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जनवरी 22, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

टीआरपी की ख़बरों का मीडिया

मनोज कुमार जब समाज की तरफ से आवाज आती है कि मीडिया से विश्वास कम हो रहा है या कि मीडिया अविश्वसनीय हो चली है तो सच मानिए ऐसा लगता कि किसी ने नश्चत चुभो दिया है. एक प्रतिबद्ध पत्रकार के नाते मीडिया की विश्वसनीयता पर ऐसे सवाल मुझ जैसे हजारों लोगों को परेशान करते होंगे, हो रहे होंगे. लेकिन सच तो यह है कि वाकई में स्थिति वही है जो आवाज हमारे कानों में गर्म शीशे की तरह उडेली जा रही है. हम खुद होकर अपने आपको अविश्वसनीय बनाने के लिए तैयार कर रहे हैं. हमारी पत्रकारिता का चाल, चेहरा और चरित्र टीआरपी पर आ कर रूक गया है. हम सिर्फ और सिर्फ अधिकाधिक राजस्व पर नजरें गड़ाये बैठे हैं. शायद हम सरोकार की पत्रकारिता से पीछा छुड़ाकर सस्ती लोकप्रियता की पत्रकारिता कर रहे हैं. हमें जन से जुड़ी जनसरोकार की पत्रकारिता परेशान करती है जबकि हम उन खबरों को तवज्जो देने में आगे निकल गए हैं जो दर्शकों, पाठकों और श्रोताओं को कभी गुदगुदाती है तो कभी डराती है. कभी उनके भीतर बागी हो जाने का भाव भी भर जाती है तो कभी वह लालच में डूब जाने के लिए बेताब हो जाता है. उसे वह जिंदगी दिखाई जाती है जो सिर्फ टेलीविजन के परदे