मनोज कुमार
माँ हाड़-माँस से बनी कोई जीव नहीं है. वह वस्तु भी नहीं है. माँ न केवल एक परिवार, एक समाज की नहीं बल्कि पूरी दुनिया की संरचना की बुनियाद है. भारतीय संस्कृति में माँ का दर्जा हमेशा से उच्च रहा है. शायद यही कारण है कि एक स्त्री जब माँ बनती है तो उसका सम्मान, उसका ओहदा और उसके प्रति लोगों का भाव स्नेह से भर उठता है. माँ त्याग की प्रतिमूर्ति के रूप में हम सब में विद्यमान हैं. छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा व्यक्ति भी आज कामयाब है तो वह माँ के कारण. हमने इसलिए माँ को प्रथम पाठशाला भी कहा है. भारतीय संस्कृति में बच्चे को जन्म देने वाली माँ नहीं है अपितु जो धरती हमारा बोझ उठाती है, उसे भी हम माँ कहते हैं. सदियों से निर्झर बहती नदियों को भी हमने माँ का दर्जा दिया है. अन्न को केवल खाद्य वस्तु नहीं मानकर, माँ के समान माना है और अन्न के अपमान को माँ का अपमान कहा है. यह तो मेरी समझ की छोटी और अनगढ़ परिभाषा माँ के लिए है. माँ शब्द का केनवास बहुत बड़ा है. बावजूद इसके इन दिनों माँ के खिलाफ चुपके से जो जाल बुना जा रहा है, वह दुर्भाग्यपूर्ण ही नहीं बल्कि शर्मनाक है.
आप टेलीविजन के हाईप्रोफाइल वाले सीरियल्स देखते हैं और आप इसी मानसिकता के हैं तो शायद आपको मेरी बात समझ ना आए लेकिन आपमें संवेदना है, आप माँ को समझते हैं तो जो टेलीविजन के परदे पर टीआरपी बटोरने और अधिकाधिक पैसा कमाने के लालच में जो दिखाया जा रहा है, जो लिखा जा रहा है और जो लोग अभिनय कर रहे हैं, उनके प्रति आपके दिल में घृणा होना चाहिए. मेरे पास समय नहीं होता है लेकिन समाज के बारे में लिखने के लिए इन सबको देखना मजबूरी होता है. बहुत सारी ऐसी चीजें दिखायी जाती हैं जिनका वास्तविक जिंदगी से कोई लेना-देना नहीं होता है. यहां तक तो बात ठीक है लेकिन इन दिनों एक के बाद एक धारावाहिकों में माँ को लेकर जिस तरह का चित्रण हो रहा है, वह समाज के लिए ठीक नहीं है.
माँ के प्रति बच्चों के मन में नफरत के जो दृश्य अनावश्यक रूप से दिखाकर टीआरपी बटोरने का खेल चल रहा है, वह आपत्तिजनक है. यह भी सच है कि जीवन में कई बार ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है जब गलतफहमी के चलते आपस में कुछ दूरियां बन जाती है लेकिन समय इसका इलाज करता है और रिश्तों की खटास अल्प समय के लिए होती है. इसे आप जीवन के खट्टे-मीठे पल की तरह देख सकते हैं लेकिन इसे ही अतिरंजित कर भावनाओं से खिलवाड़ करने की इजाजत दिया जाना अनैतिक है. समय बदल रहा है, सोच में बदलाव आया है लेकिन माँ के प्रति नफरत का भाव कभी देखने को नहीं मिला. यह सवाल बहुत गहरे तक मन को जख्मी कर जाता है कि आखिर हमारे विकास का यही पैमाना है कि हम रिश्तों को बेच दें? लोकप्रियता के लिए माँ को वस्तु की तरह उपयोग करें? मैं इन फूहड़ और बेशर्म विषयों के धारावाहिकों को देखने वाला अकेला शख्स नहीं हूं बल्कि मेरे साथ करोड़ों लोग हैं और उनमें एक बड़ी संख्या उन लोगों की है जो समाज की पहरेदारी का झंडा उठाये घूमते हैं. क्या उन्हें माँ का यह नया चित्रण उद्धेलित नहीं करता है? अफसोस तो इस बात का है कि नारी की अस्मिता को लेकर लडऩे वाले संगठन भी इस मामले में खामोश हैं.हम उसी समाज में रहते हैं जहां भारतीय सिनेमा के सौ साल के इतिहास में ‘मदर इंडिया’ जैसी फिल्म दुबारा न बन सकी. हम बार बार मक्सिम गोर्की की ‘माँ’ का पढ़ते हैं और हर बार हमें माँ के बारे में एक नयी तस्वीर, एक नई दृष्टि मिलती है. आज वो सिनेमा, वो साहित्य कहां गुम हो गया है?
यह सारा दृष्टांत इसलिए कि टेलीविजन के परदे पर जो दिखाया जा रहा है, वह भावी पीढ़ी का मानस बनाता है. हमने गोर्की की माँ पढ़ी, हमने मदर इंडिया देखा, हमने अपनी माँ को भूखा रहकर अपना निवाला हमें खिलाता देखा है. हम अखबार की नौकरी से रात-बिरात आते तो सबसे पहले माँ की आवाज आती-देर हो गई बेटा, चल खाना गरम कर देती हूं. आज जो टेलीविजन के परदे पर चित्रित किया जा रहा है, वह बच्चों के मानस में माँ के प्रति अनास्था का भाव उत्पन्न करता है. इस दुर्भाग्य के साथ सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि लगभग सभी धारावाहिकों में माँ के खिलाफ बेटियों को भडक़ाया जा रहा है, उनके मन मेें माँ के प्रति वितृष्णा उत्पन्न की जा रही है. बेटों को इससे परे रखा गया है. ऐसा क्यों? इस सवाल का जवाब अभी अनुत्तरित है. लेकिन सच यही है कि हम बाजार के दबाव में साल में एक बार ‘मदर्स डे’ मनाने की औपचारिकता कर लें तो वह वैसा ही है जैसा कि भारतीय परम्परा में मृत माँ के लिए श्राद्ध का आयोजन करना. हम भारतीय तो माँ के गुजर जाने के बाद यह उपक्रम करते हैं किन्तु यूरोपियन सभ्यता ने जिंदा रहते में यह उपक्रम करना सीखा दिया है.
समाज के बिगाडऩे में कई कारक हैं तो टेलीविजन के इन फूहड़ और भावी पीढ़ी को पथभ्रष्ट करने वाले कार्यक्रम सबसे आगे हैं. ऐसे कार्यक्रमों से बच्चों के मानस बिगड़ जाने की बात से इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन अभी भी देर नहीं हुई है. अभी भी वक्त है कि हम अपने अपने घरों को बचा लें. इसका एक जरिया बेहतर संवाद हो सकता है. ऐसे कार्यक्रमों पर हम संवाद करें और मन का मैल साफ करने की कोशिश करें क्योंकि सदियों से माँ ममता एवं करूणा की मूरत रही है और रहेगी. एक छोटी सी कहानी स्मरण में आता है- एक कू्रर बेटे ने कुल्हाड़ी से माँ की हत्या कर दी. खून से लथपथ माँ के कटे शीश से आवाज आयी-‘बेटा चोट तो नहीं लगी’. ऐसे मेें इन विदू्रपताओं के बीच संभावनाओं की डोर लिए बैठा हूं कि माँ के प्रति कभी हम नहीं बदल पाएंगे.
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