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मीडिया

अब खबर क्यों प्रभावी नहीं हैं?


-मनोज कुमार

इन दिनों अखबारों में इस बात को लेकर बड़ी बैचेनी है कि उनकी खबरों पर कोई एक्शन-रिएक्शन क्यों नहीं होता है। खबरें छप जाती हैं और उसे सरकार और शासन के स्तर पर कभी कोई नोटिस नहीं लिया जाता है। फौरीतौर पर यह महज रूटीन का मामला दिखता है किन्तु ऐसा है नहीं। आखिर जिन अखबारों ने कभी अंग्रेज शासकों को भारत छोड़ने के लिये मजबूर बेबस कर दिया, आज उन्हीं अखबारों की खबरों पर कोई प्रभाव या असर क्यों नहीं होता है। बात बहुत गंभीर है और इसे पत्रकारिता की विश्वसनीयता के साथ जोड़कर देखा जाए तो इस मुद्दे को विस्तार मिल सकता है। पत्रकारिता की विश्वसनीयता के क्या मायने हैं, यह पहले समझना होगा। विश्वसनीयता का सीधा अर्थ है छपी खबरों की पड़ताल करना और पीड़ित को न्याय दिलाना। यहां इस बात पर बहस हो सकती है कि पीड़ित को न्याय दिलाने से बात नहीं बनती है बल्कि दोषी पक्ष के खिलाफ भी प्रभावी कार्यवाही होना चाहिए। इस मामले में मेरी राय थोड़ी अलग है। जब पीड़ित को न्याय मिलेगा तो संबंधित पर असर न हो, यह तो संभव ही नहीं है। यूं भी हमारी मंशा पीड़ित को न्याय दिलाने की और व्यवस्था को दुरूस्त करने की है न कि किसी न्यायाधीश की तरह फैसला सुनाने की। एक बार फिर हम मुद्दे की ओर लौटते है कि आखिर खबरों पर कार्यवाही क्यों नहीं होती है। दरअसल इसके पीछे यही कारण है कि हम पत्रकार के बजाय जज की भूमिका में आ जाते हैं और जज बनना हमारा काम नहीं है। हमारा काम तो समाज और व्यवस्था के बीच सेतु का है। जो देखा, जो समझा और वस्तुस्थिति समाज के सामने रख दी लेकिन इन दिनों खबरांें में विचार भी प्रस्तुत किया जा रहा है जो खबरों के तेवर को कम ही नहीं करता बल्कि कई बार अविश्वसनीय बना देता है। दोषी पक्ष इसका लाभ लेकर पत्रकार पर यह आरोप मढ़ देता है कि खबर निरपेक्ष होकर नहीं लिखी गयी बल्कि व्यक्तिगत स्वार्थ की पूर्ति को लक्ष्य रखकर खबर लिखी गयी। ऐसे में किसी खबर के इम्पेक्ट की बात करना व्यर्थ है।

मुझे यह बात भी लम्बे समय से चुभ रही है कि हम प्रतिदिन ज्यादा नहीं तो दस अलग किस्म की खबरें देते हैं जो खोजी प्रवृत्ति की होती है। इस मान से पूरे एक महीने की तुलना की जाए तो एक माह में दो सौ से ज्यादा खबरें होती हैं। अब इनमें कोई पांच दस खबरों पर कार्यवाही हो जाती है तो हम बड़े गर्व के साथ इम्पेक्ट लिखकर छापते हैं कि हमारी फलां खबर पर कार्यवाही हुई। सवाल यह है कि औसतन दो सौ खबरों में दस खबर पर कार्यवाही हुई और शेष बची खबर पर कोई एक्शन रिएक्शन नहीं हुआ तो इसे हम पत्रकारिता की सफलता मानें या अपनी विफलता। वैसे भी हम खबरों की खोज इसलिये ही करते हैं कि सरकार और शासन उन खबरों की तहकीकात करें और कार्यवाही कर व्यवस्था को सुदृढ़ करें। ऐसे में किसी खबर पर कार्यवाही से इतराना मुझे निजी तौर पर ठीक नहीं लगता है। पत्रकारिता को इस मुद्दे पर विवेचना करने की जरूरत है।

जहां तक मुझे याद है कि अस्सी के दशक में अखबार में खबर छपवाने के लिये विशेष प्रयास करना होता था और खबर छप गयी तो उसका विशेष महत्व होता था। चार लाइनों की खबरों को अखबार में किस तरह खोजबीन कर रिपोर्ट बनाना और रिपोर्ट के प्रकाशन के बाद सरकार कार्यवाही के लिये मजबूर हो, इस तरह प्रस्तुत करना। छत्तीसगढ़ के पत्थलगांव क्षेत्र में टमाटर का उत्पादन इतना होता था कि खरीददार नहीं मिल पाते थे और किसान शाम होते होते दो रुपये में साठ किलो टमाटर बेचने के लिये मजबूर हो जाते थे। इस आशय की एक चार लाइन की खबर अखबार में छपी में । देशबन्धु में छपी इस खबर की पड़ताल कर रिपोर्ट प्रकाशित की गई। यह उदाहरण उस समय का है जब अर्जुनसिंह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री हुआ करते थे। मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह ने तत्काल कार्यवाही करते हुए वहां सॉस बनाने वाली फैक्ट्री लगाने के आदेश दिये। यह उदाहरण किसी अखबार या पत्रकार के गुणगान का नहीं है बल्कि यह बताने की कोशिश है कि सामाजिक सरोकार की खबरों पर कार्यवाही करने के लिये सरकार को किस तरह विवश होना पड़ता था। आज मामला उलटा ही है। खबरें बेहतर लिखी जा रही हैं। खोजबीन भी हो रही है, तथ्य और आंकड़ें भी प्रभावी हैं लेकिन लक्ष्य करके लिखी जाने के कारण खबरों का असर नहीं हो पा रहा है। एक व्यक्ति, एक संस्था और एक ही नेचर की खबरों के चलते पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लग रहे हैं। हमें इस बात का चिंतन करना चाहिए कि खबरों को कोई क्यों गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है।

टिप्पणियाँ

  1. मनोज भाई,
    पत्रकारिता अब मिशन नहीं कमिशन बन गई है, इसलिए उनके ये हाल हैं। खबरों पर कोई रिएक्‍शन नहीं होता, इसलिए तो लोग अखबार से भी नहीं डरते। अपराधी भी कहते हैं छाप दे, जो छापना है, मैं निपट लूंगा। अब भला बताओ ये भी कोई बात हुई। पत्रकार कहता है तुमने अपराध किया है, मैं इसे अखबार में छापूंगा, तो अपराधी का जवाब सीने को छलनी कर देता है। ऐसे में कैसे हो खोजी पत्रकारिता? आप जिस पत्रकारिता की बात कर रहे हैं, वह पुरानी है। जब पत्रकार का भी सम्‍मान होता था। अब सब कुछ बदल रहा है, इसलिए आज के जमाने में हमें जीना सीख लेना चाहिए।
    डॉ महेश परिमल

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