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अक्तूबर 23, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

हर नये शब्द में दा साथ होंगे

-मनोज कुमार राजनारायण मिश्र को आप जानते हंै? तब शायद ही कुछ लोगों का जवाब होगा हां किन्तु जब आप कहेंगे दा को जानते हैं तो शायद ना कहने वालों की संख्या गिनना मुश्किल सा हो जाए. यहां जो कुछ लिख रहा हूं, वह एक किस्म की जुर्रत कर रहा हूं. दा पर लिखने का मुझे कोई अधिकार नहीं है, यह बात मैं जानता हूं. मैं यह भी जानता हूं कि दा के बारे में मुझे कुछ भी नहीं मालूम क्योंकि जितने समय उनके आसपास रहा, सिवाय डांट डपट के कुछ नहीं मिला. उन्हें देखकर सहम जाना और कभी बच्चों की तरह उनके सामने जिद पर उतर जाने पर जो लाड़ मिला, उसे मैं कैसे भूला सकता हूं. सही मायने में यहां पर मैं दा के बारे में नहीं बल्कि दा के बहाने अपने आप पर ही कुछ लिख रहा हूं. बात यह कोई साल बयासी-तिरासी की है. मैं नगर निगम स्कूल का पढऩे वाला छात्र 11वीं की परीक्षा पास कर देशबन्धु से जुड़ गया. ईमानदारी से तब पत्रकार क्या होता है, यह बात पूरी तरह पता नहीं थी. पढऩे का शौक था, लिख लेता था और इससे आगे हैंडराइटिंग सुंदर थी, सो देशबन्धु में प्रवेश पा गया. अनजाने में पत्रकार तो बन गया लेकिन दा जैसे पत्रकारिता के स्कूल ने मुझे सही म