ।</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>होम मिनिस्ट पटेल के कड़े रूख के आगे नवाब हमीदुल्ला को अपनी जिद छोडक़र 30 अप्रैल 1949 को विलीनीकरण के पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर होना पड़ा। इसके बाद भोपाल रियासत 1 जून 1949 को भारत का हिस्सा बन गई। केंद्र सरकार की ओर से नियुक्त चीफ कमिश्नर एनबी बैनर्जी ने भोपाल का कार्यभार संभाला और नवाब को 11 लाख सालाना का प्रिवीपर्स तय कर सत्ता के सभी अधिकार उनसे ले लिए। उल्लेखनीय है कि भारत सन् 1947 को स्वाधीन हो गया था किन्तु मध्यप्रदेश के 2 जिले रायसेन एवं सीहोर भोपाल नवाब हमीदुल्ला के गुलाम थे। इसी गुलामी को समाप्त करने हेतु तत्कालीन रियासत भोपाल के नागरिकों ने जो आंदोलन चलाया था उसे इतिहास में भोपाल विलीनीकरण आंदोलन के नाम से जाना जाता है।</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>भोपाल विलीनीकरण आंदोलन भी इतिहास के पन्नों पर स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है. हमीदुल्लाह ने भारत सरकार के साथ बातचीत करते हुए भोपाल को अलग स्वतंत्र राज्य घोषित करने पैरवी की थी. असल में, भोपाल एक मुस्लिम नवाबी स्टेट था लेकिन वहां आबादी हिंदू बहुल थी. नवाब के अलग रहने की इच्छा बने रहने की खबर के बाद दिसंबर 1948 में भोपाल में जनआंदोलन शुरू हुआ, जब नवाब हज के लिए गए हुए थे. शंकरदयाल शर्मा, भाई रतन कुमार गुप्ता जैसे नेताओं के नेतृत्व में भोपाल के भारत में विलय के लिए ‘विलीनीकरण आंदोलन’ शुरू हुआ. आंदोलन ने ज़ोर पकड़ा तो नवाबी व्यवस्था ने इसे कुचलने की कोशिश भी की. कुछ आंदोलनकारी शहीद हुए तो शर्मा जैसे कुछ नेताओं को कई महीनों के लिए जेल में रहना पड़ा. आंदोलन जनक्रांति का रूप धारण कर उग्र हो गया। नबाबी कार्यालयों पर तिरंगा फहराना एवं वंदे मातरम् गान पर गिरफ्तारी, लाठी चार्ज किया जाता था। </p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>भोपाल विलीनीकरण आंदोलन 14 जनवरी 1949 को मकर संक्रांति मेले में क्षेत्र के नवयुवकों का उत्साह चरम पर था। नर्मदा किनारे बोरास घाट पर मेला भरा हुआ था कि बीच मेले में भोपाल नवाव के खिलाफ विलीनीकरण आंदोलन के नवयुवकों द्वारा झंडा वंदन एवं सभा का आयोजन किया गया। झंडा वंदन होने के बाद स्व. बैजनाथ गुप्ता बिजली बाबा ने झंडा वंदन गीत गाया। जाफर अली ने सभास्थल पहुंचकर झंडा उतारने एवं सभा बंद करने चेतावनी दी। इस चेतावनी से बेपरवाह 16 साल के छोटेलाल आगे आए और बोला गोली का क्या डर बताता है? तभी थानेदार ने गोली चलाने का आदेश दे दिया। इस गोली से छोटेलाल शहीद हो गए। सुल्तानगंज निवासी 25 वर्षीय वीर धनसिंह राजपूत ने थाम लिया, किन्तु अगली गोली धनसिंह के सीने में समा गई। तीसरे शहीद हुए 30 वर्षीय मंगल सिंह, 3 नवयुवकों के शहीद होने के बाबजूद झंडे नीचे नहीं गिरे। चौथे नवयुवक ग्राम भुआरा निवासी विशाल सिंह ने थाम लिया परन्तु गोली चलना जारी था। विशाल सिंह के सीने में 2 गोलियां लगी परन्तु उसने भी झंडा नहीं छोड़ा। पुलिस कू्ररता पर उतर आई संगीन उसके पेट में उमेठ दी गई किन्तु विशाल सिंह ने झंडा झुकने नहीं दिया. झंडे की शान को कायम रखते हुए विशाल नर्मदा के जल तक ले गए और गड़ा दिया और हर नर्मदे कह कर अंतिम सांस ली। भोपाल की आजादी में जिन नायकों ने अपना सर्वस्व स्वाहा कर दिया प्रो. अक्षय कुमार जैन, रामचरण राय, शंकरदयाल शर्मा, उद्धवदास मेहता, रतन दास गुप्ता, प्रेमनारायण श्रीवास्तव, बाल कृष्ण गुप्ता, ठाकुर लाल सिंह, शांति देवी, मोहिनी देवी, मथुरा बाबू आदि शामिल थे। दमन की कार्यवाही के बाद भी विलीनीकरण आंदोलन तेज होता गया। उस दौर में 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता सेनानियों ने जुमेराती उप डाकघर पर तिरंगा फहराया था।</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>भोपाल गौरव दिवस अपने होने को सार्थक कर रहा है. यह बताने का माकूल वक्त है कि आजादी के परवानों ने कैसी-कैसी आहूति दी है तब जाकर हम आजाद हैं. अंग्रेजों की कू्ररता के सामने सिर ना झुकाने वाले नायकों ने कू्रर और बेरहम नवाब को भी झुकने के लिए मजबूर कर दिया. ऐसा है मेरा भोपाल और हम हैं भोपाली.</p>Manoj Kumarhttp://www.blogger.com/profile/07148316160659906464noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5788123601717760337.post-61599846392933686752023-05-14T20:10:00.003-07:002023-05-14T20:10:46.412-07:00यह शिवराजसिंह का मध्यप्रदेश है साहेब<p style="text-align: justify;"> कुमार</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>जीत हमेशा सकुन देती है. यह जीत व्यक्ति की हो या संस्था की और बात जब राजनीति की हो तो यह और भी अर्थपूर्ण हो जाता है. कांग्रेस की कर्नाटक में बम्पर जीत से कांग्रेसजनों का उल्लासित होना लाजिमी है. यह इसलिए भी कि लगातार पराजय के कारण कांग्रेस पार्टी के भीतर निराशा पनपने लगी थी और यह माहौल बनाया जा रहा था कि देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस पराभव के दौर से गुजर रही है. राजनीति में यह सब होना कोई अनोखा नहीं है. कल हम शीर्ष पर थे तो आज वो हैं और कल कोई होगा. ये पब्लिक है सब जानती है कि बात यहीं चरितार्थ होती है. कांग्रेस के खुश होने के अपने कारण हैं तो भाजपा को स्वयं की समीक्षा करने के लिए एक अवसर है. आने वाले समय में कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं और इन राज्यों में भाजपा की परीक्षा होगी तो कांग्रेस को भी इम्तहान से गुजरना होगा. एक जीत के बाद जश्र में डूब जाना कांग्रेस के लिए कतई हितकारी नहीं होगा. कांग्रेस के लिए कर्नाटक एक अवसर बनकर आया है और इस अवसर को आगे उसे भुनाने के लिए स्वयं को तैयार करना होगा. कांग्रेस की कर्नाटक में बड़ी जीत के बाद यह माहौल बनाया जा रहा है कि आने वाले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को बड़ी जीत मिल सकती है और भाजपा पीछे रह जाएगी. लेकिन ऐसा हो पाएगा, या नहीं, यह भविष्य के गर्भ में है. इस बात को भी समझना होगा कि मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान जैसे हिन्दी प्रदेश कर्नाटक नहीं हैं। इन राज्यों की भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियां अलग-अलग है इसलिए यह मानकर चलना कि कर्नाटक जैसा परिणाम इन राज्यों में कांग्रेस के लिए होगा, अभी जल्दबाजी होगी.</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>जिन राज्यों में विधानसभा के चुनाव निकट भविष्य में होना है, वहां भाजपा समीक्षा करेगी और लगभग शेष छह माह की अवधि में स्वयं को तैयार कर इन राज्यों में अपनी सरकार बनाने या बचाने का प्रयास पुरजोर ढंग से करेगी. कांग्रेसशासित राजस्थान एवं छत्तीगसगढ़ में जिस तरह की गुटबाजी कांग्रेस में है, वह जगजाहिर है. मुख्यमंत्री गहलोत के लिए सचिन पायलट रोज एक मुसीबत लेकर सामने आ रहे हैं तो छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल वर्सेस सिंहदेव की खटास भी किसी से छिपा हुआ नहीं है. मध्यप्रदेश में सरकार तो कांग्रेस की बन गई थी लेकिन आपसी रार के चलते एक बड़ा गुट भाजपा के साथ होकर सरकार गिराने में कामयाब रही. यही नहीं, कांग्रेस छोडक़र भाजपा का दामन थामने वाले बागी नेताओं में अधिकांश ने उपचुनाव में वापस जीत दर्ज की. इस तरह से कांगे्रस को अभी आत्ममंथन की जरूरत है कि कैसे इन राज्यों में सत्ता में वापसी हो. हालांकि भाजपा में सब ठीक है, यह कहना भी गलत है। यहां भी असंतोष उभार पर है। वैसे भी राजनीति में महत्वकांक्षा पालना गलत नहीं है लेकिन योग्यता और भाग्य ही साथ देते हैं और इस पैमाने पर फिलवक्त शिवराज सिंह का कोई विकल्प नहीं है। </p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>मध्यप्रदेश में भी विधानसभा चुनाव इस साल के आखिर में होना है और यह राज्य कांग्रेस के लिए एक बड़ी चुनौती है. चुनौती कांग्रेस के लिए स्वयं मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान हैं. चौहान उन बिरले नेताओं में हैं जिनकी पकड़ जमीनी तौर पर पक्की है. आम आदमी के साथ उनका अपनापन का रिश्ता उस जमीन को मजबूत करता है जिसकी आम आदमी को चाहत होती है. थोड़ा अंतराल छोड़ दें तो करीब-करीब 20 वर्षों से सत्ता पर काबिज शिवराजसिंह चौहान बहनों के लिए भाई, बेटा-बेटियों के लिए मामा तो बुर्जुर्गों के लिए श्रवण कुमार बने हुए हैं. आम आदमी के बीच शिवराजसिंह चौहान ने अपनी जो छवि बनायी है, उसका तोड़ भाजपा के भीतर भी नहीं है, कांग्रेस तो दूर है ही. आपदा को अवसर में बदलने का मंत्र शिवराजसिंह को बखूबी आता है. वे किसी भी अवसर पर चूकते नहीं हैं. यही कारण है कि बार-बार उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाये जाने के कयास लगाये जाते रहे और अब राजनीतिक गलियारों में इस कयास पर भी पूर्ण विराम लग गया है. यह अकारण नहीं है क्योंकि लोकप्रियता की दृष्टि से देखें तो शिवराजसिंह के बराबर इस समय प्रदेश में किसी भी दल में कोई लीडर नहीं दिखता है.</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>शिवराजसिंह इतने लोकप्रिय क्यों हैं, यह जानने की कोशिश करेंगे तो एक पंक्ति में जवाब मिलेगा कि गैरों को भी अपना बनाने की अदा. पिछले बीस वर्षों में उन्होंने जनकल्याण की इतनी जमीनी योजनाएं लागू की कि उनका कोई तोड़ किसी के पास नहीं है. अपने पहले कार्यकाल में उन्होंने बेटियों को सक्षम बनाने के लिए लाडली लक्ष्मी योजना का श्रीगणेश किया. बच्चियों की शिक्षा पर पूरा ध्यान आकर्षित किया और किताबों से लेकर स्कूल जाने तक के लिए सायकल का इंतजाम कर उनकी शिक्षा की गारंटी ली. अब शहरी बच्चों को स्कूटी दिला रहे हैं. यह योजना इतना पापुलर हुई कि वे सहज रूप से घर-घर के मामा बन गए. कोई उन्हें मुख्यमंत्री या राजनेता के रूप में नहीं देखता है बल्कि वे परिवार के मुखिया के रूप में चिहिंत किये गए. </p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>ओला-पाला के बीच रोते-बिसूरते किसानों के साथ खेतों में बैठकर उनका दुख बांटते रहे. दिलासा देते रहे और उनकी जिम्मेदारी अपने हिस्से लेकर उन्हें राहत दिलाने का पूरा प्रयास किया. यहां तक कि ऐसे किसानों की बेटियों के ब्याह का जिम्मा भी सरकार ने लिया. प्रदेश के उन हजारों-हजार परिवारों के लिए वे एक नेमत की तरह मुख्यमंत्री तीर्थ दर्शन योजना लेकर आए. आर्थिक और शारीरिक रूप से अशक्त वृद्धजनों को तीर्थ यात्रा पर लेकर निकल पड़े. सबसे बड़ी बात यह कि इस तीर्थदर्शन में सभी वर्ग के लोग शामिल किये गए. सर्वधर्म, समभाव की उनका यह दर्शन लोगों के दिलों तक पहुंच गया. वृद्धावस्था पेंशन का मामला हो या बच्चों के इलाज के लिए इंतजाम करना, कोई कटौती नहीं की गई. कोविड-19 के दौरान मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने जो सक्रियता दिखाकर लोगों की जिंदगी बचाने में जुटे रहे. गरीब और असमर्थ लोगों को आयुष्मान योजना के तहत पूरा लाभ दिलाया और निजी अस्पतालों के खिलाफ कड़े कदम उठाने से भी नहीं चूके. मंडला से झाबुआ तक, कब और कहां शिवराजसिंह पहुंच जाएं, किसी को खबर नहीं होती है. लोगों से चर्चा करना, संवाद करना और उनकी जरूरतों को जानकर उनकी जरूरत के अनुरूप योजना को मूर्तरूप देने की जो उनकी कोशिश होती है, उन्हें एक अलग रूप में खड़ा करती है.</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>हालिया लाड़ली बहना स्कीम ने तो मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान को एक अलग किस्म की ऊंचाई दी है. प्रत्येक महिला को प्रत्येक माह एक हजार रुपये दिए जाएंगे जिससे वे आर्थिक रूप से स्वावलंबी बन सकें. पेंशन पाने वाली माताओं को अलग करने के बजाय इसमें जोडक़र उनका भी आशीष पा रहे हैं. उनके विरोधियों केे लिए लाडली बहना स्कीम पॉलिटिकल गिमिक हो सकता है लेकिन जो लाभ लेने की स्थिति में हैं, वे इसे अपने भाई शिवराजसिंह से मिलने वाली सुरक्षा मान रही हैं. अगले महीने जब बहनों के खाते में रकम जमा होने लगेगी, तब यह अब तक कि शिवराजसिंह सरकार की सबसे बड़ी लोकप्रिय योजना साबित होगी. शिवराजसिंह जब जनसभा में बड़े मजे में बोलते हैं कि ‘बहनों को जब एक हजार रुपया मिलेगा तो सास घी चुपड़ी रोटी खिलाएगी’. उनकी इस बात पर हरेक के चेहरे पर मुस्कान आ जाती है. </p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान कभी किसी चाय के टपरे पर जाकर खड़े हो जाते हैं तो कभी किसी के कांधे पर हाथ रख देते हैं तो वह भाव-विभोर हो जाता है. उनके ही क्षेत्र में कुछ मजदूरों ने शिवराजसिंह को पहचानने से इंकार कर दिया था. तब भी शिवराजसिंह चौहान इसे हंसी हंसी में लेते हुए रवाना हो गए-चलो, भाई यहां शिवराज को नहीं पहचानते हैं. यही मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की विनम्रता है. यही उनकी पूंजी है जो राजनीतिक फलक से बाहर है. कल्पना कीजिए, यहीं पर उनके स्थान पर कोई और राजनेता होता तो शायद इन मजदूरों पर कहर टूट पड़ता. सौम्य, मृदुभाषी और संयत भाषा के साथ विरोधियों का सम्मान करने वाले शिवराजसिंह चौहान अजेय हैं. </p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>निकट भविष्य के चुनाव में जीत हासिल करने के लिए एक विनम्र और मिलनसार शिवराजसिंह चाहिए. मतदाता भाजपा को अपना वोट दे या ना दे लेकिन शिवराजसिंह के नाम पर वोट ना मिले, इस पर सहसा भरोसा नहीं किया जा सकता है. मध्यप्रदेश की आर्थिक हालात, भ्रष्टाचार और ऐसे जनमुद्दों पर राज्य सरकार को घेरा जा सकता है लेकिन स्पष्ट है कि विधानसभा चुनाव में किसी भी दल के लिए शिवराजसिंह के स्तर पर मुकाबला आसान नहीं है. यह मध्यप्रदेश का दिल है और राज्य की जनता के दिलों में शिवराजसिंह राज करते हैं, मध्यप्रदेश की सत्ता पर नहीं. </p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>कर्नाटक में विजय के पहले हिमाचल में जीत और नेता राहुल गांधी की अथक मेहनत के बाद कांग्रेस का आत्मविश्वास लौटा है और एक मजबूत लोकतंत्र के लिए यह जरूरी भी है. किन्तु इस बात का भी खास खयाल रखना होगा कि मध्यप्रदेश हो, छत्तीसगढ़ हो या राजस्थान, सबकी आबो-हवा एक सी नहीं है. इसलिए जीत का सेहरा पहनने के लिए उत्सव नहीं, आत्ममंथन की जरूरत इस समय अधिक है. भाजपा को भी सतर्क रहने की जरूरत है क्योंकि छत्तीसगढ़ में साय और मध्यप्रदेश में दीपक जोशी का कांग्रेस में जाना चिंता में तो डालता है। कौन जीतेगा और कौन हारेगा, यह तो समय के गर्भ में है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)</p>Manoj Kumarhttp://www.blogger.com/profile/07148316160659906464noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5788123601717760337.post-65582867065264710962023-03-30T23:35:00.001-07:002023-03-30T23:35:31.703-07:00 आह! इंदौर, वाह...इंदौरी<p style="text-align: justify;"><br /></p><div style="text-align: justify;">मनोज कुमार</div><div style="text-align: justify;">इंदौर में मौत की बावड़ी से धडक़न टूटने की गिनती हो रही है। सबके अपने सूत्र, सबके अपने आंकड़ेें। पलकें नम हो गई हैं। हर कोई इस विपदा से दुखी और बेबस है। खबरों की फेहरिस्त है। कोई शासन-प्रशासन को गरियाने में लगा है तो कोई इस बात की तह तक जाने की जल्दबाजी में है कि हादसा हुआ कैसे? सब खबरों और हेडलाइंस तक अपने आपको सीमित रखे हुए हैं। इस हादसे में अगर प्रशासन नाकाम है तो यह कौन सी नयी बात है? राजनेता हादसे को भुनाने में लग गए तो इसमें हैरानी कैसी? यह ना तो पहली दफा हो रहा है और ना आखिरी दफा है। प्रशासन का निकम्मापन हमेशा और हर हादसे में उजागर होता रहा है और शायद आगे भी उसका वही रवैया रहे। इसमें सयापा करने की कोई बहुत ज्यादा जरूरत नहीं है। जिंदगी को रूसवा करने और मौत को रुपयों से तौलने की रवायत भी पुरानी हो चुकी है। रुपये नम आंखों में खुशी ला सकते तो क्या बात थी कि हर रईस मौत से मालामाल हो जाता। कभी उन घरों में आज से चार-छह हफ्ते बाद जाकर पूछे और देखें उन बच्चों को जिनकी मां ने उनके सामने दम तोड़ दिया या पिता का साया सिर से उठ गया। किसी का पति चला गया तो किसी का घर सुना हो गया। थोड़े दिनों बाद जिंदगी पटरी पर आज जाएगी और फिर किसी हादसे पर यही रोना-पीटना और सांत्वना देने का सिलसिला शुरू हो जाएगा।</div><div style="text-align: justify;">मौत की बावड़ी से एक शब्द मुंंह से बेसाख्ता निकलता है आह! इंदौर और इसके बाद जुबान पर आता है वाह इंदौरी। इंदौर का यह हादसा पहली बार किसी शहर में होने वाला हादसा नहीं है। अक्सर खबरों में देश के अलग-अलग शहरों और कस्बों में ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण सूचना मिलती रही है लेकिन इंदौरी जो कर जाते हैं, वह इंदौर से सटे दो-पांच सौ किलोमीटर के शहर में देखने-सुनने में नहीं आया। हादसे की खबर सुनते ही पूरे शहर में सन्नाटा पसर गया। उत्सव थम गया। मौत किसी के घर में हुई हो, हर इंदौरी की आंखों में आंसू थे। किसी के कहने और बताने के पहले बाजार बंद हो गया और अगले दिन भी बाजार बंद किये जाने का ऐलान हो गया। अलग-अलग जगहों पर होने वाला जश्र स्वस्फूर्त रोक दिया गया। यह सब कुछ एक जिंदा शहर की पहचान है। इंदौरियों का दिल अपने शहर के लिए धडक़ता है। उन्हें सिखाना और बताना नहीं पड़ता कि जश्र मनाने के लिए बेखौफ लाखों की तादात में घरों से बाहर निकल पड़ते हैं तो दुख में अपने-अपने में सिमट जाना भी जानते हैं। उन्हें इस बात की फ्रिक नहीं है कि मरने वाले से उनका क्या रिश्ता था। वे तो बस एक बात जानते हैं कि मरने वाला कोई भी हो, इंदौरी था और हर इंदौरी इस शहर की पहचान था।</div><div style="text-align: justify;">समूचे हिन्दुस्तान में इंदौर की पहचान अलहदा है तो इसलिये नहीं कि वह मिनी बाम्बे है। वह उद्योग का एक बड़ा किला है। इंदौर की पहचान है तो उसके इंदौरीपने से। अपने शहर के लिए यह तड़प अब बहुत कम देखने को मिलता है। इंदौर इसकी नायाब मिसाल है। कोई भी पर्व और त्योहार उत्सव की तरह मनाने वालों में इंदौरियों का कोई मुकाबला नहीं। छह बार से स्वच्छ शहर का खिताब इंदौर को शासन-प्रशासन के कारण नहीं बल्कि उन इंदौरियों के कारण मिला है जिनकी धडक़न इंदौर है। कोरोना में जब लोग घर में दुबके बैठे थे तब इंदौरी लाखों की संख्या में सडक़ पर उतर कर गेर खेल रहे थे। 2023 का इंदौरी गेर तो वल्र्ड रिकार्ड बना गया। कोरोना के चलते गेर खेलने वाले इंदौरियों ने मिलकर जैसे शहर को स्वच्छ बनाया था, इंदौर को कोरोना से लडऩे का जज्बा दिया।</div><div style="text-align: justify;">इंदौरी हो जाना सरल नहीं है। इसके लिए आपके दिल में आपका अपना शहर धडक़ना चाहिए। धडक़न भी ऐसी कि हंसें तो सबके साथ और किसी के घर में दुख टूटे तो आंखें भीग जाए। इन दिनों किसी भी शहर को दो भागों में देख सकते हैं। नया शहर, पुराना शहर। नया शहर लगभग सुविधाभोगी होता है जबकि पुराना शहर उसी तर्ज पर जिंदा रहता है। नए शहर की तासीर में अपनेपन का भाव नहीं होता है जबकि पुराना शहर उसी अपनेपन में जिंदा रहता है। नए दौर में इंदौर का विकास भी खूब हुआ। शहर फैलता चला गया लेकिन नया इंदौर और पुराना इंदौर का टेग कहीं देखने-सुनने में नहीं मिला। दिल्ली से भोपाल तक आपको नया और पुराने की छाप देखने को मिल जाएगी। इंदौर तब भी एक था और आज भी एक है और हम नए और पुराने में बंट गए हैं। बंटना भौगोलिक नहीं है बल्कि मन भी बंट गया है और इंदौरियों ने ना शहर बांटा और ना मन।</div><div style="text-align: justify;">पीयूष मिश्रा की पंक्ति याद हो आती है कि जो बचा है, उसे बचा लो। दर्दनाक हादसे ने एक बार फिर बता दिया कि इंदौर जिंदा है और जिंदादिल लोगों का शहर है। दुख में दुखी होते हैं, यह भेद किये बिना कि हम तो सुरक्षित हैं। काश! हम सब भी अपने अंदर एक इंदौर को बसा लें। कहना तो पड़ेगा... आह! इंदौर, वाह... इंदौरी। </div>Manoj Kumarhttp://www.blogger.com/profile/07148316160659906464noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5788123601717760337.post-60466028523598536282023-03-26T09:35:00.001-07:002023-03-26T09:35:23.054-07:00मन को मन से जोड़ती ‘मन की बात’<p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhuZr3GFVVpbT5KhO4PXVBlzmJ_Cdb4d7l1-7p0jcvaZMHdVLx3_60Y3FAxvp5ta7m5IiPiQrBO83AIDPiJl7D3KQDUmqBTFMCO04poQFGRnjZdVmNl0mYmaikoxFMUVP4hSK3g6tuIekDXSLGeu7NSkup1B4HmUK0riY2qw_0TH5pEDCKfV-3DlilGdA/s800/Man%20ki%20Bat.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="498" data-original-width="800" height="199" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhuZr3GFVVpbT5KhO4PXVBlzmJ_Cdb4d7l1-7p0jcvaZMHdVLx3_60Y3FAxvp5ta7m5IiPiQrBO83AIDPiJl7D3KQDUmqBTFMCO04poQFGRnjZdVmNl0mYmaikoxFMUVP4hSK3g6tuIekDXSLGeu7NSkup1B4HmUK0riY2qw_0TH5pEDCKfV-3DlilGdA/s320/Man%20ki%20Bat.jpg" width="320" /></a></div><br />मनोज कुमार<p></p><p style="text-align: justify;">रेडियो अपने जन्म से विश्वसनीय रहा है. सुभाष बाबू का रेडियो आजाद हिन्द हो या आज का ऑल इंडिया रेडियो. प्रसारण की तमाम मर्यादा का पालन करते हुए जो शुचिता और सौम्यता रेडियो प्रसारण में दिखता है, वह और कहीं नहीं. मौजूं सवाल यह है कि रेडियो प्रसारण सेवा का आप कैसे उपयोग करते हैं? इस मामले में महात्मा गांधी से लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जो अभिनव प्रयोग किया है, वह अलहदा है. गांधीजी ने रेडियो को शक्तिशाली माध्यम कहकर संबोधित किया था और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसे चरितार्थ कर दिखाया. संचार के विभिन्न माध्यमों के साथ मोदीजी का दोस्ताना व्यवहार रहा है लेकिन रेडियो प्रसारण के साथ वे मन से जुड़ते हैं. </p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>मन से मन को जोडऩे का उपक्रम ‘मन की बात’ के सौ एपिसोड पूरे होने जा रहे हैं तो इसके प्रभाव को लेकर कुछ चर्चा किया जाना सामयिक है. कहने को सौ एपिसोड बहुत आसान सा लगता है लेकिन देखा जाए तो यह एक कठिन टास्क है जिसे मोदीजी जैसे व्यक्ति पूरा कर सकते थे और किया भी. ‘मन की बात’ शीर्षक को लेकर लोगों को लगने लगा कि वे अपने मन की बात कह रहे हैं लेकिन ‘मन की बात’ कार्यक्रम का कोई भी एपिसोड सुन लीजिये और विषयों की विविधता मिलेगी. एक तंत्र विकसित किया गया जो देश के अनजाने और दूर-दराज इलाकों में अपने काम से कामयाबी हासिल करने वालों से प्रधानमंत्री सीधे बात करते हैं. उनके कार्यों के बारे में जानते हैं और अपनी आपसी चर्चा के बीच उस कामयाबी के रास्ते को समझने की कोशिश करते हैं. इस पूरी प्रक्रिया में देशभर से लाखों की तादाद में जुड़े श्रोताओं को ना केवल नई जानकारी मिलती है बल्कि उन्हें भी कुछ नया करने का हौसला मिलता है. इसे ही मैंने मन से मन को जोडऩे वाला कार्यक्रम ‘मन की बात’ कहा है.</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>शुरूआती दौर में रेडियो सामान्य दिनचर्या का एक हिस्सा बना हुआ रहता था, वहीं देश और दुनिया से जोड़े रखने का भी यही एक माध्यम था. मोबाइल का दौर आया और रेडियो बाजार से गायब हो गए. हालांकि संचार की इस दौड़ में बने रहने के लिए रेडियो बन गए अब मोबाइल रेडियो. लेकिन वर्ष 2014 के बाद मोबाइल रेडियो में बड़ा बदलाव देखा गया जब 3 अक्टूबर, 2014 को ऑल इंडिया रेडियो पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने शुरू किया कार्यक्रम ‘मन की बात’. कार्यक्रम की सफलता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अब कुल 99 एपिसोड प्रसारित किए जा चुके हैं. इस कार्यक्रम की शुरुआत करने का मकसद भारत में एक बार फिर लोगों का ध्यान रेडियो की ओर लाना तो था ही साथ ही जनता से रेडियो के ज़रिए संवाद कर जनता के मुद्दों पर बातचीत करना भी था. इसका असर यह हुआ कि जहां जनता पहले तक खास मौकों पर ही रेडियो सुना करती थी वही नरेंद्र मोदी के मन की बात के शुरू होने के बाद तक भी जनता इस कार्यक्रम से जुडी हुई है.</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>‘मन की बात’ में मोदी जी अपनी मन की बात कम करते हैं और लोगों के मन की बात ज्यादा सुनते हैं. ‘मन की बात’ कार्यक्रम सुनते हुए मुझे एक छोटी सी कहानी का स्मरण हो आता है. यहां इस कहानी का उल्लेख करना समीचीन होगा. बात यूं है कि एक बंद ताला पड़ा हुआ था और उसके पास एक छोटी सी चाबी और एक भारी-भरकम हथौड़ा भी. बंद ताले को खोलने के लिए हथौड़े ने अपनी पूरी ताकत लगा दी और परास्त होकर वहीं बैठ गया. इतने में छोटी सी चाबी बंद ताले के दिल में प्रवेश किया और ताला खुल गया. भारी-भरकम हथौड़े के लिए यह रहस्य की बात थी. उसने चाबी से पूछा कि मैं इतना वजनदार होने के बाद भी ताला नहीं खोल पाया और तू इत्ती सी चाबी ताले को खोल दिया. यह कैसे हुआ? ताले की तरफ मुस्कराती हुई चाबी ने कहा कि किसी के दिल को खोलने के लिए उसके दिल में उतरना पड़ता है और वही मैंने किया. मोदी जी भी ‘मन की बात’ के जरिये चाबी की मानिंद लोगों के दिल में उतरकर उनके दिल तक पहुंच जाते हैं.</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>भारत जैसे महादेश में अनेक ऐसे लोग हैं जो गुमनामी का जीवन जी रहे हैं लेकिन उनका काम, उनकी सफलता की कोई चर्चा नहीं होती है. ऐसे में कोई कारीगर, कोई किसान, कोई महिला जब प्रधानमंत्री से बात करती है तो उसकी कामयाबी ना केवल सामने आती है बल्कि ये लोग और आगे बढऩे का हौसला पाते हैं. हमारे भारतीय समाज में परीक्षा प्रतिभा मूल्यांकन के स्थान पर भय का वातावरण निर्मित करता है और बच्चे फेल होने के डर से कई बार जान देने तक उतारू हो जाते हैं. इन बच्चों के भीतर साहस जगाने के लिए और परीक्षा से भयभीत ना होने का मंत्र मोदीजी देते हैं तो ज्यादतर बच्चों के भीतर का डर पूरी तरह भले ही खत्म ना हो लेकिन कम तो जरूर हो जाता है. परीक्षा देने जाने से पहले हम उस अदृश्य शक्ति से पास हो जाने की कामना करते हैं क्योंकि हमारी पीठ पर हाथ रखकर हमें हौसला देने वाला कोई नहीं होता है. समाज का कोई भी तबका इस बड़ी समस्या पर कभी कोई पहल करने की जरूरत नहीं समझा इसलिये परीक्षा का भूत हमेशा हावी रहा लेकिन ‘मन की बात’ के जरिये मोदीजी ने एक पालक की भूमिका का निर्वहन किया तो सारा का सारा मंजर ही बदल गया.</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>‘मन की बात’ के जरिये मोदीजी ने बड़ी ही खामोशी के साथ बाजार को बदल दिया. इसके लिए एक उदाहरण का उल्लेख करना जरूरी हो जाता है. खादी हमारा राष्ट्रीय स्वाभिमान है लेकिन नए जमाने के साथ खादी का चलन कम से कम होता जा रहा था. ऐसे में मोदीजी ने ‘मन की बात’ के जरिये खादी अपनाने के लिए लोगों से आह्वान किया. यह यकिन करना मुश्किल होगा लेकिन सच है कि खादी की बिक्री में जो इजाफा हुआ, वह रिकार्ड है. अब यहां इस बात को दर्ज किया जाना चाहिए कि ‘मन की बात’ में मोदीजी के मन की बात है या भारत के एक सौ तीस करोड़ लोगों के मन की बात है. </p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>‘मन की बात’ के जरिये ऑल इंडिया रेडियो का कायाकल्प हो गया. रेडियो के राजस्व में जितनी बढ़ोत्तरी ‘मन की बात’ कार्यक्रम के माध्यम से हुई, वह अब तक के रिकार्ड को ध्वस्त करने वाला है. पक्का-पक्का आंकड़ा देना मुनासिब नहीं है क्योंकि प्रत्येक माह होने वाले ‘मन की बात’ के जरिए रेडियो के राजस्व में बढ़ोत्तरी होती जा रही है. एक मोटा-मोटी आंकड़ें की बात करें तो मन की बात के प्रसारण शुरू होने के बाद से अब तक राजस्व में 33.16 करोड़ कमाए गए हैं जबकि प्रचार पर केवल 7.29 करोड़ खर्च किए गए थे। यह आंकड़ा 2023 के आरंभिक दिनों की है. रेडियो प्रसारण सेवा के क्षेत्र में प्रधानमंत्री द्वारा किये गए नवाचार से ना केवल रेडियो के दिन फिर गए बल्कि देश के दूर-दराज इलाकों में ‘मन की बात’ की गंूज सुनाई देनी लगी. </p>Manoj Kumarhttp://www.blogger.com/profile/07148316160659906464noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5788123601717760337.post-77389860936344659332023-03-20T21:59:00.003-07:002023-03-20T21:59:34.820-07:00पानी पानी रे...खारे पानी रे...<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh1YBiwGybbMB-MSvG5IVIDx_yjImKPf0XpvaxJulIkTDQN2vVXUKqjezmbrRRHPZro2zYAqzGeyOD-A-bu4T90TUPiSXQIcvmGTYxLdXtNzw5DEfatkOszy6JBvH8M5JH2RdI6C99TfztmNROlg0AAYG72mJA4l3hxUS8R7IMBqiKK0ZDMR-sLIWbsmQ/s480/Pani.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: justify;"><img border="0" data-original-height="359" data-original-width="480" height="265" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh1YBiwGybbMB-MSvG5IVIDx_yjImKPf0XpvaxJulIkTDQN2vVXUKqjezmbrRRHPZro2zYAqzGeyOD-A-bu4T90TUPiSXQIcvmGTYxLdXtNzw5DEfatkOszy6JBvH8M5JH2RdI6C99TfztmNROlg0AAYG72mJA4l3hxUS8R7IMBqiKK0ZDMR-sLIWbsmQ/w398-h265/Pani.jpg" width="398" /></a></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: #cc0000;"> विश्व जल दिवस पर चिंता करता लेख</span></b></div><p></p><div style="text-align: justify;"><b>मनोज कुमार</b></div><div style="text-align: justify;">दो दशक पहले संयुक्त राष्ट्र संघ ने 22 मार्च को विश्व जल दिवस मनाने की परिकल्पना की थी तब उनकी सोच रही होगी कि इस आयोजन के बहाने दुनिया जागेगी और एक पानीदार समाज का निर्माण होगा लेकिन जब हम पलटकर देखते हैं कि आंखों से पानी उतर रहा है और गला सूखता चला जा रहा है। यह आज का सच है। हमारे समय के लेखक एवं चिंतक अनुपम मिश्र को पानीदार समाज की चिंता करते हुए हम स्मरण कर लेते हैं। ‘आज भी खरे हैं तालाब’ के बहाने हम उन सुनहरे दिनों को याद कर लेते हैं लेकिन यह सब किताबी बातें रह गयी हैं। तालाब और पोखर को पाटकर बहुमंजिला इमारतें इठला रही हैं और हम बूंद-बूंद पानी के लिए तरस रहे हैं। कहा जाता रहा है कि तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिए होगा लेकिन जो हालात बन रहे हैं, उसे यह प्रतीत होता है कि बिना युद्ध किये ही हमने अपने मरने की तैयारी कर ली है।</div><div style="text-align: justify;">अलग-अलग स्रोतों से जो जानकारी हासिल होती है, वह ना केवल पानी के बर्बादी की कहानी कहती है बल्कि हमारे भविष्य के सामने भी सवालिया निशान खड़ा करती है। जैसे</div><div style="text-align: justify;">- मुंबई में प्रतिदिन वाहन धोने में ही 50 लाख लीटर पानी खर्च हो जाता है।</div><div style="text-align: justify;">- दिल्ली, मुंबई और चेन्नई जैसे महानगरों में पाइप लाइनों के वॉल्व की खराबी के कारण रोज 17 से 44 प्रतिशत पानी बेकार बह जाता है।</div><div style="text-align: justify;">-पानीजन्य रोगों से विश्व में हर वर्ष 22 लाख लोगों की मौत हो जाती है।</div><div style="text-align: justify;">- यदि ब्रश करते समय नल खुला रह गया है, तो पाँच मिनट में करीब 25 से 30 लीटर पानी बरबाद होता है।</div><div style="text-align: justify;">- बाथ टब में नहाते समय 300 से 500 लीटर पानी खर्च होता है, जबकि सामान्य रूप से नहाने में 100 से 150 पानी लीटर खर्च होता है।</div><div style="text-align: justify;">- भारतीय स्त्रियां पीने के पानी के लिए रोज ही औसतन चार मील पैदल चलती हंै।</div><div style="text-align: justify;">- विश्व में प्रति 10 व्यक्तियों में से 2 व्यक्तियों को पीने का शुद्ध पानी नहीं मिल पाता है।</div><div style="text-align: justify;">- प्रति वर्ष 3 अरब लीटर बोतल पैक पानी मनुष्य द्वारा पीने के लिए प्रयुक्त किया जाता है।</div><div style="text-align: justify;">- पिछले 50 वर्षों में पानी के लिए 37 भीषण हत्याकांड हुए हैं।</div><div style="text-align: justify;">- भारत में औसतन 50 सेंटी मीटर से भी अधिक वर्षा होने के बावजूद अनाज की कमी बनी रहती है। वहीं इजऱाइल में औसतन मात्र 10 सेंटीमीटर वर्षा होती है, इस वर्षा से वह इतना अनाज पैदा कर लेता है कि वह उसका निर्यात कर सकता है।</div><div style="text-align: justify;">यह तथ्य और आंकड़ें भविष्य के पानी के संकट के प्रति हमारी आंखें खोलती हैं। एक नजर इन आंकड़ों पर भी डाल लें कि हमारी पृथ्वी पर एक अरब 40 घन किलो लीटर पानी है। इसमें से 97.5 प्रतिशत पानी समुद्र में है, जो खारा है, शेष 1.5 प्रतिशत पानी बर्फ के रूप में धु्रव प्रदेशों में है। इसमें से बचा एक प्रतिशत पानी नदी, सरोवर, कुओं, झरनों और झीलों में है जो पीने के लायक है। इस एक प्रतिशत पानी का 60वाँ हिस्सा खेती और उद्योग कारखानों में खपत होता है। बाकी का 40वां हिस्सा हम पीने, भोजन बनाने, नहाने, कपड़े धोने एवं साफ-सफाई में खर्च करते हैं।</div><div style="text-align: justify;">समय आ गया है जब हम वर्षा का पानी अधिक से अधिक बचाने की कोशिश करें। बारिश की एक-एक बूँद कीमती है। इन्हें सहेजना बहुत ही आवश्यक है। यदि अभी पानी नहीं सहेजा गया, तो संभव है जलसंकट के साथ आँखों में बचा पानी भी उतरने लगे। पहले कहा गया था कि हमारा देश वह देश है जिसकी गोदी में हज़ारों नदियाँ खेलती थी, आज वे नदियाँ हज़ारों में से केवल सैकड़ों में ही बची हैं। कहाँ गई वे नदियाँ, कोई नहीं बता सकता। नदियों की बात छोड़ दो, हमारे गाँव-मोहल्लों से तालाब आज गायब हो गए हैं, इनके रख-रखाव और संरक्षण के विषय में बहुत कम कार्य किया गया है। पानी के बारे में एक नहीं, कई चौंकाने वाले तथ्य हैं। विश्व में और विशेष रुप से भारत में पानी किस प्रकार नष्ट होता है इस विषय में जो तथ्य सामने आए हैं उस पर जागरूकता से ध्यान देकर हम पानी के अपव्यय को रोक सकते हैं। अनेक तथ्य ऐसे हैं जो हमें आने वाले ख़तरे से तो सावधान करते ही हैं, दूसरों से प्रेरणा लेने के लिए प्रोत्साहित करते हैं और पानी के महत्व व इसके अनजाने स्रोतों की जानकारी भी देते हैं।</div><div style="text-align: justify;">नदियाँ पानी का सबसे बड़ा स्रोत हैं। जहाँ एक ओर नदियों में बढ़ते प्रदूषण रोकने के लिए विशेषज्ञ उपाय खोज रहे हैं वहीं कल कारखानों से बहते हुए रसायन उन्हें भारी मात्रा में दूषित कर रहे हैं। ऐसी अवस्था में जब तक कानून में सख्ती नहीं बरती जाती, अधिक से अधिक लोगों को दूषित पानी पीने का समय आ सकता है।</div><div style="text-align: justify;">- पृथ्वी पर पैदा होने वाली सभी वनस्पतियाँ से हमें पानी मिलता है।</div><div style="text-align: justify;">- आलू में और अनन्नास में 80 प्रतिशत और टमाटर में 15 प्रतिशत पानी है।</div><div style="text-align: justify;">- पीने के लिए मानव को प्रतिदिन 3 लीटर और पशुओं को 50 लीटर पानी चाहिए।</div><div style="text-align: justify;">- 1 लीटर गाय का दूध प्राप्त करने के लिए 800 लीटर पानी खर्च करना पड़ता है।</div><div style="text-align: justify;">- एक किलो गेहूँ उगाने के लिए 1 हजार लीटर और एक किलो चावल उगाने के लिए 4 हजार लीटर पानी की आवश्यकता होती है। इस प्रकार भारत में 83 प्रतिशत पानी खेती और सिंचाई के लिए उपयोग किया जाता है।</div><div style="text-align: justify;">जल संरक्षण को लेकर समय-समय पर सेमीनार और वर्कशॉप होते हैं लेकिन आयोजन के साथ ही सारी बातें बिसरा दी जाती हैं। कोविड-19 के बाद पूरे देश में बोतलबंद पानी का जो चलन शुरू हुआ है, वह एक भयानक खतरे का संकेत है। एक तरफ तो हम पर्यावरण को प्लास्टिक की बोतलों से तबाह करने पर उतारू हैं तो दूसरी तरफ दो घूंट पानी पीकर पूरा बोतल भर पानी छोड़ दिया जाता है। आधा गिलास पानी का कांसेप्ट लगभग तिरोहित होता जा रहा है। इस दिशा में कोई बोलने वाला नहीं है और लगता है कि इनके कानों में खतरे की आहट पहुंची नहीं है।</div><div style="text-align: justify;">पिछले दिनों भोपाल में आयोजित दो दिवसीय जल दृष्टि 2047 सम्मेलन में केन्द्रिय जल शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने कहा कि यह आयोजन पानी को बचाने का प्रयास है। उन्होंने कहा कि भारत को 2047 तक अनुमानित जल तनाव की स्थिति के लिए पहले से तैयार रहना चाहिए। वही 2047 तक पानी की आवश्यकता का आकलन हमारे पास उपलब्ध पानी की कुल मात्रा से अधिक होगा। आज की तारीख में पानी का संचयन योग्य घटक लगभग 1,180 बिलियन क्यूबिक मीटर (बीसीएम) है और हमारी आवश्यकता 880 बीसीएम है। लेकिन 2047 तक मांग जा रही है। अब इन्हें कौन बताए कि यह आदर्श स्थिति कागज पर है और दूर-दराज गांवों में जाकर स्थिति का जायजा लिया जाए तो 2047 की प्लानिंग धरा रह जाएगा। हालांकि पीएम मोदी ने ग्राम पंचायतों से अगले पांच वर्षों के लिए एक कार्य योजना तैयार करने का भी आग्रह किया है ताकि जल आपूर्ति से लेकर स्वच्छता और अपशिष्ट प्रबंधन तक के रोडमैप पर विचार किया जा सके। उन्होंने कहा कि पंचायतों को जल जीवन मिशन का नेतृत्व करना चाहिए ताकि सभी ग्रामीण परिवारों को नल से पीने का स्वच्छ पानी उपलब्ध हो सके। सीएम शिवराज ने कहा कि जल ही जीवन है। इसका दुरुपयोग रोकना हम सबका कर्तव्य है। उन्होंने कहा कि वर्षा के जल को इक_ा करें ताकि भूजलस्तर भी बढ़े। अलग-अलग तालाबों, नहरों का जीर्णोद्धार करें। चेकडेम-स्टॉपडेम जैसी जलसंरचनाएं बचाएं।</div><div style="text-align: justify;">वो दिन हवा हो गए जब गांव-कस्बों में प्रत्येक मंगल कार्य को स्मरणीय बनाये रखने के लिए तालाब और पोखर का निर्माण कराया जाता था। भारत में जल संरक्षण और जल संरचना को लेकर अनेक किंवदंतिया प्रचलन में है लेकिन अब मनुष्य के लालच ने नई जल संचरना का निर्माण करना तो दूर, पहले से बनी-बनायी जल संरचनाओं को मिटाने पर तुले हुए हैं। अब पानी का महत्व भारत के लिए कितना है यह हम इसी बात से जान सकते हैं कि हमारी भाषा में पानी के कितने अधिक मुहावरे हैं। आज पानी की स्थिति देखकर हमारे चेहरों का पानी तो उतर ही गया है, मरने के लिए भी अब चुल्लू भर पानी भी नहीं बचा, अब तो शर्म से चेहरा भी पानी-पानी नहीं होता, हमने बहुतों को पानी पिलाया, पर अब पानी हमें रुलाएगा, यह तय है। सोचो तो वह रोना कैसा होगा, जब हमारी आँखों में ही पानी नहीं रहेगा? वह दिन दूर नहीं, जब सारा पानी हमारी आँखों के सामने से बह जाएगा और हम कुछ नहीं कर पाएँगे। आखिर में याद आता है पानी पानी रे...खारे पानी रे...(tasvir sabahar google)</div><div style="text-align: justify;"><br /></div>Manoj Kumarhttp://www.blogger.com/profile/07148316160659906464noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5788123601717760337.post-82980904411048521142023-03-11T03:48:00.002-08:002023-03-11T03:48:50.771-08:00भीड़ में अकेले पुष्पेंद्र<p style="text-align: justify;">मनोज कुमार</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>कोई कहे पीपी सर, कोई कहे बाबा और जाने कितनों के लिए थे पीपी. एक व्यक्ति, अनेक संबोधन और सभी संबोधनों में प्यार और विश्वास. विद्यार्थियों के लिए वे संजीवनी थे तो मीडिया के वरिष्ठ और कनिष्ठ के लिए चलता-फिरता पीआर स्कूल. पहली बार जब उनसे 25 बरस पहले पहली बार पुष्पेन्द्रपाल सिंह उर्फ पीपी सिंह से मुलाकात हुई तो उनकी मेज पर कागज का ढेर था. यह सिलसिला मध्यप्रदेश माध्यम में आने के बाद भी बना रहा. अफसरों की तरह कभी मेज पर ना तो माखनलाल में बैठे और ना ही माध्यम में. हमेशा कागज के ढेर से घिरे रहे। बेतरतीब कागज के बीच रोज कोई ना कोई इस उम्मीद में अपना लिखा, छपा उन्हें देने आ जाता कि वे एक नजर देख लेंगे तो उनके काम को मुहर लग जाएगी. यह विश्वास एक रात में उन्होंने अर्जित नहीं किया था. इसके लिए उन्होंने खुद को सौंप दिया था समाज के हाथों में. आखिरी धडक़न तक पीपी शायद एकदम तन्हा रहे। कहने को तो उनके शार्गिदों और चाहने वालों की लम्बी फेहरिस्त थी लेकिन वे भीतर से एकदम अकेले थे। तिस पर मिजाज यह कि कभी अपने दर्द को चेहरे पर नहीं आने दिया. ऐसे बहुतेरे लोग थे जो अपने बच्चों के भविष्य के लिए, कहीं नौकरी की चाहत मेें तो कहीं एडमिशन के लिए उनके पास आते-जाते रहे हैं लेकिन खुद पीपी ने कभी अपने बच्चों का जिक्र किसी से नहीं किया. लोगों को भी पीपी से ही मतलब था. शायद यही कारण है कि पीपी के जाने की खबर आग की तरह फैली तो लोगों को यह पता ही नहीं था कि उनके परिवार में कौन-कौन हैं? पीपी की पूरी दुनिया उन्हीं के इर्द-गिर्द थी. 2023 में जब पीपी ने अंतिम सांसें ली तब योग-संयोग देखिये कि यह वही तारीख थी जब उनकी जीवनसंगिनी उनका साथ छोड़ गयी थीं. भारतीय संस्कृति और परम्परा में विवाह को सात जन्मों का बंधन कहते हैं और यह योग-संयोग इस बात की पुष्टि करता है. </p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>पचास पार पुष्पेन्द्रपाल सिंह उर्फ पीपी सिंह से मेरी मुलाकात को 25 वर्ष से अधिक हो गए. तब माखनलाल पत्रकारिता संस्थान का कैम्पस सात नंबर पर लगता था. ठहाके के साथ हर बार मिलना और इससे भी बड़ी बात कि खुले दिल से दूसरे के काम की तारीफ करना. मुझे नहीं लगता कि वे कभी किसी की आलोचना करते या उनके काम में कमी निकालते दिखे. जिनसे उन्हें शिकायत भी होती, उनसे भी कुछ नहीं कहते. कभी हंस कर, कभी मुस्करा कर टाल जाते. जब कभी मैं शिकायत करता कि आपको पता है फिर कुछ बोलते क्यों नहीं तब वे हल्की मुस्कराहट के साथ कहते रात को गप्प करेंगे ना. मैं समझ जाता कि व्यक्तिगत रूप से कुछ कहना चाहते हैं. मेरी उनसे बात फोन पर अक्सर देर रात हुआ करती थी तब किसी और के फोन आने का अंदेशा कम होता था. बिना रूके कोई घंटा-डेढ़ घंटा हफ्ते-दस दिन में बात करते थे. मेरी शिकायत पर कहते कि आप सही हैं, कई बार कहा लेकिन वे अपनी आदत में सुधार नहीं ला सकते हैं तो क्या करें. जाने दो. आपका काम बढिय़ा है, करते रहें. कई बार अफसोस करते कि मैं आपकी कोई मदद नहीं कर पा रहा हूं. काम की व्यस्तता के चलते भी कुछ नहीं कर पा रहा हूं. </p><p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjNxA9ai6bYgiwcNDopnYsHA6X1SxCM7V7iyedhNlB-Dn_UZT-IDrzzIMfQ_1dDEr7TDRF5D5ThzakMRaaS_blyLo7EkRAwFs75t5ECBC3m8Qb5QBYzRyAiqQIWC4JuOGSdjhSuk91BnD7oHi2b0sp12xDYeiGSFIF1mq7seTztyd-XbeZjoBQfFrYLpw/s960/P.P.%20Singh.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="639" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjNxA9ai6bYgiwcNDopnYsHA6X1SxCM7V7iyedhNlB-Dn_UZT-IDrzzIMfQ_1dDEr7TDRF5D5ThzakMRaaS_blyLo7EkRAwFs75t5ECBC3m8Qb5QBYzRyAiqQIWC4JuOGSdjhSuk91BnD7oHi2b0sp12xDYeiGSFIF1mq7seTztyd-XbeZjoBQfFrYLpw/s320/P.P.%20Singh.jpg" width="213" /></a></div><span style="white-space: pre;"> </span>भोपाल में कोई भी आयोजन हो, पीपी की उपस्थिति ना हो, यह लगभग असंभव सा है. हर विषय पर पकड़ और पूरे अधिकार के साथ संवाद. नाट्य निर्देशक संजय मेहता की किताब के विमोचन में उन्हें अतिथि के रूप में आमंत्रित करने के लिए उनसे पूछा तो कहा कि कैसी बात करते हैं. आप जब कहें, मैं हाजिर हो जाऊंगा. बस, एक दिन पहले समय और स्थान बता देना. खासियत यह कि वे बिना तैयारी किये किसी प्रोग्राम में आते भी नहीं थे. संजय जी की किताब ‘मरघटा खुला है’ पहले पढ़ी और फिर विमोचन कार्यक्रम में बोलने आए. और बोले तो पूरे चौंसठ पेज बोल गए. शायद लेखक संजयजी को भी इतना याद नहीं होगा जितना पीपी याद कर आए थे. विमोचन के बाद मजाक में मैंने कहा-पीपी भाई, आप इतना बोल जाते हैं कि दूसरे अतिथियों के लिए बोलने को कुछ शेष नहीं रहता है. जिस बात का उन्हें जवाब नहीं देना होता है, उस बात को अपने ठहाकों से उड़ा दिया करते थे. <p></p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>पब्लिक रिलेशन सोयासटी ने जो लोकप्रियता अर्जित की, वह पीपी के मेहनत के दम पर. लोगों को ना जाने कहां-कहां से जोड़ लाते. मेरा सोसायटी से कोई लेना-देना नहीं लेकिन कभी आग्रह तो कभी अधिकारपूर्वक मुझे जोड़े रखा. स्मारिका में लिखने की बात हो तो लिखने के लिए कहने के बजाय कहते, मनोज भाई, कब मेल कर रहे हैं. इसका मतलब है कि आपको लिखना है. हर मीटिंग के पहले उनका फोन आ जाता था, आज नाइन मसाला में मिलना है. मुझे और समागम को लेकर हमेशा उनका रूख सकरात्मक रहा. आज उनके जाने के बाद जाने कितनी यादें हिल्लोरे मार रही हैं लेकिन पीपी का साथ नहीं होना एक खालीपन का अहसास दिला रहा है. शायद मैं उन थोड़े लोगों में हूं जिनका पीपी के साथ उनके परिवार से परिचय था. उनके छोटे भाई केपी जब भास्कर, इंदौर में थे तो उनके घर भी पीपी के साथ जाना हुआ. लोगों को पीपी के ठहाके दिखते थे लेकिन उनका दर्द देखने की शायद किसी ने कोशिश नहीं की और उनकी आदत में था भी नहीं कि वे अपनी परेशानी बतायें. हां, हो जाएगा या देखते हैं, कहकर दूसरों का हौसला बढ़ाने वाले पीपी के पास दो-एक लोग ही थे. कभी सतही तौर पर मुझसे बातें कर लिया करते थे. 16-18 घंटे काम करने का उन्हें शौक नहीं था बल्कि खुद को काम में डूबा कर अपने अकेलापन को खत्म करने की कोशिश में जुटे रहते थे. पीपी पर लिखने के लिए हजारों-हजार बातें हैं लेकिन क्या लिखूं और क्या छोड़ू, समझ से परे है. लेकिन एक बात तय है कि भीड़ में अकेले पीपी को जान पाना, समझ पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन था. <br /></p>Manoj Kumarhttp://www.blogger.com/profile/07148316160659906464noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5788123601717760337.post-18984671811867822622023-03-03T21:52:00.002-08:002023-03-03T21:52:54.789-08:00जन्मदिन के साथ ‘भाई-दूज’ मनाएंगी शिवराजसिंह की लाड़ली बहना<p style="text-align: justify;"> 5 मार्च जन्मदिन पर विशेष</p><p style="text-align: justify;">मनोज कुमार</p><p style="text-align: justify;">कल 5 मार्च को मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की उम्र में एक वर्ष का और इजाफा हो जाएगा। इस बार उन्होंने अपना जन्मदिन नहीं मनाने का ऐलान किया है लेकिन यह पहला अवसर होगा जब उनके जन्मदिन के साथ प्रदेश भर में उनकी लाडली बहना ‘भाईदूज’ भी मनाएंगी। ‘भाईदूज’ भारतीय संस्कृति का एक ऐसा पवित्र संस्कार है जिसमें भाई अपनी बहनों की सुरक्षा और समृद्धि का वचन देता है। मातृशक्ति का आंचल शिवराजसिंह के लिए मंगल कामनाओं से भरा-पूरा है। लाडली बहना शिवराजसिंह चौहान के लिए आशीष और उनकी कामयाबी के लिए ईश्वर से प्रार्थना करेंगी। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान वैसे भी स्त्री समाज की बेहतरी के लिए हमेशा से चिंतित और सक्रिय रहे हैं। इस क्रम में उन्होंने हाल ही में ‘लाडली बहना’ योजना का ऐलान किया है और संयोग से इस योजना का आरंभ कल पांच मार्च से हो रहा है। भाई का बहनों को यह तोहफा एक किस्म का अपरोक्ष रूप से ‘भाईदूज’ का नेग माना जा सकता है। कहना ना होगा कि ‘लाडली बहना’ भी उनके जन्मदिन के साथ ‘भाईदूज’ का संस्कार भी पूर्ण करेंगी। ऐसे अवसर अक्सर आंखों को भिगो देते हंै और मन पुलकित हो जाता है। बेशक, यह शिवराजसिंह सरकार की योजना है लेकिन प्रदेश भर की महिलाओं को आर्थिक सुरक्षा देने का बड़ा उपक्रम है। </p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>उल्लेखनीय है कि साल 2005, माह नवम्बर में जब शिवराजसिंह चौहान ने मुख्यमंत्री पद सम्हाला था तब से उनका संकल्प प्रदेश के बेटियों, बहनों और वृद्ध माता-पिता को बेहतर जिंदगी देने का रहा है। लाडली लक्ष्मी योजना से लेकर, स्कूल जाने के लिए साइकिल योजना हो या अब लाडली बहना, शिवराजसिंह के संकल्प को पूरा करते हुए दिखती हैं। बिटिया के ब्याह हो या निकाह, शिवराजसिंह पूरे सम्मान के साथ योजना का लाभ दिलाते रहे हैं। करीब-करीब 20 वर्ष के कार्यकाल में महिला केन्द्रित योजनाओं में मध्यप्रदेश ने जो मानक गढ़े हैं, वह पूरे देश के लिए मिसाल बन गयी है। अनेक राज्य मध्यप्रदेश के अनुगामी बने हैं और अपने-अपने राज्यों में योजनाओं को लागू कर रहे है। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की दूष्टि साफ है और वेे कहते हैं कि मध्यप्रदेश में लागू की गई महिला कल्याण की विभिन्न योजनाओं को देश के अन्य राज्य अपना रहे हैं तो यह प्रसन्नता की बात है क्योंकि बेटी, भांजी, बहन हम सबकी हैं और उनकी सुरक्षा और समृद्धि ही हमारा अंतिम लक्ष्य है।</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>मध्यप्रदेश में लाड़ली बहना योजना की शुरुआत करने का उद्देश्य है कि समाज की नकारात्मक सोच को बदलना और बालिकाओं के भविष्य को उज्जवल बनाना है। इस योजना की घोषणा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के द्वारा नर्मदा जयंती के अवसर पर इसी वर्ष 28 जनवरी 2023 को की गई थी। बालिकाओं के प्रति लोगों में सकारात्मक सोच एवं उनके लिंग अनुपात में सुधार के लिए मध्यप्रदेश सरकार ने मुख्यमंत्री लाडली बहना योजना की शुरुआत की है। इस योजना की सहायता से प्रदेश में लोगो को बालिकाओं के प्रति स्नेह बढ़ेगा। प्रदेश के सरकार द्वारा यह भी घोषणा की गई है कि हमारी जो भी गरीब बहने, निम्न-मध्यम वर्ग की बहनें जो किसी भी धर्म या जाति से आती हों, इस योजना का लाभ प्राप्त कर सकेंगी। लाड़ली बहना योजना में किसी परिवार में यदि दो बहुएं हैं तो उन्हें भी हर महीना 1-1 हजार रुपए दिए जाएंगे। सास यदि बुजुर्ग हैं तो उन्हें वृद्धावस्था पेंशन में 600 के साथ इस योजना के 400 जोडक़र दिए जाएंगे। कोई महिला पहले से किसी भी योजना के तहत लाभ उठा रही है तो उसे भी इस योजना में शामिल किया जायेगा एवं पेंशन पाने वाली महिलाएं भी इस योजना का हिस्सा बन पाएंगी। </p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>प्रदेश की सभी बहनों को इस योजना के तहत एक हजार रुपए हर महीने दिया जाएगा। 5 साल में 60 हजार रुपए दिया जाएगा, ताकि वह आर्थिक रूप से मजबूत हो सकें। इस योजना पर सरकार द्वारा पांच वर्षों में 60 हजार करोड़़ रुपए खर्च किया जाएगा। हमारे देश में कई लोग आर्थिक रूप से कमज़ोर होने के कारण अपनी बहन को उच्च शिक्षा नहीं दे पाते हैं। प्रदेश में रहने वाले कई लोग ऐसे भी हैं जो अभी भी लडक़े और लड़कियों में भेदभाव करते हैं, इस सोच को बदलने में यह योजना कारगर साबित होगी। </p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>अनुभवों से लबरेज शिवराजसिंह चौहान मध्यप्रदेश के चार बार के मुख्यमंत्री हैं लेकिन उनकी कार्यशैली और जीवनशैली आज भी आम आदमी की है। वे अपनी सादगी से लोगों का मन मोह लेते हैं। सबको अपना सा लगता है। रंच मात्र भी उनमें गरुर दिखाई नहीं देता है और वे आज भी एक किसान पुत्र की भांति रहते हैं। उनकी चिंता में महिला, बेटी हैं तो किसान और वृद्ध माता-पिता भी हैं। वे मुख्यमंत्री के रूप में जब कहते हैं कि प्रदेश की साढ़े सात करोड़ जनता मेरी भगवान हैं तो उनका आशय उनके प्रति अपनी जिम्मेदारी का होता है। शिवरासिंह चौहान का मुख्यमंत्री के रूप में सफर कभी आसान नहीं रहा। अनेक चुनौतियों के बीच उन्होंने स्वयं को सम्हाला और चुनौतियों को संभावना में बदल दिया। फिर खेतों में पड़े ओला-पाला हो या कोविड काल में चौपट होती स्वास्थ्य एवं अर्थव्यवस्था, सबको उन्होंने सधे ढंग से सुलझा लिया। कोविड में आम आदमी को हौसला देते हुए खुद कोविड के शिकार हो गए लेकिन इलाज के दरम्यान भी राजकाज जारी रहा। उनके भीतर का यह हौसला, उनका ही नहीं, बल्कि प्रदेश की करोड़ों नागरिकों का है। </p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>शिवराजसिंह चौहान एक संस्कारी राजनेता हैं और यही कारण है कि वे अपने विरोधियों को पूरा सम्मान देते हैं। कभी हल्के शब्दों का उपयोग नहीं करते हैं लेकिन अपने कार्यों से वे विरोधियों को चुप करा देते हैं। अनेक बार उन्हें मिथ्या आरोपों से घेरने की कोशिश की गई लेकिन सब की हवा निकल गई। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी स्वयं शिवराजसिंह चौहान के मुरीद हैं और यही कारण है कि वे हर बार मध्यप्रदेश की धरा पर आने के लिए तैयार रहते हैं। महाकाल लोक जैसा अविस्मरणीय धार्मिक स्थल के लोकार्पण का अवसर हो, कूनो अभयारण्य आने का विषय हो या निवेशकों का सम्मेलन हो, प्रधानमंत्री हमेशा पहुंचे हैं। महामहिम राष्ट्रपति भी तीन से अधिक बार मध्यप्रदेश का प्रवास कर चुकी हैं। यह सब संयोग नहीं बल्कि मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की सदाशयता और उनकी मेहनत को देश-दुनिया देख रही है। सरल, सहज और मिलनसार शिवराजसिंह चौहान भले ही अपना जन्मदिन उत्सवी ना मना रहे हों लेकिन एक-एक पौधा अपना आशीष उन्हें प्रदान करता दिख रहा है। जन्मदिन की कोटिश: बधाई। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं शोध पत्रिका ‘समागम’ के संपादक हैं)</p>Manoj Kumarhttp://www.blogger.com/profile/07148316160659906464noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5788123601717760337.post-57995386792579027822023-02-05T21:24:00.002-08:002023-02-05T21:24:40.122-08:00 ‘समागम’ का सिनेमा उत्सव<p style="text-align: justify;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjwLl_8icE18sVLMsPcQu6VYJ7PVzHFOCmj4mHQlULVquZWEkayDxoxZrJq13xF6FRAZzXel6Br3Yjj0KpDhIKnyN4dIhvrhtec5m42iUL79x2lnB1rw5O3Z0qCydXpsl5Xn86WM50OXQm90vFlGBrq7V4BSoBZLhcfK-dDU8oI3WZlq0aTPxBinwlgyg/s3105/Cinema-2.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3105" data-original-width="2185" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjwLl_8icE18sVLMsPcQu6VYJ7PVzHFOCmj4mHQlULVquZWEkayDxoxZrJq13xF6FRAZzXel6Br3Yjj0KpDhIKnyN4dIhvrhtec5m42iUL79x2lnB1rw5O3Z0qCydXpsl5Xn86WM50OXQm90vFlGBrq7V4BSoBZLhcfK-dDU8oI3WZlq0aTPxBinwlgyg/s320/Cinema-2.jpg" width="225" /></a></div><br /> <span style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;">‘समागम’ : 23वें वर्ष का पहला अंक </span><p></p><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; text-align: justify; white-space: pre-wrap;">आज स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर हमारे बीच नहीं हैं. उनकी आवाज आज हमारे साथ होने का अहसास कराती है. </div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; text-align: justify; white-space: pre-wrap;">समागम टोली लताजी के प्रति अपनी भावांजलि व्यक्त करता है.</div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; text-align: justify; white-space: pre-wrap;">भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष का जश्र मनाते हुए ‘समागम’ ने विशेष अंक का प्रकाशन किया था. अब समय है इस सौ साल के बाद गुजरे एक दशक को जानने और समझने का. कोविड-19 का हमला नहीं होता तो सिनेमा में कुछ थोड़ा-बहुत बदलाव आता लेकिन कोविड-19 ने सिनेमा की सूरत बदल दी है. टेक्रालॉजी समृद्ध हुई <span style="font-family: inherit;"><a style="color: #385898; cursor: pointer; font-family: inherit;" tabindex="-1"></a></span>और सिनेमा देखना आसान लेकिन भाषा को लेकर गिरावट भी साफ देख रहे हैं. बाहुबली से पठान तक की यात्रा का लेखा-जोखा करने का विनम्र प्रयास.</div>Manoj Kumarhttp://www.blogger.com/profile/07148316160659906464noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5788123601717760337.post-31551690237737409352023-02-05T20:16:00.004-08:002023-02-05T20:16:46.954-08:00 दूध की बढ़ती कीमतें नहीं, हमारी चिंता शेयर बाजार है<p style="text-align: justify;">मनोज कुमार</p><p style="text-align: justify;">दूध की बढ़ती कीमतें अब हमें नहीं डराती हैं। इस बढ़ोत्तरी पर हम कोई विमर्श नहीं करते हैं। हमारा सारा विमर्श का केन्द्र शेयर बाजार है। कौन सा पूंजीपति डूब रहा है, इस पर हम चिंता में घुले जा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि शेयर मार्केट की चिंता नहीं करना चाहिए लेकिन पहले तय तो हो कि जीवन के लिए दूध जरूरी है कि शेयर? क्या हम मान लें कि एक साथ तीन रुपये दूध की कीमत में बढ़ोत्तरी कोई माथे पर सलवटें नहीं डालती हैं? क्या हम मान लें कि रोजमर्रा की महंगाई से दो-चार होने को हमने स्वीकार कर लिया है? क्या हम मान लें कि दूध से ज्यादा जरूरी है कि शेयर मार्केट उठ रहा है या गिर रहा है? शायद इस समय का सच यही है कि हमने दूध, सब्जी, किराना और इसी तरह की दिनचर्या की जरूरी चीजों की महंगाई को महंगाई नहीं मान रहे हैं। बढ़ती महंगाई के लिए सत्ता और शासन को हम दोषी बताकर किनारा कर लेते हैं लेकिन जिन्हें शायद कल सत्ता और शासन सम्हालने का अवसर मिले, वे भी खामोश हैं। उनकी चिंता में भी दूध नहीं, शेयर मार्केट की मंदी और उछाल है।</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>हिडनबर्ग की रिपोर्ट के बाद कारोबारी खानदान की चूलें क्या हिली, पूरा समाज चिंता में डूब गया। सबको लगने लगा कि यह खानदान डूबा तो हम सब डूब जाएंगे। शायद यह सच भी हो सकता है लेकिन इससे बड़ा सच एक यह है कि सवा सौ करोड़ के इस महादेश में मध्यमवर्गीय परिवारों से एक मोटे अनुमान से दो-पांच प्रतिशत लोग होंगे जिनकी रूचि शेयर मार्केट में है और उनका पैसा शेयर में लगा हो लेकिन 99 फीसदी परिवार दूध का उपयोग करता है, इस बात से इंकार नहीं होना चाहिए। अब आप खुद अंदाज लगाइये कि चिंता 99 फीसदी लोगों की होनी चाहिए या उन दो-पांच परसेंट लोगों की। लेकिन हम बेफ्रिक हैं और यह मानकर चल रहे हैं कि यह सब चलता रहता है। कोराबारी खानदान के साथ अन्य कई कम्पनियों के शेयर के भाव औंधे मुंह गिरे तो बात लाखों करोड़ तक जा पहुंची। यह आम चर्चा का विषय हो गया कि अब तो सब कयामत आने वाली है। लेकिन तीन रुपये दूध की कीमत बढ़ जाने से किसी को उन हजारों-हजार परिवार के दूधमुंहे बच्चों की चिंता नहीं हुई जिनका निवाला छीना जा रहा है। </p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>बहुत पुराना तो याद नहीं लेकिन हर्षद मेहता के बाद से कुछ और ऐसी घटनाएं घटी हैं जिसने अर्थव्यवस्था पर असर डाला है। हर्षद मेहता के समय भी और उसके बाद भी आम आदमी को कोई फर्क नहीं पड़ा। तब शायद मीडिल क्लॉस शेयर मार्केट को ना जानता था और ना उसकी हिम्मत थी कि वह ऐसी जगहों पर पैसा इनवेस्ट करे। इसे सीधे शब्दों में समझना चाहें तो कह सकते हैं कि तब आम आदमी की लालच का ग्राफ नियंत्रण में था। अपनी जीवन भर की कमाई को अधिक से अधिक वह एफडी बनाकर रख देता था। लेकिन आज मामला एकदम उलट है। क्या खास और क्या आम, सब लालच की डोर में ऐसे लिपटे दिख रहे हैं कि रातों रात लखपति बन जाना चाहते हैं। और ऐसे सपनों को पूरा करने के लिए उनके पास एक शॉर्टकट बचता है शेयर मार्केट। ऐसे में जब कोई गड़बड़ी उजागर होती है तब शेयर मार्केट में उछाल या मंदी छा जाती है और सबसे नुकसान में वह मिडिल क्लास होता है जिसके सपनों की डोर शेयर से बंधी होती है। ऐसे में डिप्रेशन, हॉटअटैक और मनोरोगियों की तादात में बढ़ोत्तरी हो जाए तो कोई हैरानी नहीं होना चाहिए। एक आम आदमी का शेयर मार्केट में पैसा डूबता है तो वह सडक़ पर आ जाता है लेकिन एक पूंजीपति को इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता है।</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>हैरानी में डाल देने वाली बात तो यह है कि हर्षद मेहता प्रकरण के बाद से जितने भी कांड हुए हैं, उसे देखने के बाद भी आम आदमी ने कोई सीख नहीं ली। शायद वह दांव पर अपनी कमाई लगा देना चाहता है और जैसा कि होता आया है, मरना, मिटना और तबाह होना उसे ही है। शेयर मार्केट व्यापार नहीं है बल्कि सपनों की दुनिया है और जैसा कि दुनिया का हर देश भारत के बाजार की ओर आस भरी नजरों से देख रहा है तब उसका भी टॉरगेट आम भारतीय ही होता है। उसे पता है कि ‘फ्री गिफ्ट’ आम आदमी को लुभाता है। यह और बात है कि उसके एवज में उसे दुगुना देना पड़ता है। सोशल मीडिया में रिल्स ने तो आम आदमी को शॉर्टकट में कुछ सेकंड में अमीर बनने का नुस्खा बताकर चला जाता है। एक ऐसा ही उदाहरण याद आता है कि एक व्यक्ति, दूसरे से पूछता है कि तुम रोज कितना शराब पीते हो और उसे बताता है कि बीस साल में तुमने इतने की शराब पीकर पैसा खर्च कर दिया। ऐसा नहीं करते तो तुम्हारे पास ऑडी कार होती। तब वह आदमी पलटकर पूछता है कि तुम तो शराब नहीं पीते, फिर तुम्हारी ऑडी कार कहां है? ऐसे सलाहकारों की बड़ी भीड़ है जो शिकारी की तरह आपको उलझाती है। यह ठीक है कि शराब से पैसा ही नहीं, सेहत भी खराब होती है और शराब नहीं पीना चाहिए। मजेदार बात तो यह है कि दूध की बढ़ती कीमत पर रिल्स पर कोई वीडियो, कोई मोटीवेशनल स्पीच या कोई चिंता नहीं दिख रही है। </p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>जिस बाजारवाद को लेकर एक दशक पहले छाती पीटा जा रहा था, आज वह बाजारवाद हमारी जीवनशैली बन चुका है। कभी तीज-त्योहार पर नए कपड़े खरीदने का चलन था, अब रोज उत्सव हो रहा है। छूट और फ्री ने हर आदमी को उपभोक्ता बना दिया है। युवा वर्ग दो-पांच सौ रुपयों की कॉफी पीने का आदी हो चुका है। पिजा-बर्गर की कीमत के सामने उसे महंगा दूध क्यों बैचेन करेगा? उसके लिए तीन रुपये ही तो है। कभी कहते थे कि सिक्के की चमक के आगे अंधेरा छा जाता है, आज शेयर मार्केट के सामने अंधेरा छा गया है।</p>Manoj Kumarhttp://www.blogger.com/profile/07148316160659906464noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5788123601717760337.post-78285994921736721502023-01-28T00:10:00.002-08:002023-01-28T00:10:56.373-08:00इक अखबार बिन सब सून<p style="text-align: justify;">मनोज कुमार</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>भारत का संविधान पर्व दिवस 26 जनवरी जनवरी को परम्परानुसार अखबारों के दफ्तरों में अवकाश रहा लिहाजा 27 जनवरी को अखबार नहीं आया और इक प्याली चाय सूनी-सूनी सी रह गयी. 28 तारीख को वापस चाय की प्याली में ताजगी आ गयी क्योंकि अखबार साथ में हाथ में था. अभी हम 2023 में चल रहे हैं और कल 29 तारीख होगी जनवरी माह की और यह तारीख हमारे इतिहास में महफूज है क्योंकि इसी तारीख पर जेम्स आगस्ट हिक्की ने भारत के पहले समाचार पत्र का प्रकाशन आरंभ किया था. शायद तब से लेकर अब तक इक प्याली चाय के साथ अखबार का हमारा रिश्ता बन गया है. हिक्की के अखबार का प्रकाशन 1780 में हुआ था और इस मान से देखें तो भारत की पत्रकारिता की यात्रा 243 साल की हो रही है. भारतीय पत्रकारिता का इतिहास इस बात का गवाह रहा है कि उसने हमेशा जन-जागरण का लोकव्यापी कार्य किया है. कबीर के शब्दों में ढालें तो ‘ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर’ वाली परम्परा का पोषण भारतीय पत्रकारिता ने किया है. </p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>शब्द सत्ता का दूसरा नाम अखबार है और शायद यही कारण है कि रसूख वालों को 1780 में जिन अखबारों से डर लगता था, 2023 में भी वही डर कायम है. कानून को अपने हिसाब से जोड़-तोड़ कर लेने में माहिर सत्ताधीश इस बात से हमेशा सजग रहे हैं कि अखबार हमेशा उनसे दूर रहें. आजादी के दौर में अंंग्रेजों की नाक में दम करने वाली पत्रकारिता ने स्वाधीन भारत में भी अपने दायित्व को बखूबी निभाया. नए-नए शासकों और सत्ताधीशों के लिए अखबार में छप जाने वाली इबारत उनकी नींद उड़ा देती है. पत्रकारिता के इस सात्विक कर्म के कारण ही उसे भारतीय परम्परा में चौथा स्तंभ पुकारा गया. इस चौथे स्तंभ ने भी अपनी मर्यादा और दायित्व को पूरी जवाबदारी से निभाते देखा गया. 2023 में हम जब अखबारों की चर्चा करते हैं तो कई विषम स्थितियां हमारे सामने आती हैं. साल 1975 का वह आपातकाल का दौर जिसने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को छिन्न-भिन्न करने की कोशिश की. लेकिन कुछ ऐसे अखबार भी रहे जिन्होंने टूटना पसंद किया, झुकना नहीं. इस परिप्रेक्ष्य में कभी लाईमलाईट में रहने वाले लालकृष्ण आडवानी की वह टिप्पणी सामयिक लगती है जब उन्होंने कहा था-‘अखबारों को झुकने के लिए कहा गया लेकिन वे रेंगने लगे।’ </p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>शायद इसके बाद ही अखबारों की दुनिया बदल गयी। अखबार पत्रकारिता धर्म से परे होकर उद्योग के रूप में सूरत अख्तियार करने लगे. आर्थिक संसाधनों से लैस होकर सत्ता के करीब होते गए और पत्रकारिता हाशिये पर जाने लगी. अखबार देखते ही देखते टेलीविजन में बदल गये. रंगीन फिसलन वाले कागज पर पेजथ्री का कब्जा हो गया. गरीब-गुरवा और शोषित अखबारों से उसी तरह दूर कर दिये गये जिस तरह आज हम टेलीविजन के परदे पर देखते हैं. सत्ता शीर्ष के नाश्ते से लेकर देररात तक शयन कक्ष में जाने की दैनंदिनी क्रियाओं को अखबारों ने महिमामंडित कर छापने लगे. एक पन्ने पर मोहक शब्दों में गुथी गाथा थी तो पारिश्रमिक के तौर पर अगले पन्ने भर का विज्ञापन. यह सच है और इस सच से मुंंह चुराती पत्रकारिता ना कल थी और ना आगे कभी होगी क्योंकि पत्रकारिता का मूल धर्म ‘ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर’ की रही है और रहेगी. </p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>29 जनवरी, 1780 का स्मरण करते हैं तब हम खुद से मुंह चुराते हैं क्योंकि इस तारीख को भारतीय पत्रकारिता की नींव रखी गयी थी लेकिन आज 2023 में पत्रकारिता का नाम और रूप बदलकर मीडिया हो गया है. यह भी कम दुर्भाग्यपूर्ण बात नहीं है कि ‘ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर’ वाली लीक को छोडक़र एक वर्ग इधर का हो गया तो एक वर्ग उधर का हो गया. पाठकों और दर्शकों को भी इसी श्रेणी में बांट दिया गया. जो सत्ता विरोधी बोल और लिख रहा था, वह ईमानदार की श्रेणी में आ गया और जो सत्ता के समर्थन में लिख-बोल रहा था, वह उनका पी_ू हो गया. सच तो यह है कि दोनों श्रेणी के लोग उस पत्रकारिता के हैं ही नहीं जिसकी कल्पना गांधी, तिलक, माखनलाल चतुर्वेदी, पराडक़रजी और विद्यार्थी किया करते थे. सिनेमा के सौ साल के सफर में जब ‘डर्टी पिक्चर’ देखते हैं तो वाह-वाह कर उठते हैं लेकिन अढ़ाई सौ साल की पत्रकारिता के ‘डर्टी मीडिया’ की बात करने से हम सहम जाते हैं. </p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>नाउम्मीदी का एक घना अंधेरा दिखता है. इसे आप कोहरे में घिरा-छिपा भी कह सकते हैं क्योंकि ना तो घना अंधेरा हमेशा बना रहेगा और ना कोहरे में लिपटा वह झूठ जो सच बनकर दिखाया और समझाया जाता है. अखबार की ताकत हमेशा से मौजूं रही है और आगे भी उसके इस बेबाकीपन से आपका सामना होगा. यह इत्तेफाकन नहीं होगा बल्कि सुनियोजित और सुगठित ढंग से होगा. इस सच के सवाल का जवाब कौन देगा कि जब अखबार अविश्वसनीय हो गए हैं तो 27 जनवरी या 16 अगस्त को क्यों हम उसकी राह तकते हैं? अखबार इतना ही अविश्वसनीय है तो कोरोना में हमने उससे परहेज क्यों नहीं किया? जो लोग मेरे हमउम्र हैं, उन्हें याद दिला दूं कि शशि कपूर अभिनीत ‘न्यू देहली टाइम्स’ ने आगाह कर दिया था कि पत्रकारिता और सत्ता का गठजोड़ कैसे होगा. कैसे पत्रकारिता का चेहरा बदलेगा लेकिन एक खबर पूरे तंत्र को हिला देती है यदि उसमें तडक़ा ना लगाया जाए. तथ्यों और तर्कों के साथ उसे समाज के समक्ष रखा जाए. बहुतेरे साथियों को इस बात की शिकायत होती है कि अब खबर का असर नहीं होता है तो क्या कोई बताएगा कि आपने खबर लिखी कौन सी है और क्यों असर नहीं हुआ। आप मनोरंजन की खबरें लिखें, तो उसे उसी श्रेणी में रहने दें लेकिन लोक समाज के हित में लिखने का साहस रखते हैं तो पांव में बिबाई से ना डरें.</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>कितना भी आप रो लें, सिर पीट लें लेकिन मुझे यकिन है कि 2023 की 29 जनवरी को भी हम उसी 1780 की 29 जनवरी को जी रहे हैं जिसने भारत में पत्रकारिता का श्रीगणेश किया था. हां, उन अखबारों और पत्रकारों को छोड़ दें जिन्हें अखबार को लोक समाज का प्रहरी बने रहने के बजाय उद्योग बनना है. जब तक ‘ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर’ से अखबार का रिश्ता बना रहेगा तब तब इक प्याली चाय के साथ दूसरे हाथ में अखबार की जरूरत महसूस होती रहेगी. </p>Manoj Kumarhttp://www.blogger.com/profile/07148316160659906464noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5788123601717760337.post-65623372981920680062023-01-14T22:53:00.000-08:002023-01-14T22:53:00.503-08:00<p></p><div style="text-align: justify;"> </div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhLk5K48-C17CFxKAEu1BeIj_jxNkdX5bVotwUCJ7c-fBpVsiThk0KVyxn0uxVi9HJxpX3jF14Wi3aCsWgwatu260OzBNU9urHZf737YPj9qA26u7bkDreceTDUvqZPl-G65Nq9d0v4IanF_w9kTOOiPErsfSarK_cxQTPlpzrk_f6UFj5U8BA5azssMw/s3056/Samagam%20Cover%20Jan-23.gif" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: justify;"><img border="0" data-original-height="3056" data-original-width="2221" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhLk5K48-C17CFxKAEu1BeIj_jxNkdX5bVotwUCJ7c-fBpVsiThk0KVyxn0uxVi9HJxpX3jF14Wi3aCsWgwatu260OzBNU9urHZf737YPj9qA26u7bkDreceTDUvqZPl-G65Nq9d0v4IanF_w9kTOOiPErsfSarK_cxQTPlpzrk_f6UFj5U8BA5azssMw/s320/Samagam%20Cover%20Jan-23.gif" width="233" /></a></div><p></p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>एक कोशिश का नाम है ‘समागम’</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>22 वर्ष पहले ‘समागम’ का प्रकाशन आरंभ किया था. तब मन में कुछ अलग करने का विचार था. पत्रिकाओं की भीड़ तब भी थी और अब भी है. ऐसे में कुछ नया क्या हो, यह दिमाग को मथ रहा था. ऐसे में खयाल आया कि क्यों ना मीडिया रिसर्च को लेकर कोई कार्य आरंभ किया जाए. अकादमिक गतिविधियों से जुडऩे के बाद मेरे विचार को विस्तार मिला. आज 22 वर्ष बाद ‘समागम’ का जो स्वरूप आप देख रहे हैं, वह अपने शुरूआती दिनों में नहीं था लेकिन कोशिश को लोगों ने हौसला दिया. एक चुनौती यह भी थी कि प्रत्येक माह नवीन सामग्री कैसे जुटायी जाएगी? लेकिन यकिन नहीं होता है कि लोगों का स्नेह और सहयोग ने इस संकट को भी दूर कर दिया. आज मोटेतौर पर देखें तो देशभर के सुप्रतिष्ठित प्राध्यापकों, मीडिया विशेषज्ञ एवं शोधार्थियों की लगभग हजार लोगों का साथ है. </p><p style="text-align: justify;">‘समागम’ से रिसर्च जर्नल ‘समागम’ का सफर भी रोचक रहा है. विभिन्न विश्वविद्यालयों में शिक्षकों और विद्यार्थियों से चर्चा करते हुए मेरी समझ कुछ विकसित हुई. एक ठेठ जर्नलिस्ट का संपादक बन जाना कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन एक जर्नलिस्ट का रिसर्च की पत्रिका का एडीटर होना जाना चुनौतीपूर्ण था. आइएसएसएन क्या होता है? प्रीयररिव्यूड जर्नल क्या होता है? जैसे सवालों का जवाब पाकर एक गुणवत्तापूर्ण प्रकाशन की विनम्र कोशिश की है. यह मेरे लिए संतोष की बात है कि देशभर के सुविख्यात शिक्षक एवं पत्रकार मेरे अनुरोध पर तत्काल लिखकर भेजते हैं. आज जब 23वें वर्ष में प्रवेश कर रहा हूं तब पांच लोगों का स्मरण सहज हो आता है. मेेरे मार्गदर्शक बालकवि बैरागी को ‘समागम’ के प्रकाशन के एक दशक बाद डरते हुए अंक भेजा. अचानक उनका फोन आता है ‘बैरागी बोल रहा हूं. तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई कि इतने वर्षों तक मुझे एक समृद्ध पत्रिका से वंचित रखा. अच्छा काम कर रहे हो. रूकना नहीं.’ उसके बाद गलती पर कभी डांट तो बाद में पुचकराते हुए उत्साहवर्धन करते हुए नियमित फोन और खत आना. औरंगाबाद महाराष्ट्र में मीडिया एजुकेशन के गुरु डॉ. सुधीर गव्हाणे सर का इसी तरह मार्गदर्शन मिलता रहा. प्रेमचंद पर शोध को लेकर स्थापित नाम डॉ. गोयनका जी का गलतियों पर ध्यान आकृष्ट करने के लिए फोन करना और सराहना कि अच्छा काम कर रहे हो. डॉ. सोनाली नरगुंदे लिखने का ‘समागम’ को लेकर अनुराग बना रहा. ‘समागम’ को विस्तार देने के लिए वे सतत रूप से प्रयास कर रही हैं. खामोशी के साथ मेरा हौसला बढ़ाने वाले मेरे अग्रज आदरणीय गिरिजा भइया की भूमिका मैं ही समझ सकता हूं. एकाध ही बार कहा होगा कि दिल्ली में तुम्हारी मैगजीन की तारीफ कर रहे थे. यह मेरे लिये सम्मान से कम नहीं था. मेरे एक और अग्रज श्री जगदीश उपासने इंडिया टुडे के एडीटर रहते हुए ‘समागम’ के बारे में स्वयं लिखकर लोगों तक पहुंचाया. समय-समय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में ‘समागम’ के कंटेंट को लेकर चर्चा होती रही है. </p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>देश की अन्य लघु पत्रिकाओं की तरह ‘समागम’ भी आर्थिक झंझावत से गुजर रहा है. लेकिन एक संकल्प और जिद के कारण इसका प्रकाशन अब तक निर्बाध है और शायद आगे भी बना रहे. कोविड काल में भी ‘समागम’ का निरंतर प्रकाशन इस बात की आश्वस्ति है. सबसे सुखद बात यह है कि मेरे साथ अनेक नाम हैं जिनका उल्लेख करना संभव नहीं होगा लेकिन वे परछायी की तरह ‘समागम’ के साथ खड़े हैं. आगे भी यह सिलसिला बना रहे और आपका सहयोग, शुभेच्छा और स्नेह बना रहे.</p><p style="text-align: justify;">मनोज कुमार संपादक</p><div style="text-align: justify;"><br /></div>Manoj Kumarhttp://www.blogger.com/profile/07148316160659906464noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5788123601717760337.post-633709525867836412023-01-06T22:03:00.004-08:002023-01-06T22:03:29.117-08:00 गांधी की याद में प्रवासी भारतीय दिवस<p style="text-align: left;"></p><div style="text-align: justify;"> <br />मनोज कुमार<br />इंदौर में आयोजित सत्रहवां प्रवासी भारतीय दिवस तारीख 9 जनवरी के महत्व को दर्शाता है. 9 जनवरी महज कैलेंडर की तारीख नहीं बल्कि इतिहास बदलने की तारीख है जिसका श्रेय महात्मा गांधी को जाता है. आज ही के दिन 1915 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी अपनी पत्नी कस्तूरबा गांधी के साथ भारत वापस लौटे थे. 09 जनवरी 1915 की सुबह बंबई (अब मुंबई) के अपोलो बंदरगाह पर गांधी जी और कस्तूरबा पहुंचे तो वहां मौजूद हजारों कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने शानदार तौर तरीके से उनका इस्तकबाल किया था. अब महात्मा गांधी के वापसी के दिन को हर साल भारत में प्रवासी दिवस के तौर पर मनाया जाता है. इस दिन हर साल भारत के विकास में प्रवासी भारतीय समुदाय के योगदान को सम्मान देने के लिए मनाया जाता है. महात्मा गांधी ने साल 1893 में 24 साल की उम्र में वकालत के लिए साउथ अफ्रीका का रुख किया था. वह वहां 21 साल तक मुकीम रहे. इस दौरान उनकी शोहरत एक बड़े और तजरुबेकार वकील के तौर पर हो चुकी थी. इस अर्से में गांधी जी ने मजलूमों और बेसहारों के लिए कई लड़ाईयां लड़ीं और जीतीं भी. इस दौरान इसकी चर्चा भारत में भी हुई और यहां के लोगों की गांधी जी से उम्मीदें बंधने लगीं. अफ्रीका में गांधी जी के सियासी और अखलाकी फिक्रों की तरक्की हुई थी. साउथ अफ्रीका में अपनी चमड़ी के रंग की वजह से उन्हें बहुत भेदभाव झेलना पड़ा. उन्होंने वहां भारतीयों और अश्वेतों के साथ होने वाले भेदभावों के खिलाफ आवाज उठाई और उनके हक के लिए कई लड़ाइयां लड़ीं और इनमें गाधी जी को कामयाबी भी मिली.<br /><span style="white-space: pre;"> </span><span style="white-space: pre;">यह तारीख अंतत: दुनिया भर में प्रवासी भारतीयों और औपनिवेशिक शासन के तहत लोगों के लिए और भारत के सफल स्वतंत्रता संघर्ष के लिए प्रेरणा बने। प्रवासी भारतीय दिवस सम्मेलन आयोजित करने का प्रमुख उद्देश्य भी प्रवासी भारतीय समुदाय की उपलब्धियों को दुनिया के सामने लाना है ताकि दुनिया को उनकी ताकत का अहसास हो सके। देश के विकास में भारतवंशियों का योगदान अविस्मरणीय है। वर्ष 2015 के बाद से हर दो साल में एक बार प्रवासी भारतीय दिवस देश में मनाया जा रहा है।</span><br />प्रवासी भारतीय दिवस मनाने का निर्णय एल.एम. सिंघवी की अध्यक्षता में भारत सरकार द्वारा स्थापित भारतीय डायस्पोरा पर उच्च स्तरीय समिति की सिफारिशों के अनुसार लिया गया था। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 9 जनवरी 2002 को प्रवासी भारतीय दिवस को व्यापक स्तर पर मनाने की घोषणा की। इस आयोजन ने प्रवासी भारतीयों की भारत के प्रति सोच को सही मायनों में बदलने का काम किया है। साथ ही इसने प्रवासी भारतीयों को देशवासियों से जुडऩे का एक अवसर उपलब्ध करवाया है। इसके माध्यम से दुनिया भर में फैले अप्रवासी भारतीयों का बड़ा नेटवर्क बनाने में भी मदद मिली है, जिससे भारतीय अर्थ-व्यवस्था को भी एक गति मिली है। हमारे देश की युवा पीढ़ी को भी जहाँ इसके माध्यम से विदेशों में बसे अप्रवासियों से जुडऩे में मदद मिली है वहीं विदेशों में रह रहे प्रवासियों के माध्यम से देश में निवेश के अवसरों को बढ़ाने में सहयोग मिल रहा है।<br />तत्कालीन प्रधानमंत्री की पहल को आगे बढ़ाने तथा प्रवासी भारतीय समुदाय को भारत से जोडऩे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका उल्लेखनीय रही है। वह अपने विदेशी दौरों में जिस भी देश में जाते हैं वहाँ के प्रवासी भारतीयों के बीच भारत की एक अलग पहचान लेकर जाते हैं। इससे उनमें अपनेपन की भावना का अहसास होता है और प्रवासी भारतीय भारत की ओर आकर्षित होते हैं। विश्व में विदेशों में जाने वाले प्रवासियों की संख्या के संदर्भ में भारत शीर्ष पर है। भारत सरकार ‘ब्रेन-ड्रेन’ को ‘ब्रेन-गेन’ में बदलने के लिये तत्परता के साथ काम कर रही है। आर्थिक अवसरों की तलाश के लिये सरकार इनको अपने देश की जड़ों से जोडऩे का प्रयास कर रही है। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के संबोधन में प्रवासी जिस उत्साह के साथ जुटते हैं वह इस बात को साबित करता है कि प्रवासी प्रधानमंत्री के नेतृत्व को उम्मीदों भरी नजऱों से देखते हैं और उनसे उनको बड़ी उम्मीदें हैं। भारतीय प्रवासियों की तादाद दुनिया भर में फैली है। आज दुनिया के कई देशों में भारतीय मूल के लोग रह रहे हैं जो विभिन्न कार्यों में संलग्न हैं। यदि भारत सरकार और प्रवासी भारतीयों के बीच आपसी समन्वय और विश्वास और अधिक बढ़ सके तो इससे दोनों को लाभ होगा। भारत की विकास यात्रा में प्रवासी भारतीय भी हमारे साथ हैं।<br />उल्लेखनीय है कि प्रवासी भारतीय दिवस मनाने के प्रति जो उद्देश्य निहित हैं उनमें अप्रवासी भारतीयों की भारत के प्रति सोच, उनकी भावनाओं की अभिव्यक्ति के साथ ही उनकी अपने देशवासियों के साथ सकारात्मक बातचीत के लिए एक मंच उपलब्ध कराना प्रमुख है. इसके साथ ही भारतवासियों को अप्रवासी बंधुओं की उपलब्धियों के बारे में बताना तथा अप्रवासियों को देशवासियों की उनसे अपेक्षाओं से अवगत कराना, विश्व के 110 देशों में अप्रवासी भारतीयों का एक नेटवर्क बनाना, भारत का दूसरे देशों से बनने वाले मधुर संबंध में अप्रवासियों की भूमिका के बारे में आम लोगों को बताना, भारत की युवा पीढ़ी को अप्रवासी भाईयों से जोडऩा तथा भारतीय श्रमजीवियों को विदेश में किस तरह की कठिनाइयों का सामना करना होता है, के बारे में विचार-विमर्श करना। <br />भारत विश्व का दूसरा सबसे बड़ा डायस्पोरा है। प्रवासी भारतीय समुदाय अनुमानत: 2.5 करोड़ से अधिक है। जो विश्व के हर बड़े क्षेत्र में फैले हुए हैं। फिर भी किसी एक महान् भारतीय प्रवासी समुदाय की बात नहीं की जा सकती। प्रवासी भारतीय समुदाय सैकड़ों वर्षों में हुए उत्प्रवास का परिणाम है और इसके पीछे विभिन्न कारण रहे हैं, जैसे- वाणिज्यवाद, उपनिवेशवाद और वैश्वीकरण। इसके शुरू के अनुभवों में कोशिशों, दु:ख-तकलीफों और दृढ़ निश्चय तथा कड़ी मेहनत के फलस्वरूप सफलता का आख्यान है। 20वीं शताब्दी के पिछले तीन दशकों के उत्प्रवास का स्वरूप बदलने लगा है और ‘नया प्रवासी समुदाय’ उभरा है जिसमें उच्च कौशल प्राप्त व्यावसायिक पश्चिमी देशों की ओर तथा अकुशल,अर्धकुशल कामगार खाड़ी, पश्चिम और दक्षिण पूर्व एशिया की और ठेके पर काम करने जा रहे हैं।<br />प्रवासी भारतीय समुदाय एक विविध विजातीय और मिलनसार वैश्विक समुदाय है जो विभिन्न धर्मों, भाषाओं, संस्कृतियों और मान्यताओं का प्रतिनिधित्व करता है। एक आम सूत्र जो इन्हें आपस में बांधे हुए है, वह है भारत और इसके आंतरिक मूल्यों का विचार। प्रवासी भारतीयों में भारतीय मूल के लोग और अप्रवासी भारतीय शामिल हैं और ये विश्व में सबसे शिक्षित और सफल समुदायों में आते हैं। विश्व के हर कोने में, प्रवासी भारतीय समुदाय को इसकी कड़ी मेहनत, अनुशासन, हस्तक्षेप न करने और स्थानीय समुदाय के साथ सफलतापूर्वक तालमेल बनाये रखने के कारण जाना जाता है। प्रवासी भारतीयों ने अपने आवास के देश की अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है और स्वयं में ज्ञान और नवीनता के अनेक उपायों का समावेश किया है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं शोध पत्रिका ‘समागम’ के संपादक हैं)</div><p></p><div><br /></div>Manoj Kumarhttp://www.blogger.com/profile/07148316160659906464noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5788123601717760337.post-12256339510910435402022-12-28T08:39:00.004-08:002022-12-28T08:39:33.862-08:00 मेरा पसंदीदा रंग तो आज भी काला है...<p style="text-align: justify;">मनोज कुमार</p><p style="text-align: justify;"> तुम खेलो रंगों से, रंग बदलना तुम्हारी आदत में है, मेरा पसंदीदा रंग तो आज भी काला है और काले रंग में समा जाना तुम्हारी फितरत में नहीं क्योंकि तुम रंग बदलने में माहिर हो. साल 2022 मीडिया के ऐसे ही किस्से कहानियों का साल रहा है. सबकी उम्मीदें रही कि मीडिया निरपेक्ष रहे लेकिन यह उम्मीद दूसरे से रही है. कोई खुद निरपेक्ष नहीं बन पाया. मीडिया निरपेक्ष हो भी तो कैसे? किसी एक के पक्ष में लिखना होगा और जब आप किसी के पक्ष में लिखेंगे तो स्वत: आप दूसरे के टारगेट पर होंगे. गोदी मीडिया एक शब्द गढ़ा गया लेकिन कोई यह बताने को तैयार नहीं है कि गोदी मीडिया क्या है? आज जो सत्ता में है, गोदी मीडिया उसकी, कल जो सत्ता में आएगा, गोदी मीडिया उसकी लेकिन पत्रकारिता इन सबसे परे है. पत्रकारिता समाज की है. मुश्किल यह है कि जिस पुण्य कार्य से हमारी पहचान है, हमारा जीवन चलता है, उसे ही हम गरिया रहे हैं. साल 2022 ऐसे ही चरित्र के कारण गिना जाएगा.</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>मीडिया का मतलब अब जो समझा गया या समझा जा रहा है, वह सोशल मीडिया है. इसके बाद टेलीविजन का क्रम आता है और सबसे आखिर में प्रिंट का. सोशल मीडिया कितना बेहाल है, यह किसी से छिपा नहीं है. कोई नियंत्रण नहीं, कोई देखरेख नहीं, जिसे जो सूझा, वह लिख दिया और शेयर, लाईक और फालो पर सोशल मीडिया जिंदा है. जिन्हें जो भाया, उन्होंने उसे सत्य मान लिया और यही कारण है कि समाज को मार्ग दिखाने वाला खुद भटकाव का शिकार हो गया. सच और गलत के मध्य कोई लक्ष्मण रेखा शेष नहीं रहा. इसके बाद टेलीविजन मीडिया ने इसे आगे बढ़ाया. मीडिया की दुनिया से बावस्ता लोगों को इस बात का ज्ञान है कि रोज सुबह मीटिंग में तय किया जाता है कि आज किस खबर को खेलना है. ‘खबर खेलने’ का यह चलन टेलीविजन ने शुरू किया. और इसके बाद किसी एक विषय को लेकर दर्शकों का हैमरिंग किया जाता रहा. बचे-खुचे में शाम को डिबेट के नाम पर शोर-शराबा, आरोप-प्रत्यारोप और एकाध बार तो दंगल का मैदान भी बन चुका है. हालात यह हो गए कि उकता गए लोग अब न्यूज चैनल से तौबा करने लगे हैं. आम आदमी तो आम आदमी, मीडिया से जुड़े लोग भी अब न्यूज चैनल से दूरी बनाने लगे हैं. यह चलन 2022 में देखने को मिला.</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>2022 में सबसे ज्यादा विश्वसनीय बनकर उभरा तो प्रिंट मीडिया. प्रिंट मीडिया में भी अखबारों की भूमिका संजीदा रही. इसका एक बड़ा कारण समय का प्रतिबंध रहा क्योंकि लाख कोशिशों के बाद भी 24 घंटे में एक बार ही अखबार का प्रकाशन हो पाता है. पेज संख्या भी सुनिश्चित है इसलिए संपादक चाहे तो भी तो उसके हाथ बंधे होते हैं. अखबारों की मर्यादा यह भी है कि उसे नापतौल कर शब्द लिखने होते हैं और जब सूचनाओं का सैलाब तटबंध तोडक़र बह रहा हो तो सूचनाओं के मध्य खबर तलाशने में अखबारों को विशेष तौर पर मेहनत करनी होती है. और शायद यही कारण है कि हजारों चुनौतियों के बाद भी अखबारों की विश्वसनीयता ना केवल कायम रही बल्कि उसमें इजाफा भी हुआ.</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>मीडिया में नायक बनने का दौर भी 2022 ने देखा. सोशल मीडिया में नायक जैसा कोई चेहरा शायद ढूंढे से ना मिले और अखबारों में नायक संपादक होने का दौर लगभग खत्म हो चुका है क्योंकि संपादक संस्था कब से अपना अस्तित्व खो चुका है. हां, बेहतर रिपोर्टिंग के लिए रिपोर्टर को शाबासी मिलती है लेकिन नायक नहीं बनाया जाता है. हमारे समय के नायक रिपोर्टर के रूप में अरूण शौरी ने बोफोर्स सौदे का जो खुलासा किया, उसकी गूंज सालों साल तक गुंजती रही. ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे लेकिन अब इस पर भी विराम लग चुका है. </p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>नायक बनने और बनाने का दौर टेलीविजन पत्रकारिता तक सिमट कर रह गया है. थोड़ा गौर से देखें और समझने की कोशिश करें तो 2022 आते-जाते मीडिया के नायक के रूप में रवीश कुमार दिखते हैं. रवीश कुमार एंग्री यंग मेन की वैसी ही भूमिका में हैं जैसे कभी अमिताभ बच्चन हुआ करते थे. दोनों में साम्य इस बात को लेकर है कि दोनों परदे के हीरो तो रहे, परदे के एंग्री यंग मेन तो रहे लेकिन वास्तविक जिंदगी में इनका कोई असर नहीं दिखा. अमिताभ परदे पर अन्याय और अत्याचार के खिलाफ खड़े हो जाते थे, जैसे रवीश तथाकथित गोदी मीडिया के खिलाफ खड़े हो जाते हैं. शासन-प्रशासन को आइना दिखाते हैं लेकिन सच तो यह है कि वास्तविक जिंदगी में कोई बदलाव नहीं दिखा. सच तो यह है कि हम जो नहीं कर पाते हैं या बोल नहीं पाते हैं, उसे परदे पर उतरता देख हम इत्मीनान कर लेते हैं कि चलो, कोई तो हमारी बात कह रहा है. यह मध्यमवर्गीय समाज का संकट सदियों से बना रहा है. </p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>साल 2022 की मीडिया को रवीश कुमार के लिए याद किया जाएगा. दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार से नवाजे गए रवीश कुमार तथाकथित गोदी मीडिया के खिलाफ नायक बनकर उभरे. उनकी छवि ऐसी बन गई थी कि किसी पत्रकार, लेखक या कवि की पंक्ति को उन्होंने अपने प्रोग्राम में दोहरा दिया तो वह पत्रकार, लेखक या कवि स्वयं को धन्य मानता था. रवीश के रोज-ब-रोज आलोचनात्मक भाषण को लोगों ने चाव से सुना लेकिन याद नहीं पड़ता कि कभी उन्हें सीरियस लिया गया होगा. उनके ही एक पुराने सहयोगी दिल्लगी में याद दिलाते हैं कि कभी दूरदर्शन को बुद्धु बक्सा कहा गया और उसे सरकारी भोंपू पुकारा गया तब जसपाल भट्टी का उल्टा-पुल्टा हास्य प्रोग्राम शुरू किया गया. लोगों का मनोरंजन खूब हुआ लेकिन परिणाम कुछ नहीं निकला. आज भी कुछ वैसा ही है. उनकी बातेेंं अतिरंजित हो सकती है लेकिन एकाएक खारिज नहीं किया जा सकता है. </p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>पत्रकारों को गरियाने वाले, उन्हें गोदी मीडिया कहने वालों से साल 2022 पूछ रहा है कि क्या वे जिस चैनल में हैं, उसकी नीतियों के खिलाफ जा सकते हैं? क्या आप अपनी स्वतंत्र राय रख सकते हैं? शायद इन लोगों ने शशि कपूर अभिनीत फिल्म ‘न्यू देहली टाइम्स’ नहीं देखा है. एक बार देखिये कि चौथे स्तंभ और राजनीति में जब गठजोड़ होता है तो पत्रकार कैसे मरता है. उस दर्द को महसूस करिये कि मेहनत से लिखी गई आपकी खबर समझौते की भेंट चढ़ जाती है. कभी गौर से उन प्रोग्राम को जरूर देखिये जिसमें सरकार के पक्ष में तो एंकर चिल्लाता है लेकिन इस चिल्ल-पों के बीच एक वाक्य ठोंक भी देता है. इस एक वाक्य को हम जानबूझकर अनदेखा कर देते हैं. सवाल यह भी है कि जब आप किसी चैनल या अखबार की कमान सम्हालते हैं तो क्या आप उनकी नीतियों को आगे बढ़ाते हैं या उनके ही खिलाफ खड़े हो जाते हैं? यह दौर भी था कभी लेकिन अखबारों में. टेलीविजन इंडस्ट्री में ऐसी कल्पना करना भी बेमानी है. आखिरकार लाखों की सेलरी और करोड़ों का इंवेस्टमेट्स का मेंटनेंस कैसे होगा? ये सब बातें हैं बातों का क्या? </p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>सबसे दुखद और डरावना पक्ष यह है कि 2022 और इसके पहले के वर्ष के मीडिया के चरित्र और व्यवहार को देखें तो मीडिया में आने वाले नए विद्यार्थियों को देखकर डर लगने लगता है. वे मानस बनाकर आ रहे हैं. उन्हें इसी मानस के साथ पढ़ाया जा रहा है. कोई चार दशक पहले जब हमने पत्रकारिता का ककहरा सीखना शुरू किया था तब पत्रकारिता का अर्थ था समाज की समस्याओं से रूबरू होना. किसी दुखी-पीडि़त पक्ष को न्याय दिलाना. तब हमें बताया गया था कि सभा-सम्मेलन में जाएं तो यह अपेक्षा ना करें कि विशिष्ठ मेहमान के रूप में आपकी आवभगत की जाए बल्कि आपको एक गिलास पानी के लिए भी ना पूछा जाए तो दुखी ना होइए. आज दौर उल्टा है. मीडिया से होने का अर्थ बताया जा रहा है कि आप विशिष्ट हैं और आपका आवभगत करना आयोजकों का नैतिक दायित्व है. ये जो पीढ़ी पराढकरजी, विद्यार्थीजी, माखनलाल चतुर्वेदी, तिलक, भगतसिंह, गांधी को पढक़र तो आ रही है लेकिन इनके आदर्श 2022 में रूपक मर्डोक हो गए हैं. पत्रकारिता दिल्ली नहीं देहात से शुरू होती है और मीडिया दिल्ली से शुरू होकर देहात तक जाती है. लेकिन 2022 ने दिल्ली की पत्रकारिता को ही माइलस्टोन बना दिया.</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>रूखे-सूखे और मुझ जैसे दीन-हीन पत्रकार के लिए पीटर भाटिया एक उम्मीद की तरह मेरे सामने हैं जो अपने साथियों की नौकरी बचाने के लिए खुद की नौकरी को दांव पर लगा देते हैं. अमेरिका के प्रमुख प्रकाशन ‘डेट्रायट फ्री प्रेस’ के सम्पादक और उपाध्यक्ष भाटिया ने इसलिये नौकरी छोडऩे का फैसला किया कि उन्हें जितनी सेलरी मिलती है, उससे दस साथियों की नौकरी बच सकती है. मीडिया कहें या पत्रकारिता क्या भारत में ऐसा कोई नायक सामने आएगा जो अपने साथियों की नौकरी की खातिर अपनी नौकरी दांव पर लगा दे? यू ट्यूब पर हिट्स, लाईक और कमाई गिनते बड़े पत्रकारों ने अपनी इस कमाई का कितना हिस्सा कोरोना में बेरोजगार होते साथियों पर खर्च किया, यह सवाल जाते-जाते 2022 पूछ रहा है. इसलिये तो कहता हंू कि आज भी मेरा पसंदीदा रंग काला है.</p>Manoj Kumarhttp://www.blogger.com/profile/07148316160659906464noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5788123601717760337.post-28119939764395147562022-12-16T19:13:00.004-08:002022-12-16T19:14:48.703-08:00 शिक्षा की नयी उड़ान : सीएम राइज स्कूल<p style="text-align: justify;"> <span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;">शिक्षा की नयी उड़ान : सीएम राइज स्कूल</span></p><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"><div style="text-align: justify;">मनोज कुमार</div></span><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"><div style="text-align: justify;">अनादिकाल से गुरुकुल भारतीय शिक्षा का आधार रहा है लेकिन समय के साथ परिवर्तन भी प्रकृति का नियम है. इन दिनों शिक्षा की गुणवत्ता पर चिंता करते हुए गुरुकुल शिक्षा पद्धति का हवाला दिया जाता है लेकिन वर्तमान परिस्थितियों में गुरुकुल नए संदर्भ और नयी दृष्टि के साथ आकार ले रहा है. सरकारी शब्द के साथ ही हमारी सोच बदल जाती है और हम निजी व्यवस्था पर भरोसा करते हैं. हमें लगता है कि सरकारी कभी असर-कारी नहीं होता है. इस धारणा को तोड़ते हुए मध्यप्रदेश में शिक्षा की गुणवत्ता के साथ नवाचार करने के लिए ‘सीएम राइज स्कूल’ सरकारी से ‘असरकारी’ होने की कल्पना के जल्द ही वास्तविकता की जमीन पर खड़ा होगा. शिक्षा की गुणवत्ता को ताक पर रखकर भौतिक सुविधाओं के मोहपाश में बांध कर ऊंची बड़ी इमारतों को पब्लिक स्कूल कहा गया. सरकारें भी आती-जाती रही लेकिन सरकारी स्कूल उनकी प्राथमिकता में नहीं रहा. परिवर्तन के इस दौर में मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने राज्य में ऐसे स्कूलों की कल्पना की जो प्रायवेट पब्लिक स्कूलों से कमतर ना हों. मुख्यमंत्री चौहान की इस सोच में प्रायवेट पब्लिक स्कूलों से अलग अपने बच्चों के सपनों को जमीन पर उतारने के साथ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देना है. इसी सोच और भरोसे की बांहें थामे मध्यप्रदेश के सुदूर गांवों से लेकर जनपदीय क्षेत्र में ‘सीएम राइज स्कूल’ की कल्पना साकार हो रही है.</div></span><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"><div style="text-align: justify;">वर्तमान में राज्य के स्कूलों पर नजर डालें तो एक बात स्पष्ट होती है कि पूर्ववर्ती सरकारों ने असंतोष को दूर करने के लिए स्कूलों की भीड़ लगा दी. किसी स्कूल में दो बच्चे तो किसी स्कूल में पांच और कहीं-कहीं तो महीनों से ताला डला है. कागज पर स्कूल चल रहे हैं लेकिन हकीकत में इन स्कूलों पर केवल बजट खर्च हो रहा है. ऐसे में एक बड़ी सोच के साथ शिवराजसिंह सरकार ने एक सर्वे करा कर यह तय किया कि फिलहाल एक लाख से ऊपर ऐसे स्कूलों को एकजाई कर ‘सीएम राइज स्कूल’ शुरू किया जाए. योजना के मुताबिक अभी 9200 ‘सीएम राइज स्कूल’ शुरू होंगे. 15 से 20 किलोमीटर की परिधि में संचालित होने वाले इन स्कूलों में शिक्षा का माध्यम हिन्दी और अंग्रेजी दोनों होगा. आवागमन की सुविधा के लिए सरकार बस और वैन की सुविधा भी दे रही है. बच्चों, खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चों को अकल्पनीय सुविधायें इस स्कूल में होगी. मसलन स्वीमिंग पूल, बैंकिंग काउंटर, डिजिटल स्टूडियो, कैफेटेरिया, जिम, थिंकिंग एरिया होगी जो अभी तक प्रायवेट पब्लिक स्कूल में भी ठीक से नहीं है. प्री-नर्सरी से हायर सेकंडरी की कक्षा वाले ‘सीएम राइज स्कूल’ आने वाले 2023 तक पूरे राज्य में शुरू हो चुके होंगे.</div></span><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"><div style="text-align: justify;">उल्लेखनीय है कि प्रदेश के बच्चे पढ़ाई के मामले में सीबीएसई और आईसीएसई बोर्ड के बच्चों से मुकाबला कर सकें, इसलिए सरकार प्रत्येक स्कूल पर 20 करोड़ रुपये से अधिक खर्च करेगी. योजना के अनुरूप स्कूल चार स्तर (संकुल से नीचे, संकुल, ब्लॉक और जिला) पर तैयार होंगे। इन स्कूलों में बच्चों को ड्रेस कोड भी निजी स्कूलों जैसा रखने की योजना है. वर्तमान में सरकारी स्कूलों में पढ़ा रहे शिक्षकों में से ही सीएम राइज स्कूलों के लिए शिक्षकों का चयन होगा, पर उन्हें लंबी चयन परीक्षा से गुजरना पड़ेगा. लिखित और मौखिक परीक्षा के अलावा जिस कक्षा के लिए उनका चयन होना है, उसमें पढ़ाकर भी दिखाना होगा ताकिसुनिश्चित किया जा सके कि योग्य शिक्षक का चयन हुआ है. उन्हें विधिवत नियुक्ति दी जाएगी. इन स्कूलों में पढ़ाने के लिए शिक्षकों को परीक्षा देनी होगी और उन्हें नियमित शिक्षकों की तुलना में ज्यादा वेतन दिया जाएगा. शिक्षकों को स्कूल परिसर में ही मकान भी मिलेगा, ताकि उनके अप-डाउन में उलझने से बच्चों की पढ़ाई प्रभावित न हो. जैसे ही ये स्कूल खुलेंगे, सरकारी स्कूलों की परंपरागत पढ़ाई से इतर नए तरीके से पढ़ाई कराई जाएगी.</div></span><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;"><div style="text-align: justify;">स्कूल शिक्षा विभाग के मानक के अनुरूप निजी स्कूलों की तरह व्यवस्थित भवन और अन्य जरूरी सुविधाएं, हर विद्यार्थी के लिए परिवहन सुविधा, नर्सरी एवं केजी कक्षाएं, शिक्षकों एवं अन्य स्टाफ के सौ फीसद पद भरे जाएंगे, स्मार्ट क्लास एवं डिजिटल लर्निंग, प्रयोगशालाएं, पुस्तकालय, व्यावसायिक शिक्षा के साथ नए भवनों में स्वीमिंग पूल, खेल सुविधाएं, संगीत कक्षाएं भी रहेंगी. सीएम राइस स्कूल योजना के प्रथम चरण में 259 स्कूल खोले जाएंगे. इनमें से 253 स्कूल शिक्षा विभाग द्वारा और 96 स्कूल आदिम जाति कल्याण विभाग द्वारा खोले जाएंगे. सी.एम. राइज स्कूल की संरचना के अनुरूप जिला स्तर पर प्रत्येक जिले में एक अर्थात कुल 52 सी.एम. राइज स्कूल होंगे, जिसमें प्रति स्कूल 2000 से 3000 विद्यार्थी होंगे. विकास खंड स्तरीय 261 स्कूल होंगे, जिनमें प्रति स्कूल 1500 से 2000 विद्यार्थी होंगे. इसी प्रकार संकुल स्तरीय 3200 स्कूल होंगे, जिनमें प्रति स्कूल 100 से 1500 विद्यार्थी होंगे. ग्रामों के समूह स्तर पर 5687 सी.एम.राइस स्कूल होंगे, जिनमें प्रति स्कूल 800 से 1000 विद्यार्थी होंगे. कैबिनेट ने इस योजना के प्रथम चरण के लिए 6952 करोड़ की मंजूरी दे दी है. राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के मानक के अनुरूप सीएम राइज स्कूल में कौशल विकास को प्राथमिकता दी जाएगी. डिग्री के स्थान पर बच्चों को रोजगारपरक शिक्षा देेने पर जोर होगा. नैतिक मूल्यों की शिक्षा देकर उन्हें भारतीयता से जोड़ा जाएगा. स्वयं मुख्यमंत्री शिवराजसिंह के अनुसार इन स्कूलों का मुख्य उद्देश्य बच्चों को ज्ञान, कौशल और नागरिकता के संस्कार देना है। साथ ही, भारतीय संस्कृति और संस्कारों की शिक्षा देना है। स्कूली शिक्षा में बहुविध गतिविधियों के सूर्योदय की उम्मीद के साथ सीएम राइज स्कूल जमीनी तौर पर जल्द ही काम करने लगेंगे</div></span>Manoj Kumarhttp://www.blogger.com/profile/07148316160659906464noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5788123601717760337.post-73505379388688206582022-12-14T21:28:00.001-08:002022-12-14T21:28:10.466-08:00<p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhXIon37XIkAAVw91vfWTvms_CEZ15Rdu-P7Gv3X3gxByZwmpfER_8n94ILqjuprLTteodb3vRf_ZPH5IpOIqxmVRrf_RkR_fCAibjYh7NEsIzv1pBYDB-GOlfskXYQkkBO59mmfDtKG4__Kc3PeziwIwnTjLtjOPa0ULFc6hgA7gqBt8TtLYzss_nawA/s3160/Samagam-Cover%20Dec.22.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3160" data-original-width="2185" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhXIon37XIkAAVw91vfWTvms_CEZ15Rdu-P7Gv3X3gxByZwmpfER_8n94ILqjuprLTteodb3vRf_ZPH5IpOIqxmVRrf_RkR_fCAibjYh7NEsIzv1pBYDB-GOlfskXYQkkBO59mmfDtKG4__Kc3PeziwIwnTjLtjOPa0ULFc6hgA7gqBt8TtLYzss_nawA/s320/Samagam-Cover%20Dec.22.jpg" width="221" /></a></div><br /><p></p>Manoj Kumarhttp://www.blogger.com/profile/07148316160659906464noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5788123601717760337.post-89754295043640100442022-12-03T01:35:00.000-08:002022-12-03T01:35:04.269-08:00 ‘इंडियन रॉबिन हुड’ यानि वीर सिपाही टंट्या मामा <p style="text-align: justify;"><br /></p><p style="text-align: justify;">मनोज कुमार</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span> हम आजादी के 75वां वर्ष का उत्सव मना रहे हैं तब ऐसे अनेक प्रसंग से हमारी नयी पीढ़ी को रूबरू कराने का स्वर्णिम अवसर है। मध्यप्रदेश ऐसे जाने-अनजाने सभी वीर योद्धाओं का स्मरण कर आजादी के 75वें वर्ष को यादगार बना रहा है। खासतौर पर उन योद्वाओं का जिन्होंने अपने शौर्य से अंग्रेजी सेना को नेस्तनाबूद कर दिया। ऐसे में वीर योद्धा टंट्या भील को हम टंट्या मामा के नाम से संबोधित करते हैं, वह सदैव हमारे लिये अनुकरणीय रहे हैं। यह हिन्दुस्तान की माटी है जहां हम अपने योद्धाओं का हमेशा से कृतज्ञ रहे हैं। ऐसे में टंट्या मामा का स्मरण करते हुए हम गर्व से भर उठते हैं कि वीर योद्धा टंट्या मामा की वीरता को सलाम करने के लिए पातालपानी रेल्वे स्टेशन से गुजरने वाली हर रेलगाड़ी के पहिये कुछ समय के लिए आज भी थम जाता है। जनपदीय लोक नायकों का स्मरण तो हम समय-समय पर करते हैं लेकिन वीर योद्धा टंट्या मामा को प्रतिदिन स्मरण करने का यह सिलसिला कभी थमा नहीं, कभी रूका नहीं। </p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>स्वाधीनता का 75वां वर्ष पूरे राष्ट्र का उत्सव है। एक ऐसा उत्सव जो हर पल इस बात का स्मरण कराता है कि ये रणबांकुरे नहीं होते तो हम भी नहीं होते। गुलामों की तरह हम मरते-जीते रहते लेकिन दूरदर्शी लोकनायकों ने इस बात को समझ लिया था और स्वयं की परवाह किये बिना भारत माता को गुलामी की बेडिय़ों से आजाद करने के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। हमारा इतिहास ऐसे वीर ही नायकों की कथाओं से लिखा गया है। इतिहास का हर हर्फ हमें गर्व से भर देता है कि हम उस देश के वासी हैं जहां अपने देश के लिए मर-मिटने वालों का पूरा समाज है। ऐसे वीर नायकों का स्मरण करते हुए हम पाते हैं कि स्वाधीनता संग्राम में जनजातीय समाज के वीर नायकों की भूमिका बड़ी है लेकिन जाने-अनजाने उन्हें समाज के समक्ष लाने का कोई गंभीर प्रयास नहीं किया गया। आजादी के इस 75वें वर्ष में देश ऐसे ही वीर नायकों का स्मरण कर रहा है। कोई भी वीर शहीद किसी भी क्षेत्र या राज्य का हो लेकिन उसकी पहचान एक भारतीय की रही है। बिरसा मुंंडा से लेकर टंट्या भील हों या गुंडाधूर। इन सारे वीर जवानों ने कुर्बानी दी तो भारत माता को गुलामी की बेडिय़ों से आजाद करने के लिए। यह सुखद प्रसंग है कि देश का ह्दय प्रदेश कहे जाने वाला मध्यप्रदेश ऐसे सभी चिंहित और गुमनाम जनजाति समाज के वीर योद्धाओं को प्रणाम कर उन्हें स्मरण कर रहा है। मध्यप्रदेश की कोशिश है कि नयी पीढ़ी ना केवल अपने स्वाधीनता के इतिहास को जाने बल्कि अनाम शहीदों के बारे में भी अपनी जानकारी पुख्ता करे। </p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>मध्यप्रदेश के लिए यह गौरव की बात है कि 4 दिसम्बर को जननायक टंट्या मामा के बलिदान दिवस पर हम सब स्मरण कर रहे हैं। यह उल्लेख करना भी गर्व का विषय है कि अविभाजित मध्यप्रदेश सहित सम्पूर्ण मध्यप्रदेश में ऐसे वीर शहीदों की लम्बी सूची है जिन्होंने स्वाधीनता संग्राम को स्वर्णिम बनाया। ‘इंडियन रॉबिन हुड’ के नाम से चर्चित टंट्या मामा की वीरता की कहानी का कालखंड है 1878 से लेकर 1889 का जब अंग्रेजों ने उन्हें एक अपराधी के रूप में प्रचारित किया। टंट्या को उन क्रांतिकारियों में से एक के रूप में जाना जाता है, जिन्होंने 12 साल तक ब्रिटिश शासन के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष किया था। रिपोर्टों में कहा गया है कि वह ब्रिटिश सरकार के खजाने और उनके अनुयायियों की संपत्ति को गरीबों और जरूरतमंदों में बांटने के लिए लूटता था। इन आंदोलनों से बहुत पहले आदिवासी समुदायों और तांत्या भील जैसे क्रांतिकारी ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह का झंडा बुलंद किया था। वह आदिवासियों और आम लोगों की भावनाओं के प्रतीक बन गए। लगभग एक सौ बीस साल पहले तांत्या भील जनता के एक महान नायक के रूप में उभरा और तब से भील जनजाति का एक गौरव बन चुका है। उन्होंने अदम्य साहस, असाधारण चपलता और आयोजन कौशल का प्रतीक बनाया। टंट्या भील का वास्तविक नाम तांतिया था, जिन्हे प्यार से टंट्या मामा के नाम से भी बुलाया जाता था। उल्लेखनीय है कि टंट्या भील की गिरफ्तारी की खबर न्यूयॉर्क टाइम्स के 10 नवंबर 1889 के अंक में प्रमुखता से प्रकाशित हुई थी। इस समाचार में उन्हें ‘भारत के रॉबिन हुड’ के रूप में वर्णित किया गया था।</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>इतिहासकारों के अनुसार खंडवा जिले की पंधाना तहसील के बडदा में सन् 1842 के करीब भाऊसिंह के यहां टंट्या का जन्म हुआ था। कहते हैं कि टंट्या का मतलब झगड़ा या संघर्ष होता है और टंट्या के पिता ने उन्हें ये नाम दिया था, क्योंकि वे आदिवासी समाज पर हो रहे जुल्म का बदला लेने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। बचपन में ही तीर कमान, लाठी और गोफल चलाने में पारंगत हो चुके टंट्या ने जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही जमींदारी प्रथा के खिलाफ अंग्रेजों से लोहा लेना शुरु कर दिया था। इंडियन रॉबिनहुड टंट्या भील, जिन्होंने अंग्रजों के छक्के छुड़ा दिए थे। सन् 1870 से 1880 के दशक में तब के मध्य प्रांत और बंबई प्रेसीडेंसी में टंट्या भील ने 1700 गांवों में अंग्रेजों के खिलाफ समानांतर सरकार चलाई थी। तब महान क्रांतिकारी तात्या टोपे ने टंट्या से प्रभावित होकर उन्हें छापामार शैली में हमला बोलने की गौरिल्ला युद्धकला सिखाई थी। इसके बाद टंट्या ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे। जनश्रुति के अनुसार मान्यता थी कि मामा टंट्या के राज में कोई आदिवासी भूखा नहीं सो सकता। टंट्या से मुंह की खा रहे अंग्रेजों को टंट्या से लडऩे के लिए ब्रिटिश सेना की खास टुकड़ी भारत बुलानी पड़ी थी। हालांकि टंट्या को ब्रिटिश सेना ने धोखे से गिरफ्तार कर लिया था।</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>इतिहासकारों के अनुसार 11 अगस्त सन् 1889 को रक्षाबंधन के दिन जब टंट्या अपनी मुंहबोली बहन से मिलने पहुंचे थे तो उसके पति गणपतसिंह ने मुखबिरी कर उन्हें पकड़वा दिया था। जबलपुर में अंग्रेजी सेशन कोर्ट ने 19 अक्टूबर को टंट्या को फांसी की सजा सुना दी थी। उन्हें 4 दिसम्बर 1889 को फांसी दी गई। ब्रिटिश सरकार भील विद्रोह के टूटने से डरी हुई थी। आमतौर पर यह माना जाता है कि उसे फांसी के बाद इंदौर के पास खंडवा रेल मार्ग पर पातालपानी रेलवे स्टेशन के पास फेंक दिया गया था। जिस स्थान पर उनके लकड़ी के पुतले रखे गए थे, वह स्थान तांत्या मामा की समाधि मानी जाती है। आज भी सभी ट्रेन टंट्या मामा के सम्मान में ट्रेन को एक पल के लिए रोक देते हैं।</p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>ऐसे वीर जवानों के लिए कृतज्ञ मध्यप्रदेश उनकी यादों को चिरस्थायी बनाने के लिए प्रयासरत है। इस सिलसिले में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सोमवार को घोषणा की है कि इंदौर में पातालपानी रेलवे स्टेशन का नाम बदलकर टंट्या भील के नाम पर रखा जाएगा। साथ ही इंदौर बस स्टैंड का नाम टंट्या मामा के नाम पर रखा जाएगा। यह पहल इस मायने में महत्वपूर्ण है कि हर आयु वर्ग के लोगों को यह स्मरण आता रहे कि हमें आजादी दिलाने के लिए ऐसे महान योद्धाओं ने अपने जीवन का उत्र्सग किया। टंट्या मामा जैसे सभी वीर योद्धाओं को हम नमन करते हैं।</p>Manoj Kumarhttp://www.blogger.com/profile/07148316160659906464noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5788123601717760337.post-56421829430425710792022-04-23T06:44:00.001-07:002022-04-23T06:44:23.349-07:00 खादी और गांधी पहले से ज्यादा प्रासंगिक हो रहे हैं-रघु ठाकुर<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhz2BPKTGp40HuB998v2V0TxrPHnI8DqKJPS9RGv6K7uDrD1Np2gLybIF5OiSDtxEaGF2o_iNgos3epCx1y_KMD6oNgiz7YH2Xn_fPIldDxNtHy9IaGOGHGNdCi2jhh2SXLoszMYVPqG3k50ceVhpOsdWokM-HVc123EClBrZP5C-vfBBlaEVw0rAkt0A/s1600/Swraj-1.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="720" data-original-width="1600" height="144" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhz2BPKTGp40HuB998v2V0TxrPHnI8DqKJPS9RGv6K7uDrD1Np2gLybIF5OiSDtxEaGF2o_iNgos3epCx1y_KMD6oNgiz7YH2Xn_fPIldDxNtHy9IaGOGHGNdCi2jhh2SXLoszMYVPqG3k50ceVhpOsdWokM-HVc123EClBrZP5C-vfBBlaEVw0rAkt0A/s320/Swraj-1.jpeg" width="320" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgimp5Hev6wBix-fM2iGJfzXnqY2wgu2_X_xEyJsZZvjnpROOR0878m34X26lthHXsbv_-1y-PPLmr-YZt9Tp8NtqnvXz3HGUXsBS0wo1NDjlrhqHpa8v5S1uNphMHYDUAqQEyvLV7FHwrJqAmd0wyd8U5FQSRkX92_orEbQ4qJ8R5hYvVSeVOYGqt8qQ/s1280/Swraj%2023%20April.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="643" data-original-width="1280" height="161" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgimp5Hev6wBix-fM2iGJfzXnqY2wgu2_X_xEyJsZZvjnpROOR0878m34X26lthHXsbv_-1y-PPLmr-YZt9Tp8NtqnvXz3HGUXsBS0wo1NDjlrhqHpa8v5S1uNphMHYDUAqQEyvLV7FHwrJqAmd0wyd8U5FQSRkX92_orEbQ4qJ8R5hYvVSeVOYGqt8qQ/s320/Swraj%2023%20April.jpeg" width="320" /></a></div><br /><p style="text-align: justify;"><br /></p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>भोपाल। ‘खादी केवल वस्त्र नहीं बल्कि वह अनेक आयामों से जुड़ा हुआ है. जैसे जैसे समय गुजरता जा रहा है, वैसे वैसे खादी और गांधी अधिक प्रासंगिक होते जा रहे हैं. यह बात श्री रघु ठाकुर आज स्वराज भवन में शोध पत्रिका समागम द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में कही. उन्होंने कहा कि खादी की ताकत थी कि अंग्रेजों को नतमस्तक होना पड़ा. स्वाधीनता संग्राम में खादी की भूमिका विषय पर उनका कहना था कि खादी के उत्पादन एवं उपयोग को बढ़ावा देकर गांधीजी ने अंग्रेजों को आर्थिक नुकसान पहुंचाया था. इस अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश£ेषक श्री गिरिजाशंकर ने कहा कि आज बाजार में उत्पाद बेचते समय इस बात पर जोर दिया जाता है कि यह घर का बना है. अर्थात मशीनों के उत्पाद से किनारा किया जा रहा है. उन्होंने कहा कि खादी और गांधी सदैव प्रासंगिक बने रहेंगे. इस अवसर पर इतिहास लेखक श्री घनश्याम सक्सेना ने अपने पुराने दिनों का स्मरण किया कि कैसे उनका खादी और गांधी से परिचय हुआ. उन्होंने खादी के अर्थशास्त्र को समझाते हुए अनेक किताबों का उल्लेख भी किया. संगोष्ठी में ‘समागम’ का खादी पर एकाग्र अंक का लोकार्पण अतिथि वक्ताओं ने किया। </p><p style="text-align: justify;"><span style="white-space: pre;"> </span>राष्ट्रीय संगोष्ठी के दूसरे सत्र में स्वदेशी विचार, खादी संस्कार पर रोजगार निर्माण के संपादक श्री पुष्पेन्द्रपाल सिंह ने कहा कि खादी का संबंध अर्थ, मानवता, पर्यावरण एवं आत्मनिर्भरता से जुड़ा हुआ है. उन्होंने कहा कि विषमता के खिलाफ खादी एक सूत्र की तरह गांधी जी हमें दे गए हैं. इस अवसर प्रो. दिवाकर शुक्ला ने खादी के संदर्भ में अपने बचपन को याद करते हुए कहा कि एक बार उन्हें गांधीजी पर निबंध लिखना था. इस बारे में अपने ताऊजी श्रीलाल शुक्ल से मदद चाही तो उन्होंने एक सवाल के साथ गांव वालों से चर्चा करने भेज दिया. इस बातचीत के निष्कर्ष से जो तैयार हुआ, वह स्वदेशी अवधारणा को पुष्ट करता है. कार्यक्रम का संचालन देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर की मीडिया विभाग की प्रमुख डॉ. सोनाली नरगुंदे ने किया. आभार प्रदर्शन संपादक मनोज कुमार ने किया.</p>Manoj Kumarhttp://www.blogger.com/profile/07148316160659906464noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5788123601717760337.post-10783473884201384112022-04-16T10:11:00.002-07:002022-04-16T10:11:12.774-07:00<p> खादी पर राष्ट्रीय संगोष्ठी 23 को आयोजित</p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgkhFO0Jy19EFutYSWlhWL5__7OD-g7boZsgUlVi6Cb39ph0XLwuu6cjFQ6Rn8hcJZUYWimtOWOY8bfzmarJtnJ5aYa6oSxWSFGQXQEPEXUvPky8AwlJdckJmj0u37hDM9-qYlDZFy715n2lQ6XRuBZBPQd804S81vSyD2STKsr218J5zSHlX8t5lGHXg/s1870/Seminar%20Samagam%202022%20F.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1251" data-original-width="1870" height="214" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgkhFO0Jy19EFutYSWlhWL5__7OD-g7boZsgUlVi6Cb39ph0XLwuu6cjFQ6Rn8hcJZUYWimtOWOY8bfzmarJtnJ5aYa6oSxWSFGQXQEPEXUvPky8AwlJdckJmj0u37hDM9-qYlDZFy715n2lQ6XRuBZBPQd804S81vSyD2STKsr218J5zSHlX8t5lGHXg/s320/Seminar%20Samagam%202022%20F.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">भोपाल। आजादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर ‘स्वाधीनता संग्राम में खादी की भूमिका एवं ‘स्वदेशी विचार एवं खादी संस्कार पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन आगामी 23 अप्रेल, 2022 को स्वराज भवन सभागार में किया जा रहा है. इस राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन दो दशक से निरंतर प्रकाशित शोध पत्रिका ‘समागम’ द्वारा किया जा रहा है. इस आयोजन में वक्ता के रूप में समाजवादी चिंतक श्री रघु ठाकुर, राजनीतिक विश्लेषक श्री गिरिजाशंकर, इतिहासकार श्री घनश्याम सक्सेना, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. केजी सुरेश, टैगोर विश्वविद्यालय के कुलाधिपति श्री संतोष चौबे एवं रोजगार निर्माण के संपादक श्री पुष्पेन्द्रपाल सिंह होंगे ‘समागम’ के साथ पत्रकारिता विभाग, देवी अहिल्या विवि इंदौर एवं राजनीतिक विज्ञान विभाग, कला वरिष्ठ महाविद्यालय, औरंगाबाद का सहयोग है. इस मौके पर खादी पर केन्द्रित ‘समागम’ का अंक ‘कहानी खादी की’ का लोकार्पण भी किया जाएगा. संपादक श्री मनोज कुमार ने बताया कि खादी को लेकर आजादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर संभवत: यह पहला विमर्श होगा.</div><p></p>Manoj Kumarhttp://www.blogger.com/profile/07148316160659906464noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5788123601717760337.post-33165948726030956762022-02-07T21:39:00.002-08:002022-02-07T21:39:18.415-08:00शोध पत्रिका ‘समागम’ का नवीन अंक लताजी को समर्पित<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi7KB1mWpH6vgC0MkpJ9QTopi90WTH3rKvLh_W5bilHG9EjVfw0GwW-nregi-i4BRompO19Mlx8_e4fnHSP3PgQU_mEjdwzKrW15rUYe0DqTDd9boQ8zcHhr-BdCf5wMU4LYrXOLmq5QmuWas9kZCRwBlZqr9cWuQMk36BD_oQfgkmhY8MgrCweyvMrIQ/s3132/Samagam Cover Feb 22.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3132" data-original-width="2188" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi7KB1mWpH6vgC0MkpJ9QTopi90WTH3rKvLh_W5bilHG9EjVfw0GwW-nregi-i4BRompO19Mlx8_e4fnHSP3PgQU_mEjdwzKrW15rUYe0DqTDd9boQ8zcHhr-BdCf5wMU4LYrXOLmq5QmuWas9kZCRwBlZqr9cWuQMk36BD_oQfgkmhY8MgrCweyvMrIQ/s320/Samagam Cover Feb 22.jpg" width="224" /></a></div><br /><p></p><blockquote style="border: none; margin: 0px 0px 0px 40px; padding: 0px; text-align: left;"><p style="text-align: center;"> शोध पत्रिका ‘समागम’ का नवीन अंक लताजी को समर्पित</p><p style="text-align: center;">लताजी पर कुछ लिखना सूरज को दीया दिखाने जैसा है. एक आवाज जिन्हें हम सालों से गाते रहे हैं और सदियों तक गुनगुनाते रहेंगे. दुख इस बात का है कि शोध पत्रिका ‘समागम’ अपने 22वें वर्ष का प्रथम अंक सिनेमा पर केन्द्रित कर रहा था लेकिन लताजी को समर्पित करते हुए हम मर्माहत हैं. प्रकृति के आगे हम नतमस्तक हैं. एक पुष्प के रूप में लताजी के श्रीचरणों में शोध पत्रिका ‘समागम’ का अंक समर्पित है. </p></blockquote><p> </p><div><br /></div>Manoj Kumarhttp://www.blogger.com/profile/07148316160659906464noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5788123601717760337.post-8827501696210053802022-02-06T00:31:00.002-08:002022-02-06T00:31:12.289-08:00 6 फरवरी, लता और प्रदीप यादों का सिलसिला<p style="text-align: justify;"><span style="color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;">मनोज कुमार</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;">संगीत के दुनिया के कवि प्रदीप और लताजी दो ऐसे सितारे हैं जो कभी अस्त नहीं होते हैं। 6 फरवरी भारतीय संगीत की दुनिया में बेमिसाल तारीख के रूप में याद किया जाएगा। यह तारीख 2022 के पहले अमर गीतकार प्रदीप के नाम पर था जो आज के दिन ही जन्मे थे तो यह तारीख हर साल मन को पीड़ा देती रहेगी कि इस दिन लताजी हमसे जुदा हुई थी। ‘ऐ मेरे वतन के लोगों.. जरा आंख में भर लो पानी...’ प्रदीप की अमर रचना थी तो लताजी की आवाज ने उसे चिरस्थायी बना दिया था। आज हमारे बीच ना प्रदीप रहे और ना लता जी लेकिन हर पल वे हमारे बीच बने रहेंगे। खैर, अब उन बातों का स्मरण करते हैं जिन्होंंने ‘लतिका’ से लता बनी।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"><span style="white-space: pre;"> </span>लता मंगेशकर के बारे में इतना कुछ लिखा गया, बोला गया और सुना गया कि अब कुछ शेष नहीं रह जाता है। संगीत की दुनिया से इतर लताजी अपने पीछे जो अपनों के लिए अपनापन छोड़ गईं हैं, उन पर लिखना शेष है। लता जी का बचपन किन संकटों से गुजरा और कैसे उन्होंने यह मुकाम पाया, इसकी कहानी भी अनवरत लिखी गई है लेकिन लोगों को यह बात शायद याद में ना हो कि लता ने जिस शिद्दत के साथ अपनी हर सांस संगीत को समर्पित कर दिया था, उसी शिद्दत के साथ अपने जीवन का हर पल अपने परिवार को समर्पित कर दिया था। लताजी के स्वर को लेकर हम अभिमान से भर जाते हैं तो एक सबक वे हमें यह भी सिखाती हैं कि परिवार के लिए क्या कुछ करना पड़ता है। गायक संगीतकार पिता दीनानाथ मंगेश्कर के निधन के बाद घर की बड़ी होने के नाते उन पर पूरे परिवार की जवाबदारी थी। छोटी उम्र में उन्होंने इस जिम्मेदारी को अपने सिर पर लेकर पूरा करने में जीवन खपा दिया।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"><span style="white-space: pre;"> </span>लता देश की आवाज थीं, यह सबको मालूम है लेकिन उनका सफर कितना कठिन था, यह बहुत कम लोगों को मालूम होगा। कामयाब शख्स के गीत सभी गाते हैं लेकिन उनके संघर्षों की कहानी उनकी अपनी होती है। एक नामालूम सी गायिका के रास्ते में अनेक रोड़े आए। उनके आत्मविश्वास को डिगाने और हिलाने के लिए भी कोशिशें होती रही लेकिन लता चट्टान सी खड़ी रहीं। आरंभिक दिनों में नकराने और खारिज करने का दंश भी लता को झेलना पड़ा था लेकिन धुन की पक्की लता धुनी बनकर संगीत की दुनिया में अमर आवाज बन गईं और वे हमेशा देश की आवाज बनी रहेंगी।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"><span style="white-space: pre;"> </span>साल 1929 के सितम्बर माह की 28 तारीख को गायक-संगीतकार के घर पैदा हुई बड़ी बेटी हेमा। हेमा से लता बन जाने की कहानी भी रोचक है। मराठी ड्रामा कंपनी के संचालक दीनानाथ मराठी नाटक ‘भाव बंधन’ में लतिका नामक किरदार से प्रभावित होकर हेमा का नाम बदलकर लता कर दिया। इसी लता को शायद अपने पिता से भय था और कहीं आत्मविश्वास की कमी के चलते वह पांच वर्ष तक अपने पिता के सामने गाने छिपती रही लेकिन एक दिन पिता के कानों में लता का मधुर स्वर मिसरी की तरह घुल गया। उन्होंने तय कर लिया कि कल से मैं लता को गायन सिखाऊंगा। कहते हैं कि लता सिर्फ दो दिनों के लिए स्कूल गईं लेकिन संगीत की सम्पूर्ण शिक्षा घर पर ही हुई। लता ने अपना पहला गाना 16 दिसम्बर, 1941 को रेडियो प्रोग्राम के लिए रिकार्ड किया। करीब 4 महीने बाद पिता का देहांत 24 अप्रेल, 1942 को हो गया। इसके साथ ही लता एकाएक बड़ी हो गईं। परिवार की पूरी जिम्मेदारी उनके कंधों पर थी। साथ में तीन बहनें और एक भाई के साथ मां की जवाबदारी। हालांकि इस बीच उनके लिए रिश्ते आने लगे थे लेकिन कम उम्र में सयानी हो चुकी लता ने रिश्ते से इंकार कर दिया क्योंकि ऐसा नहीं करती तो परिवार की देखभाल कौन करता। फिर तो जिंदगी का पूरा सफर उन्होंने अकेले तय किया। घर की जरूरतों को पूरा करने के लिए फिल्म में अभिनय करने लगी लेकिन जल्द ही उन्हें अहसास हो गया कि वे अभिनय के लिए नहीं बनी हैं। </span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"><span style="white-space: pre;"> </span>25 रुपये का मानदेय लताजी के जीवन की सबसे बड़ी पूंजी थी जो उन्हेंं स्टेज पर गाने के एवज में पहली बार मिला था। मराठी फिल्म ‘पहली मंगलागौर’ में 13 वर्ष की उम्र में पहली दफा गाना गाया। जूझते हुए अपना मुकाम बनाते हुए लता के जीवन के 18वें वर्ष में एक नया मोड़ आता है जब गुलाम हैदर साहब उनकी आवाज से प्रभावित होकर शशधर मुखर्जी से मिलवाते हैं लेकिन मुखर्जी ने लता की आवाज को पतली कहकर खारिज कर दिया। यह और बात है कि हैदर साहब ने ‘मास्टरजी’ में लता को पहला ब्रेक दिया। यह भी सुख लता के हिस्से में आया जब शशधर मुखर्जी ने अपनी गलती मानकर अनारकली और जिद्दी जैसे फिल्मों में अवसर दिया। मास्टर गुलाम हैदर एक तरह से फिल्म इंडस्ट्री में लता के गॉडफादर बने। हैदर साहब ने सिखाया हिन्दी-उर्दू सीखो और हमेशा फील कर गाओ तो अनिल बिस्वास ने सांस कब लेना और कैसे छोडऩा है। </span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"><span style="white-space: pre;"> </span>यह बात आम है कि लता, दिलीप कुमार को अपना भाई मानती थी लेकिन इसके पहले का एक किस्सा। लोकल टे्रन में सफर करते हुए दिलाप कुमार ने लता से पूछा था कि मराठी हो क्या? इस बात से उन्हें ठेस पहुंची और वे एक मौलाना से बकायदा उर्दू की तालीम हासिल की। अपने उसूलों की पक्की लता द्विअर्थी गाना गाने से परहेज किया। अनेक मौके ऐसे आये जब गीतकार को गीत के बोल बदलने पड़े तो कई बार उन्होंने गाने से मना कर दिया। राजकपूर जैसे को फिल्म संगम का गाना ‘मैं का करूं राम मुझे बुड्ढा मिल गया’ गाने के लिए घंटों मिन्नत करनी पड़ी। हालांकि राजकपूर के आग्रह पर गाया तो सही लेकिन कहा कि इसे मैंने मन से नहीं गाया। </span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"><span style="white-space: pre;"> </span>लता की शोहरत उनके जान की दुश्मन बन गई थी। 33 वर्ष की उम्र में उन्हें धीमा जहर दिया गया लेकिन आत्मविश्वासी लता अपनों के सहारे उठ खड़ी हुईं। हालांकि यह झूठ फैलाया गया कि वे अभी कभी गाना नहीं गा पाएंगी लेकिन डॉक्टरों ने ऐसा कभी नहीं कहा था। लताजी ने खुद इस बात का खुलासा करते हुए कहा था कि यह कृत्य करने वाला कौन था, पता चल गया था लेकिन सबूत के अभाव में कोई कार्यवाही नहीं कर पाए। यह वह दौर था जब मजरूह सुल्तानपुरी लता का दिल बहलाने के लिए शाम को उनके पास जाकर कविता सुनाया करते थे। इस जानलेवा आफत से मुक्त होने के बाद लताजी ने पहला गाना रिकार्ड किया-‘कहीं दीप जले और कहीं दिल...’ </span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"><span style="white-space: pre;"> </span>हेमा से लता बन जाने वाली लता हमेशा से भारतीय सभ्यता और संस्कृति की संवाहक बनी रही। उन्होंने अपने जीवनकाल में हजारों गीत गाये लेकिन एकमात्र विज्ञापन किया। उनकी प्रतिष्ठा संगीत की देवी के रूप में रही। यह संयोग देखिये कि ज्ञान की देवी मां सरस्वती की आराधना कर इस फानी दुनिया को उन्होंने अलविदा कहा। लता गीत गाती थीं, उनका गीत पूरा जमाना गाएगा। कवि प्रदीप के गीत ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ को सुनकर पंडित जवाहरलाल नेहरू उठकर खड़े हो गए थे और उन्होंने लता से कहा था-तुमने मुझे रूला दिया। आज यही गीत राष्ट्र की धरोहर बन चुका है।</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"><span style="white-space: pre;"> </span>लता मंगेशकर भारत रत्न हैं और यह सम्मान देकर भारत स्वयं को गौरवांवित महसूस होता है। भौतिक रूप से हम भरे मन से लताजी को अलविदा कह रहे हैं लेकिन जब तक सूरज चांद रहेगा, लता तेरा नाम रहेगा जैसे शब्द भी छोटे लगते हैं लेकिन कयामत तक लता को भुल पाना नामुमकिन होगा। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं शोध पत्रिका ‘समागम’ के संपादक हैं)</span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"> </span></p><p><span style="color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"><span style="background-color: white;"></span></span></p><p style="text-align: justify;"><span style="color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: x-small;"> </span></p><div style="text-align: justify;"><br /></div>Manoj Kumarhttp://www.blogger.com/profile/07148316160659906464noreply@blogger.com0