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पत्रकारिता

तो मान ही लिया जाये कि खबर की कीमत तय हो ही गई?
-मनोजकूमारातो अब यह मान ही लिया जाए कि हम पत्रकार बंधु मालदार हो गये हैं। जो कभी निखालिस तनख्वाह पर जीते थे, उनके सोर्स अब बढ़ गये हैं। अब वे खबरों के सेल्समेन बन गये हैं। कुछ उम्दा किस्म के सेल्समेन के पास आमद बहुत हो गई है और यही कारण है कि समाज ने जिनके कंधे पर काले धंधे करने वालों का पर्दाफाश करने की जिम्मेदारी सौंपी थी, आज उन्हें ही समाज के सामने सफाई देने के लिये खड़ा होना पड़ रहा है। पत्रकारों के अलग अलग मंच से यह बात उठ रही है कि पत्रकारों को भी अपनी सम्पत्ति की घोषणा करना चाहिए। मुझे अब तक लगता था कि पत्रकार तो निरीह होता है और इसलिये वह सरकार के सामने बार बार सुविधा बढ़ाने की मांग करता है। रियायत देने की मांग करता है। लेकिन इस बहस के बाद अब मेरी राय बदलने लगी है। अब मुझे लगने लगा है कि जो बात बार बार उठायी जा रही है कि पत्रकारिता से मिशन का लोप हो गया है, वह बेबुनियाद नहीं है। मैं साथियों से बहस करता था कि आजाद भारत में शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी और ऐेसी जीवन जीने लायक मांगों के लिये लिखी जाने वाली खबरें मिशन ही तो हैं। कुछ सहमत थे और कुछ असहमत। मैं एकला चलो के अभियान पर चल रहा था लेकिन अब लगता है कि मुझे भीड़ की बातों को समझना होगा। उनसे सहमत होना होगा और अपनी राय बदलनी होगी कि मिशन नहीं कमीशन की बात कीजिये क्योंकि बिना कमीशन के किसी पत्रकार की ताकत नहीं िकवह सम्पत्ति बना सके। एकाध छोटा मोटा मकान और साथ में एकाध छोटी गाड़ी तो आज जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है और वह है तो यह देखना होगा कि पत्रकार की पत्नी और उसके परिवार के कितने लोग और भी नौकरी अथवा किसी अन्य सेवाकार्यों से जुटकर धनोपार्जन कर रहे हैं।भोपाल में पत्रकारों को सरकार से रियायती दरों पर जमीन मिली है। इसके एवज में एकसाथ दो लाख रुपये जमा किया जाना था। बहुत सारे साथियांे ने खुशी-खुशी मांगी गई राशि समय पर जमा कर दी किन्तु बहुत सारे ऐसे साथी भी थे जिनके पास दो लाख जैसी बड़ी रकम थी ही नहीं। अभी इसके बाद दूसरी किश्त में और भी राशि देना है। यहां सवाल यह भी नहीं है कि जमीन किसे मिली और कितनों ने पैसा देेने का साहस दिखाया। सवाल यहां यह है कि सरकार ने रियायती दरों पर जमीन देने का पुण्य काम किया है तो उसे यह भी समझना चाहिए था कि जमीन की कीमत भी छोटी छोटी किश्तों में वसूल किया जाए। शायद यह भी संभव है कि सरकार यह मान बैठी है कि पत्रकारों के पास एकमुश्त दो लाख देने की ताकत है। ऐसे में पत्रकारों के मंच पर सम्पत्ति सार्वजनिक करने की घोषणा का स्वागत किया जाना चाहिए।मेरी अपनी राय भी यह है कि जब पत्रकारों की स्थिति सम्पत्ति की घोषणा करने बन चली है तब उन्हें वेतन आयोग जैसे मांग उठाना बंद कर देना चाहिए। कार्पोरेट जर्नलिज्म में यह सब मांगें बेमानी हो जाती हैं क्योंकि हम तब पत्रकारिता नहीं कर रहे होते हैं बल्कि एक उद्योग के सेल्स प्रमोशन के प्रतिनिधि होते हैं। आज एक बड़े अखबार के संपादक की तनख्वाह सुन कर मुझ जैसे छोटे पत्रकार की नींद उड़ जाती है। जिसने पांच साल पहले संपादक के समकक्ष पद पर लगभग दस हजार की तनख्वाह ले सका, आज वही लोग लाखों में बात कर रहे हैं। यह मेरी अपनी कमी हो सकती है कि मैं पत्रकार बना रहा, सेल्स प्रमोटर नहीं बन पाया। इसका सुख भी है और यह मेरा ही है। इस सिलसिले में मेरे दो लेख का उल्लेख जरूर करना चाहूंगा। पहला यह कि खबर की कीमत तो तय हो जाने दीजिये....इस लेख को लिखते समय मेरे मन में था कि खबर की कोई कीमत नहीं होती है किन्तु आज शायद मैं गलत हूं। इसके बाद दूसरा लेख ये पत्रकारिता है... में मैंने उन मुद्दों को छूने का प्रयास किया था जिसमें बार बार कहा जाता है कि फलां फर्जी पत्रकार पकड़ा गया। पत्रकार फर्जी नहीं हो सकता है बल्कि पत्रकारिता की आड़ में फर्जीवाड़ा चल रहा था। इसी तरह किसी भी मामले में वह भले ही आपसी रंजिश हो लिखा जाता है कि पत्रकार मारा गया...यदि वह खबर लिखतेे हुए किसी हादसे का शिकार हुआ है अथवा कि प्राकृतिक अथवा दुर्घटना में उसका निधन हुआ है तो हजार बार गर्व के साथ पत्रकार की मौत लिखा जाना उचित है किन्तु अब यह सारी बातें मुझे अपने स्तर पर ही बेमानी लग रही हैं। जिस पत्रकार के कंधे पर समाज ने बुराईयों के खिलाफ लड़ने का जिम्मा डाला हो और उन्हीं पत्रकारों को अपनी ईमानदारी साबित करना पड़े तो समझ लेना चाहिए कि खबर की कीमत तय हो गई है और मिशन कमीशन की पत्रकारिता में बदल चुकी है।

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