विश्व जल दिवस २२ मार्च के लिये
चिंता पानी के साथ खत्म होती परम्परा की भी
मनोज कुमार
प्यासे को पानी पिलाना भारतीय समाज की पुरातन परम्परा है। यह भारतीय समाज की संस्कृति है और रिवाज भी। भारतीय समाज में प्यासे को पानी पिलाना पुण्य का काम माना जाता है। इस पुण्य को कथित आधुनिकता की आड़ में अंधविश्वास समझ लेने के बजाय निपट देहाती बोली में इसे परम्परा कहना होगा। भय और लालच के बिना कोई काम नहीं किया जा सकता है। सो पानीदार समाज में पानी की यह परम्परा पुण्य के लोभ में हमेशा से समृद्ध रही, यह बात मान लेने में कोई हर्ज नहीं है। भारत के देहात हो या शहर, गली गली में, हर दो सौ तीन सौ फर्लांग की दूरी पर लाल रंग के कपड़े में लिपटे मटके सहज हमे अपनी तरफ खींच लाते थे। इन मटकों में भरा होता था ठंडा पानी जो मुसाफिर का सफर आरामदेह बनाता था। प्याऊ की परम्परा का श्रीगणेश किया। शायद यही कारण कि हमारे पुरखों ने उत्सव के हर अवसर पर कहीं तालाब, तो कहीं कुंआ तो कहीं बावड़ियों का निर्माण कराया। अथाह जलस्रोत हमारी परम्परा के गवाह रहे हैं।
समय गुजरा और गुजरे जमाने की याद बनती जा रही है हमारी जल की पुरातन परम्परा। दुनिया के साथ भारत में भी जलसंकट शबाब पर है। यत्न किया जा रहा है पानी बचाने का और उसे बढ़ाने का। यह सच है कि भारत में भी जलसंकट बढ़ रहा है किन्तु भारतीय समाज का यह संकट पानी का कम और परम्परा के खत्म हो जाने का ज्यादा है। हमारे पुरखों ने पानी के लिये जो जतन किये थे, उसे हम बढ़ा तो नहीं पाये, बचा भी नहीं सके। परम्परा के खत्म हो जाने से जो संकट उपजता है, इसकी बानगी आज हमारे समाज में उपजा पानी का संकट है। हमारे समाज में मौजूद लाखों जलस्रोतों को हम जीवित रख लेते तो आज सिर पीटने की नौबत नहीं आती। आज हमारे पास मॉल है, ऊंची ऊंची इमारतें हैं और इन इमारतों के नीचे सिसकते हमारे जलस्रोत हैं। कदाचित कई बार ऐसा लगता है कि ये जलस्रोत अपनी अकाल मौत पर नहीं बल्कि वे हमारी मूर्खता पर विलाप कर रहे हैं। वे शायद हँसते भी होंगे कि हम कैसे बेअकल हैं। रहने को तो इमारतें तान ली लेकिन जीने के लिये बूंद भर पानी का इंतजाम नहीं रहने दिया।
यकिन मानिये कि हर दो सौ तीन सौ कदम की दूरी पर लाल रंग के कपड़े में लिपटे मटके हमें नजर नहीं आते हैं लेकिन उनका नहीं होना भी हमें परेशान करता है। परेशानी कदम कदम पर ठंडा पानी नहीं मिलने की तो है ही, बल्कि परेशानी इस बात की भी है कि हमें तो हमारे पूर्वजों ने खूब दिया था लेकिन हमने अपनी भावी पीढ़ी को कंगाल भविष्य दिया है। र्इंट और गारे की दीवारें तो दी लेकिन पानीदार समाज का गौरव उनसे छीन लिया। यह अनुभव करना बड़ा ही असहज लगता है कि जिस पानीदार समाज की स्त्रियां पनघट पर अपने घड़े में पानी उलचती हुई अपने सुख-दुख बतियाती थीं, आज वही स्त्रियां उनका गागर खाली न रह जाये, इस चिंता में दूसरी सखी से आगे निकल जाने को बेताब हैं। यह बेताबी कई दफा फकत बैर में बदल जाती है। बीते सालों में समाज के चेहरे से उतरते पानी ने पानी के लिये खून बहा दिया। किसी एक पनघट में यह फसाद होता तो इसे दुर्घटना मान लेते, यह फसाद तो कभी भी और कहीं भी देखने को मिल जाएगा। पानी के लिये यह पाप हम अपनी ही गलतियों के कारण भुगतने के लिये मजबूर हैं। पानी के लिये आम आदमी का पानी उतर रहा है और पानीदार समाज के सामने यक्ष प्रश्न है कि हम पानीदार कैसे बने रहें? सवाल कठिन है किन्तु मुश्किल नहीं। जिसे गंवा दिया, उसे पाना तो नामुमकिन है लेकिन कुछ नया गढ़ लेने की जुगत लगानी होगी। पानी के लिये धरती की छाती छीलने के बजाय पानी बचाने का इंतजाम करना होगा ताकि हम पानीदार बने रह सकें।
२१वीं सदी में जब सारा संसार पानी के लिये हायतौबा कर रहा है। पानी बचाने की गुहार लगा रहा है। विश्व जलदिवस के अवसर पर पानी को लेकर पूरा संसार चिंता करेगा। एक दिन की चिंता से पानी का सवाल हल नहीं होना है बल्कि यह चिंता हमारे चिंतन का सबब बने। आंकड़ों की बाजीगरी भी होगी और इसी बाजीगरी से कुछ बारोजगार हो जाएंगे लेकिन पानी का सवाल जस का तस खड़ा रहेगा। संकट से मुक्त होना है तो हमें पानीदार बनना होगा और पानीदार बनना है तो पानी बचाने की मुहिम न सही, जुगत तो लगानी होगी। परम्परा को नष्ट करने का जो पाप किया है और कर रहे हैं, उन्हें अपनी गलती माननी होगी। भावी पीढ़ी को बताना होगा कि हम उन्हें कैसे संकट भरा भविष्य देकर जा रहे हैं। उन्हें इस संकट से निजात पाने का टोटका भी बताना होगा कि आने वाले समय में इमारत नहीं, तालाब, कुंए और बावड़ी बनायें। जल के ये स्रोत जीवन भी देते हैं और जीने की जगह भी। आखिर में सवाल यह भी बड़ा नहीं है कि अगला विश्व युद्ध पानी के लिये लड़ा जाएगा, इससे बड़ा सवाल है कि क्या हम बिना पानी के लड़ने के लायक रह जाएंगे? जिस दिन हम इस सवाल का जवाब ढूंढ़ लेंगे, हम अपने संकट से खुद को बरी भी कर लेंगे।
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