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अगस्त 31, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

गांधी और अण्णा की चुनौतियां अलग अलग

मनोज कुमार भारत देष में भ्रष्टाचार हमेषा से एक मुद्दा रहा है। समय समय पर इसके खिलाफ आवाज उठायी जाती रही है किन्तु यह आवाज व्यक्ति तक सीमित रहा है और यही कारण है कि इसका उतना प्रभाव देखने में नहीं मिला है। भ्रष्टाचार को भारतीय समाज में षिष्टाचार की संज्ञा दी गई है। इसके पीछे सोच यही थी कि भ्रष्टाचार नासूर बन गया है और इसका इलाज कोई नहीं कर सकता है। राजनीतिक दलों से यह अपेक्षा बहुत पहले ही खत्म हो गयी थी। स्वाधीनता प्राप्त कर लेने के कुछ सालों तक सत्ताधारी दलों से उम्मीद की जाती थी कि उनके मंत्री या सदस्यों पर लगाये गये आरोपों की जांच के बाद उनके खिलाफ कार्यवाही की जाएगी और यह उम्मीद बनी रही। राज्यों के विधानसभाओं में और लोकसभा में ऐसे उदाहरण देखने को मिल जाएंगे किन्तु आपातकाल के बाद सत्ता ने ऐसी करवट ली कि यह उम्मीद खत्म सी हो गयी है। सत्ताधारी दल अपने नेता और मंत्री के बचाव में सामने आने लगे हैं लोक मर्यादा की सारी सीमाओं को लांघ दिया गया। षायद यहीं-कहीं से भ्रष्टाचार को नाम मिला षिष्टाचार। पराधीनता से स्वाधीनता और स्वाधीन भारत के एक सदी की यात्रा के कुछ साल गुजर जाने के बाद भ्रष्ट