डिजिटल जमाने में बच्चे ननिहाल से दूर हो गए हैं। अब उन्हें नानी मामा के घर जाना नहीं सुहाता है। मोबाइल उनकी दुनिया है। घर पर भी सबके बीच रहते हुए वे अकेले हैं। ऐसे में ननिहाल, मामा, बाई बहन और आम का स्वाद कैसे मिलेगा। आज आम का स्वाद नहीं है तो आने वाले कल में अपने बच्चों को बताने के लिए कुछ खट्टी मीठी यादें भी नहीं। खुद में डूबे बच्चों को देख कर पीड़ा होती है लेकिन वहीं शाश्वत सत्य क्या किया जा सकता है?
आम का दिन ढलने लगा है। अब वह आम जिसे सफेदा, टपका या चूसनी कहा जाता है, आने लगा है। इसी आम का स्वाद लेते समय एक ऐसा आम का स्वाद मुंह में आया कि झटके में बचपन में पहुंच गया। स्वाद ऐसा कि ननिहाल की याद आ गई। वहीं स्वाद जो कभी बचपन में मामा के घर आम खाते हुए आता था। उम्र के छठे पड़ाव पर हूं और कहते हैं कि इस उम्र में स्वाद जाता रहता है। यानी कल तक खाने के लिए जीते थे और अब जीने के लिए खाना है।
खैर, याद आया कि हमारे बड़े भैया मुन्ना भइया गर्मियों की छुट्टी में हम भाई बहिनों और मां मौसी को लेने आते थे। कुल मिलाकर हम सब 20 लोगों के आसपास होते थे। रायपुर रेलवे स्टेशन पर हम सब डेरा डाल देते थे। तब रायपुर से अकलतरा जाने के लिए जेडी ट्रेन हुआ करती थी। लगभग वह अपने नियत समय से देर से ही चला करती थी। कोई शाम 4 बजे अकलतरा पहुंचने वाली ट्रेन दो घंटे देरी से पहुंचती। फिर अकलतरा से ट्रकनुमा वाहन से बलौदा अपने ननिहाल का सफर शुरू होता। एकाध घंटे बाद बुचीहल्दी और फिर वहां से पैदल हंगामा करते घर पहुंचते। दिन भर सफर के बाद भी थकान का नामोनिशान नहीं। बड़ी मामी हम सबके लिए भोजन बनाने में जुट जाती। मौसी और मां उनकी मदद करती। हम बच्चों की पंगत लग जाती। एक परांठे के चार टुकड़े कर चार लोगों की थाली में दिया जाता। ऐसे ही दूसरी चार और तीसरी चार थाली में। यह दौर लंबा चलता।
रात होते ही छत पर बिस्तर लग जाता। बिस्तर क्या कुछ दरी, चटाई और गद्दे। गद्दे पर मां और मौसी का कब्जा हुआ करता था। हम में से कुछ टीन की चादर पर ही पसर जाते थे। अगले दिन हम सबको शाम होने की प्रतीक्षा होती थी। मामाजी हम सब के लिए एक एक बाल्टी में आम लाते थे। यह सिलसिला भी दो तीन घंटे चलता और जबतक वापसी नहीं हो जाती, चलता ही रहता।
मामा के घर गए हैं तो नए कपड़े भी सिलेंगे और यह होता भी था। यह वह खूबसूरत समय था जब पूरा गांव हमारा मामा, मौसी, बुआ और ऐसे ही रिश्तों में गुथा हुआ करता था। दर्जी मास्बाब अपनी मर्जी से कपड़ा सिलते थे। हमारी कोई सुनवाई या पसंद नहीं चलता था। जो सिल दिया, वही फायनल। अब वो दिन भी बिसर गए। अब तो घर पर काम करने वालों को पिद्दी से बच्चे नाम से पुकारते हैं। यह डोर टूटने के साथ ही रिश्तों की मिठास भी खत्म हो चली है।
मुझे याद आता है कि मामा के घर के सामने संतोष मामा रहते थे। सरदार संतोष, यह नाम तो आज भी याद नहीं। मामा और मामी याद है। उनके घर भी हमारे आने से उत्सव का माहौल हो जाता। मामी बड़े चाव से हमारे लिए खाना बनाती, लाड़ करती। कभी ख्याल भी नहीं आया कि वो हमसे अलग हैं। किशोर भैया बलौदा छोड़ कर बिलासपुर आ गए हैं। सालों से उनसे मुलाकात नहीं है। लेकिन जब भी मिलेंगे, लगेगा कि कल ही तो मिले थे।
एक आम के स्वाद ने पांच दशक पहले बचपन की याद दिला दी। डर यह है कि डिजिटल बच्चों को कौन सा स्वाद इस उम्र में याद रहेगा