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मेरे अपने लोग
मनोज कुमार
तीस बरस एक लम्बा समय होता है। अनुभव की एक बड़ी लायब्रेरी होती है। एक ट्रेनी जर्नलिस्ट से संपादक बन जाने के सफर में अनेक नाम और अनाम लोगों का साथ मिला जो मुझे यहां तक पहुंचाने में मददगार रहे। इन सालों में मैंने हर डेस्क पर काम किया। पत्रकारिता के दिग्गजों में अनेक नाम हैं लेकिन इससे इतर उनकी तादात भी कम नहीं है जो संपादकीय विभाग के साथी तो नहीं थे लेकिन उनसे भी कमतर नहीं। इन सबको याद करते हुए मैं अपने पुराने दिनों में लौट जाना चाहता हूं।
बहरहाल, इस बारे में बातंे तफसील से करता हूं। गुुजरे दो दशक में पत्रकारिता का चेहरा बदल गया है। टेक्नॉलाजी ने विस्तार पा लिया है। अब हेंड कम्पोजिंग का जमाना गया। फोरमेन भी नहीं रहे जो आपके हाथों के लिखे पन्नों को देखकर बता दें कि कितने कॉलम की खबर होगी। जब हेंड कम्पोजिंग अथवा नये दौर में प्रवेश करते फोटो कम्पोजिंग की बात करें तो कुछ यादें साथ चलती हैं। पत्रकारिता के मेरे आरंभिक दिनों में लीलू भइया नाम के फोरमेन देशबन्धु में हुआ करते थे। उन्हें गुस्सा शायद आता ही नहीं था। वे कई दिग्गजों के साथ काम कर चुके थे। मेरे और मेरे साथ उस दौर में काम कर रहे साथियों के लिये वे उतना ही मायने रखते थे जितने कि हमारे वरिष्ठ पत्रकार। लीलू भइया पत्रकार नहीं थे, खबर भी लिखना नहीं जानते थे लेकिन उनकी समझ किसी भी दिग्गज पत्रकार से कम नहीं थी। वे सबकुछ जानते और समझते थे। किस खबर का क्या अर्थ है और वह ऐसे क्यों लिखी गयी है। जानने समझने के बाद भी वे कभी रिएक्ट नहीं करते थे। ऐसे लीलू भइया से सीखने के अनेक अवसर मिले। सम्मान देना तो कोई उनसे सीखे। उस समय मेरी उम्र कोई सत्रह बरस के आसपास होगी लेकिन कभी आप से नीचे का संबोधन नहीं दिया। गलतियां देखते तो आहिस्ता से बता देते। इस बात का कभी अहसास ही नहीं होने दिया कि वे अपरोक्ष रूप् से हमारे गुरू हैं। सच तो यह है कि पत्रकारिता का एक बड़ा पाठ सीखने का अवसर उनसे मिला। देशबन्धु के सम्पादक एवं स्वामी ललित सुरजन भी हमेशा उन्हें लीलू भइया कह कर ही पुकारते।

लीलू भइया के साथ द्वारिका भइया भी थे। दुलीचंद को भी नहीं भूल सकता। बुधारू नाईट शिफ्ट के प्रभारी थे। बुधारू शहर से दूर गांव से आते ओर हमेशा हड़बड़ी में रहते। हम जूनियर भी बुधारू से मजाक करते रहते। वह भी कभी बुरा नहीं मानते। हेमलाल भइया फोटो कम्पोजिंग के इंचार्ज थे। उन्होंने भी खूब सिखाया। मंडलवार और रामसिंह कम्पोजिंग डिपार्टमेंट के लोग थे और उनका साथ मेरे लिये खास मायने रखता है। शिव भी इन्हीं साथियों में एक थे किन्तु उनकी रूचि पढ़ने में थी और वे कम्पोजिंग विभाग से उबर कर किसी दूसरी नौकरी में चले गये। ये सारे लोग पत्रकारिता में मेरे आरंभिक दिनों के गुरुवर साथी थे।

कालूराम और जागेश्वर नाम के दो साथी और थे। उनका पद तो चपरासी का था लेकिन थे बहुत प्यारे। जागेश्वर को हमेशा आर्थिक तंगी रहती थी सो उसने एक नायाब ढंग निकाल लिया था। छह-आठ महीने के अंतराल में पत्नी की डिलवरी का आवेदन देता और अग्रिम पा लेता। कार्मिक विभाग को पहले पहल तो ध्यान नहीं गया लेकिन आखिर जागेश्वर बचता कहां तक? एक दिन पकड़ा गया। कार्मिेक अधिकारी विवेक भइया ने पूछ ही लिया क्यों भई तुम्हारे यहां हर छह माह में डिलवरी होती है क्या? कालूराम भी कुछ कम नहीं थे। हमारे साथ एक महिला पत्रकार का आगमन हुआ। वे उस दौर की शायद पहली आधुनिक पत्रकार थीं। नाम लेना उचित नहीं लगता इसलिये नाम नहीं दे रहा हूं। मिनी स्कर्ट और टी शर्ट में आना। कालूराम जब तब कभी कैंची तो कभी टेप लेकर उनकी सेवा में हाजिर। एक दिन मैंने टोक ही दिया क्यों भई कालू, उन्हीं को पूछोगे या हमें भी तो वह बड़े भोलेपन से कहता है-नई भइया, अइसे कोनो बात नहीं हावय, भगवान के दे ले मोरो घर एक झन डउकी हावय। टीवी पर पापड़ पोल देखते हुए सहसा कालूराम की याद आ जाती है।

देशबन्धु में काम करते हुए कभी लगा ही नहीं कि हम लोग किसी संस्था में काम कर रहे हैं। वेतन का तो पता नहीं होता था लेकिन किसी के परिवार में सुख हो या दुख, सारे लोग एकसाथ खड़े हो जाते थे। मैं भले ही संपादकीय विभाग का सदस्य था लेकिन कान खींचने का हक प्रसार और अकाउंट या अन्य किसी भी विभाग के वरिष्ठ सदस्य को था। दरअसल यह स्नेह ही देशबन्धु की ताकत थी। 1994 में मेरा देशबन्धु से नाता टूट गया और इन सालों में बहुत कुछ बदल गया। इन सबके बावजूद मुझे लगता है कि बुनियाद शायद आज भी मजबूत है। बहरहाल, ये लोग आज के दौर में भले ही असामयिक हो गये हों, गुमनाम हो गये हों किन्तु मैं और मेेरे जैसे अनेक लड़कों को पत्रकार बनाने में उनकी भूमिका अविस्मरणीय रहेगी। मैं इनमें से किसी को भी नहीं भूल सकता।

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