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अप्रैल 28, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

इंकलाब जिंदाबाद

मनोज कुमार मजदूर हाशिये पर हैं। अब उनकी कोई बात नहीं करता। मजदूर कभी वोट बैंक नहीं माना गया तो बदलते दौर में मजदूरों की जरूरत भी बदल गयी। मजदूर किसे कहते हैं और मेहनतकश, यह भी अब लोगों को जानने की जरूरत नहीं रह गयी है। इस बार जब मई दिवस मनाया जा रहा है तब हिन्दुस्तान तख्तो-ताज का फैसला करने के लिये आमचुनाव के मुहाने पर खड़ा है। कभी इसी हिन्दुस्तान में मजदूरों के लिये, मेहनतकश लोगों के लिये राजनीतिक दल सडक़ पर उतर आते थे। आज किसी भी राजनीतिक दल के एजेंडे में मेहनतकश के लिये कोई जगह नहीं है। उनके पास मुद्दे हैं तो धर्म और महंगाई की, वे चुनाव में वायदे करते हैं बेहतर जिंदगी की लेकिन बेहतर कौन बनायेगा, इसका जवाब किसी के पास नहीं है। हालांकि देश की आजादी के साथ ही मेहनतकश लोगों की उन्नति का जिम्मा कम्युनिस्टों के कंधे पर रहा है। आज जिस संख्या में राजनीतिक दल मैदान में हैं, तब वैसा नहीं था। कांग्रेस पर पूंजीवादी को प्रश्रय देने का कथित रूप से ठप्पा लगा था तो जनसंघ की पहचान अपने हिन्दूवादी सेाच को लेकर थी। तब माकपा हो या भाकपा या इनकी सोच से मेल खाते दल ही बार बार और लगातार मेहनतकश के