-मनोज कुमार मैं बचपन से एक शब्द का उत्तर पाने की जुगत में लगा हुआ हूं लेकिन उम्र के पचास पर पहुंचने वाला हूं, किसी ने न तो संतोषजनक जवाब दिया और न ही मेरे सवाल के इर्द-गिर्द कुछ ऐसा लिखा पढऩे को मिले, जिसमें मेरे सवाल का जवाब हो। बहरहाल, मेरा सवाल है कि चुनाव के साथ लडऩा ही क्यों लगाया जाता है, जैसे कि चुनाव लड़ा जाएगा, चुनाव लड़ेगा, प्रत्याशी मैदान में उतारा जाएगा आदि-इत्यादि। इसका अर्थ तो यह हुआ कि चुनाव को लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अहम हिस्सा तो माना गया लेकिन चुनाव एक रूप में अपरोक्ष तौर पर युद्व है, इस बात से भी इंकार नहीं किया गया। हालांकि मैं यह भी सुनता हुआ आया हूं कि युद्व और प्रेम में सब कुछ जायज होता है और इस बात को मान लें तो चुनाव के दरम्यान जो कुछ होता है, वह गलत नहीं है। यहां तक कि अनैतिक भी नहीं क्योंकि जब चुनाव का स्वरूप ही अपरोक्ष रूप से युद्व का है और यहां जो कुछ घटेगा या घटता है, वह गलत नहीं है। ‘आखिरी वार, अबकी बार’ जैसे नारे चुनाव नहीं, युद्व का अहसास करा रहे थे। हाल ही में हमने पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव का अनुभव पाया है। एक पत्रकार के नाते चुना...
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