सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

फ़रवरी 4, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

khari khari

खबर का मजा या मजे की खबर मनोज कमार अखबार में खबर पढ़ते हुए लोगों की अक्सर टिप्पणी होती है खबर में मजा नहीं आया, सवाल यह है कि पाठक को मजे की खबर चाहिए या खबर में मजा? हालांकि इन दोनों के बीच एक बारीक सी लकीर होती है। सच तो यह है कि खबर न तो मजे की होती है और न खबर में मजा होता है। खबर सिर्फ खबर होती है लेकिन दुर्भाग्य से पाठक खबर में मजा तलाशने की जद्दोजहद कर रहा है। खबर में मजा की बात करेंगे तो सहसा यह आरोप भी मीडिया के माथे मढ़ दिया जाएगा क उसने ही खबर में मजा देने की शुरूआत की। बात आधी सच है। खबर को तो खबर की शक्ल में पेश किया गया किन्तु खबर में मजा ढूंढ़ लेने वालों की कमी नहीं दिखी और आहिस्ता आहिस्ता इसने एक बीमारी की सूरत अख्तियार कर ली। मीडिया को भी यह मजेदार लगने लगा और अब हर खबर मजा देने वाली बनने लगी खबर की भाषा को भी मजेदार बनाने की कोशिश की गयी। दो-तीन दशक पहल व्यापार पेज की साप्ताहिक समीक्षा में तेल फिसला और सोना चमका, चांद लुढ़की और मिर्च का रंग सुर्ख हुआ, जैसे शीर्षक लगाये जाते थे लेकिन बीत समय में ऐसे शीर्षक गंभीर खबरों में भी लगाये जाने लगे हैं। खबर तो खबर शीर्षक में भी प