-मनोज कुमार
आमतौर पर हर पीढ़ी अपनी बाद वाली पीढ़ी से लगभग नाखुश रहती है। उसे लगता है कि उन्होंने जो किया वह श्रेष्ठ है। बाद की पीढ़ी का भविष्य न केवल चौपट है बल्कि इस पीढ़ी ने अपने से बड़ों का सम्मान करना भी भूल गयी है। यह शिकायत और चिंता लगभग बेमानी सी है। कल गुजर चुकी पीढ़ी के बारे में कुछ कहना ठीक नहीं होगा क्योंकि उनके साथ जीवन का अनुभव जुड़ा हुआ है किन्तु आज की युवा पीढ़ी के बारे में मैं कम से कम यह कह सकता हूं कि उनके बारे में की जा रही चिंता और शिकायत दोनों गैरवाजिब हैं। इस बात का अहसास मुझे किसी क्लास रूम में पढ़ाते वक्त नहीं हुआ और न किसी सेमीनार में बोलते समय। इस बात का अहसास मुझे भोपाल की सड़कों पर चलने वाली खूबसूरत बसों में सफर करते समय हुआ। दूसरे मुसाफिर की तरह मैं बस में चढ़ा। भीड़ बेकाबू थी। बैठने की कल्पना तो दूर, खड़े होने के लिये भी जगह पाना मुहाल हो रहा था। सोचा कि थोड़ी देर में मंजिल तक पहुंच जाएंगे। इतने में एक नौजवान खड़ा होकर पूरी विनम्रता के साथ अपनी सीट पर मुझे बैठने का आमंत्रण देने लगा। मेरे ना कहने के बाद भी वह मुझे अपनी जगह पर बिठाकर ही माना। सोचा कि उसे आसपास उतरना होगा लेकिन उसकी मंजिल बहुत दूर थी। यह मेरा पहला अनुभव था किन्तु आखिरी नहीं। थोड़े दिनों बाद एक बार फिर ऐसा ही वाकया मेरे साथ हुआ।
मैं हैरान था कि जिस युवा पीढ़ी से हमारी पीढ़ी शिकायत और चिंता से परे देख नहीं पा रही थी, वह युवा पीढ़ी कितनी विनम्र है। न केवल उसे सम्मान देना आता है बल्कि वह स्वयं तकलीफ झेलकर भी सम्मान देनेके भाव से भरा हुआ है। इस वाकये ने मुझे कई तरह से सोचने के लिये विवश कर दिया। मुझे लगने लगा कि मेरी पीढ़ी की शिकायत वाजिब नहीं है। यह ठीक है कि युवाओं का कुछ प्रतिशत उदंड है और अनुशासनहीन। ऐसे मुठ्ठी भर युवाओं के लिये समूचे युवावर्ग को शिकायतों के कटघरे में खड़ा करना उचित तो कतई नहीं है। मैं जो अनुभव आप से साझा कर रहा हूं, उसके पीछे मंशा यही है कि युवाओं की विन्रमता, सहजता और उनके भीतर के आदरभाव को समाज के समक्ष रखा जाए। जो युवा दिग्भ्रिमित हैं, शायद उनसे कुछ सीख लें और इससे भी आगे यह कि हम केवल शिकायतों का पिटारा नहीं खोलें बल्कि उनकी पीठ थपथपाकर उनका हौसला भी बढ़ायें। ऐसा करके हम सकरात्मक माहौल बना सकेंगे ताकि युवाओं में बदलाव देख सकें। सकरात्मक बदलाव।
हमारी पीढ़ी अपनी बाद की पीढ़ी के लिये चिंतित भी है। मुझे ऐसा लगता है कि यह चिंता भी फिजूल की है। मुझे याद है अस्सी के दशक में बोर्ड एग्जाम पास करने के बाद कॉलेज में दाखिला लेते हुए मेरे पास वाणिज्य या कला संकाय में जाने का विकल्प था। ऐसा नहीं है उन दिनों मेडिकल या इंजीनियरिंग की पढ़ाई नहीं होती थी। पढ़ाई तो इन दोनों की भी होती थी किन्तु मैं और मुझ जैसे मध्यमवर्गीय परिवार के बच्चों की प्रतिभा इतनी नहीं थी कि हम मेडिकल या इंजीनियरिंग की परीक्षा पास कर सकें। कोई संकोच नहीं शिक्षा के स्तर पर हम लगभग औसत ही थे। आज समय बदल गया है। वाणिज्य या कला की पढ़ाई अब कोई नहीं करता है। हर नौजवान इंजीनियर या डाक्टर बनने की प्रतिभा रखता है। हम अपने समय में साठ प्रतिशत पा लेने पर गर्व करते थे, आज का युवा ९८ प्रतिशत पा जाने के बाद भी संतुष्ट नहीं है। हमारी पीढ़ी अपनी नाकामयाबी को छिपाने के लिये रास्ता ढूंढ़ सकती है कि उन दिनों हमारे पास विकल्प नहीं था, आज तो अनेक किस्म के ऑप्शन हैं। बात कुछ हद तक ठीक हो सकती है, पूरी तरह से ठीक नहीं। हमारी पीढ़ी अपनी पूर्व की पीढ़ी से होशियार थी। वे स्कूली शिक्षा के बाद रूक जाते थे और हम ग्रेज्युेट होते थे और आज की पीढ़ी हमसे कहीं आगे है। जो बेअदबी की शिकायत है, वह कहीं न कहीं युवा पीढ़ी से नहीं है बल्कि स्वयं से है क्योंकि बदलते समय के साथ हम स्वयं को बदलने में पिछड़ गये हैं। लब्बोलुआब यह कि हर पीढ़ी अपनी पुरानी पीढ़ी से ज्यादा योग्य हुई है। शिक्षा में भी और सभ्यता में। उनके पास दृष्टि है और आत्मविश्वास भी। जरूरत है युवा वर्ग हौसला देने की।