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मई 5, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ना डरना लाडो इस देस मे

-मनोज कुमार मेरे घर की दो नन्हीं परी स्कूल में गर्मी की छुट्टी लगने के बाद से बहुत ज्यादा व्यस्त हो गई हैं. आने वाली 13 तारीख को अक्षय तृतीया है और इन दोनों को अपनी बेटियों के ब्याह की चिंता लगी हुई. उनके कपड़े कैसे सिये जाएंगे, गहने कौन से पहनाया जाये, खाने में क्या बनेगा और मेहमानों में किस किस को बुलाया जाय आदि-आदि की चिंता में दुबली होती जा रही हैं. इन दोनों की चिंता देखकर बचपन की यादें ताजा हो जाती हैं. अम्मां और अम्मां के बाद बड़ी भाभी पूरे उत्साह के साथ घर पर पूजन की व्यवस्था करतीं. मिट्टी से तैयार किये गये गुड्डे और गुडिय़ा का ब्याह किया जाता. इसी में मंगल कामना की जाती कि घर में जवान होती बिटिया का ब्याह अगले बरस इसी मंडप में कर दिया जाये. बड़ा मजा आता था. सत्तू खाने को मिलता और शायद थोड़ा-बहुत नजराना भी.  आज अपनी परियों को चिंता में रहकर तैयारी करते देख मन खुश हो रहा है. कुछ चिंता भी है तो इस दिन की उस रूढि़वादी परम्परा का जो हमें हर बरस शर्मसार करती हैं.  अक्षय तृतीया का यह पर्व शहरी इलाकों के लिये तो शायद एक पर्व होता है किन्तु देहाती इलाकों में बसे मासूमों के