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अप्रैल 29, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

उम्मीद के मजदूर

मनोज कुमार     एक मई की तारीख कितने लोगों को याद है? बस, उन चंद लोगों के स्मरण में एक मई शेष रह गया है जो आज भी इस उम्मीद में जी रहे हैं कि एक दिन तो हमारा भी आएगा. वे यह भी जानते हैं कि वह दिन कभी नहीं आएगा लेकिन उम्मीद का क्या करें? उम्मीद है कि टूटती नहीं और हकीकत में उम्मीद कभी बदलती नहीं. एक वह दौर था जब सरकार की ज्यादती के खिलाफ, अपने शोषण के खिलाफ आवाज उठाने मजदूर सडक़ों पर चले आते थे. सरकार की दमनकारी नीतियों का विरोध करते हुये लाठी और गोली खाकर भी पीछे नहीं हटते लेकिन दुर्भाग्य देखिये. कैलेंडर पर जैसे-जैसे तारीख आगे बढ़ती गयी, मजदूर आंदोलन वैसे वैसे पीछे होता गया. अब तो मजदूर संगठनों की स्थिति निराशाजनक है. यह निराशा मजदूर संगठनों की सक्रियता की कमी की वजह से नहीं बल्कि कार्पोरेट कल्चर ने निराशाजनक स्थिति उत्पन्न की है.  मजदूर एकता जिंदाबाद के नारे सुने मुझे तो मुद्दत हो गये हैं. आपने शायद कभी सुना हो तो मुझेे खबर नहीं. भारत सहित समूचे विश्व के परिदृश्य को निहारें तो सहज ही ज्ञान की प्राप्ति हो जाएगी कि मजदूर नाम का यह शख्स कहीं गुम हो गया है.      कार्पोरेट सेक्टर के द