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जिम्मेदारी का घड़ा और स्वच्छता की पहल

मनोज कुमार गर्मी की तपन बढऩे के साथ ही अनुपम मिश्र की याद आ गयी. उनके लिखे को एक बार फिर पढऩे का मन किया. उनको पढ़ते हुए मन में बार बार यह खयाल आता कि वे कितनी दूर की सोचते थे. एक हम हैं कि कल की भी सोच पाने में समर्थ नहीं है. तालाब आज भी खरे हैं, को पढ़ते हुए लगता है कि जिस राजधानी भोपाल में मैं रहता हूं, वह तो ताल और तलैया की नगरी है. इससे छलकता पानी बरबस हमें सम्मोहित कर लेता है लेकिन 25-30 किलोमीटर दूर चले जाने पर वही भयावह सूखा दिखता है. गर्मी की तपन के साथ ही सबसे पहले गले को चाहिए ठंडा पानी लेकिन जब मैंने पानी बचाया ही नहीं तो मुझे पानी मिलेगा कहां से? यह सोचते हुए मन घबरा जाता है. सोचता हूं कि मेरे जैसे और भी लोग होंगे. प्यासे और पसीने से तरबतर. ऐसेे में मुझे सहसा लाल कपड़ों में लिपटे घड़ों की याद आ जाती है. दूर से ही अपनी ओर बुलाती है. हर घड़ा कहता है आओ, अपनी प्यास बुझाओ. मैं बरबस उसकी तरफ खींचा चला जाता हूं. घड़े के भीतर से पानी का दो बूंद गले से उतरते ही जैसे मन खिल उठता है. ऐसा करते समय एक सवाल मन में उठता है. सवाल है कि घड़ा तो तपती दोपहरी में भी अपनी जिम्मेद