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सितंबर 23, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

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अब क्यों बात नहीं होती पीत पत्रकारिता की? मनोज कुमार लगभग एक दशक पहले पत्रकारिता का भेद हुआ करता था। एक पत्रकारिता होती थी सकरात्मक एवं दूसरा नकरात्मक जिसे हम हिन्दी में पीत पत्रकारिता और अंग्रेजी में यलो जर्नलिज्म कहा करते थे। बीते एक दशक में पत्रकारिता का यह फर्क लगभग समाप्त हो चला है। अब पीत पत्रकारिता की बात नहीं होती है। हैरत नहीं होना चाहिए कि इस एक दशक में आयी पत्रकारिता की पीढ़ी को इस पीत पत्रकारिता के बारे में कुछ पता ही नहीं हो क्योंकि जिस ढर्रे पर पत्रकारिता चल रही है और जिस स्तर पर पत्रकारिता की आलोचना हो रही है, उससे ऐसा लगने लगा है कि समूची पत्रकारिता ही पीत हो चली है। हालांकि यह पूरी तरह सच नहीं है और हो भी नहीं सकता और होना भी नहीं चाहिए। पत्रकारिता की इस फिलासफी के बावजूद यह बात मेरे समझ से परे है कि ऐसा क्या हुआ कि पत्रकारिता से पीत शब्द गायब हो गया। कहीं ऐसा तो नहीं कि समूची पत्रकारिता का शुद्विकरण हो गया हो और पूरी पत्रकारिता सकरात्मक भूमिका में उपस्थित दिखायी दे रही हो किन्तु यह भी नहीं है क्योंकि यदि ऐसा होता तो पत्रकारिता की आलोचना जिस गति से हो रही है, वह नहीं हो