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जून 1, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

Sarkar aur Dar

सरकार के डरने का डर मनोज कुमार इन दिनों एक बात सुनियोजित ढ़ंग से स्टेबलिस करने की कोशिशें हो रही हैं कि सरकार डर रही है। सरकार के डर के पीछे के जो कारण बताये जा रहे हैं, उसकी मीमांसा अलग अलग ढ़ंग से हो रही है किन्तु कहीं भी कोइ्र भी, इसका तर्कपूर्ण जवाब नहीं दे पा रहा है। विवाद की स्थिति को निपटाने को सरकार का डर कहा जा रहा है तो इस पर कोई तर्क नहीं किया जा सकता है। एक लोकतांत्रिक सरकार का दायित्व होता है कि वह हर अवसर पर आगे आकर लोगों की सुने, समझे और एक सर्वमान्य हल निकालने की कोशिश करे। हाल-फिलहाल केन्द्र सरकार यही कर रही है और इसे सरकार के डरने की बात कही जा रही है। मेरे विचार से यह निरर्थक प्रयास है। सरकार तो सरकार होती है और डरने का शब्द उसकी डिक्शनरी में नहीं होता है और होना भी नहीं चाहिए। अक्सर होता यह है कि जो फैसले हमारी मर्जी के मुताबिक होते हैं, उन्हें हम सही फैसला मान लेते है किन्तु जब ऐसा नहीं होता है तो हम उस सरकार की कमजोरी मान लेते हैं। सरकार के डरने का शब्द सबसे पहले गढ़ा गया अन्ना हजारे के लोकपाल के मुद्दे को लेकर। सरकार ने पहल की और हजारे की बात सुनी और अपनी बात रखी