रिश्तांे को ढोने से तो अच्छा ही होगा...
तलाक शब्द किसी भी भारतीय स्त्री की मन और उसकी अस्मिता को तार तार कर देता है। एक भारतीय स्त्री चाहे कितनी भी तकलीफ में क्यों न हो, वह आखिरी सूरत तक तलाक से दूर रहना चाहती है। वह अपना मान और प्रतिष्ठा एक परिवार में ही देखती है और इसके बाद उसकी चिंता के केन्द्रबिन्दु में उसके बच्चे होते हैं। वह मन से भले ही तलाक लेने की ख्वाहिश रखती हो लेकिन उसे व्यवहार रूप् में तब्दील नहीं कर पाती है। पति जितना भी निकम्मा और नालायक हो लेकिन स्त्री के लिये बच्चे उसकी पूंजी होते हैं। एक स्त्री जानती है कि तलाक के बाद यह निर्मम पुरूष किसी और स्त्री को अपने भोग के लिये ले आयेगा। आने वाली दूसरी स्त्री मन से कम, मतलब से ज्यादा आती है और उसके लिये किसी और के बच्चे को पालने की न तो कोई मंशा होती है और न लगाव। यहां तक कि जिसके साथ और जिसके लिये वह आयी है, उससे भी उसका संबंध केवल देह तक होता है और बाकि समय वह उन सुविधाओं का अधिकाधिक लाभ उठाना चाहती है जिससे अब तक वह वंचित रही है। कहने का अर्थ यह कि अक्सर दूसरी शादी भावना कम, मजबूरी ज्यादा होती है और यह मजबूरी एकाएक भौतिक लाभ प्राप्ति की ओर ले जाती है। इन स्थितियांे से बचने के लिये कोई भी भारतीय स्त्री तलाक के लिये राजी नहीं होती है। स्त्रियों की दशा पर एक लम्बे समय तक अध्ययन करने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि पति की ज्यादती की शिकार केवल हाउस वाइफ ही नहीं होती है बल्कि उनकी स्थिति भी दयनीय होती है जो कामकाजी होती हैं। यहां पर आकर तलाक के लिये हालात बदल जाते हैं। कामकाजी स्त्री आर्थिक रूप से मजबूत होने के कारण तलाक की पहल कर पाती है जबकि घरेलू स्त्री आर्थिक असुरक्षा, पीहर की चिंता और कहीं उसकी छोटी बहनें हों तो उसके ब्याह की चिंता में वह रोज डूबती-मरती रहती है। स्थिति जब काबू से बाहर हो जाये तब उसे इस स्थिति पर पहुंचना पड़ता है जिसे तलाक कहते वर्तमान में स्त्री का चेहरा बदल रहा है। वह अब स्वतंत्र व स्वाधीन जीवन जीना चाहती है और इसके लिये उसे तलाक की जरूरत होती है।
तलाक को लेकर भारतीय मन अभी भी संकुचित दृष्टि रखता है। काननू में भी अनेक किस्म की दिक्कतें हैं और इसके चलते तलाक पाना आसान नहीं होता है। वास्तव में अभी जो कारण बताये गये हैं, वे तलाक की बुनियाद के पहले कारण हैं जैसा कि पत्नी-पति का आपस में नहीं निभना। सहज रूप् से दोनों को अलग होने में अनेक किस्म की दिक्कतें हैं और इन दिक्कतों से उबरने का सहज उपाय है एक दूसरे पर लांछन लगाना। कई बार इसकी हदें पार हो जाती हैं। समय के साथ अब तलाक लेने के इच्छुक दम्पत्तियों की संख्या में वृद्वि होने लगी है और जरूरी है कि तलाक की प्रक्रिया का सरलीकरण किया जाए। वास्तव में यह मानवाधिकार का मामला माना जाना चाहिए। हालांकि भारत इस मामले में सकरात्मक दृष्टिकोण रखता है और आखिरी तक कोशिश करता है कि दोनों के मन बदल जाएं और वे एक हो कर रहें लेकिन जब ऐसा संभव नहीं होता है तब तलाक ही एकमात्र रास्ता बच जाता है। यूं भी रिश्तों को ढोने और घुट घुट कर मरने के बजाय स्वतंत्र जीवन जीने का हक दिया जाना ही स्त्री के लिये श्रेयस्कर होगा।
-अनामिका कोई यकीन ही नहीं कर सकता कि यह वही छत्तीसगढ़ है जहां के लोग कभी विकास के लिये तरसते थे। किसी को इस बात का यकिन दिलाना भी आसान नहीं है कि यही वह छत्तीसगढ़ है जिसने महज डेढ़ दशक के सफर में चौतरफा विकास किया है। विकास भी ऐसा जो लोकलुभावन न होकर छत्तीसगढ़ की जमीन को मजबूत करता दिखता है। एक नवम्बर सन् 2000 में जब समय करवट ले रहा था तब छत्तीसगढ़ का भाग्योदय हुआ था। साढ़े तीन दशक से अधिक समय से स्वतंत्र अस्तित्व की मांग करते छत्तीसगढ़ के लिये तारीख वरदान साबित हुआ। हालांकि छत्तीसगढ़ राज्य बन जाने के बाद भी कुछ विश्वास और असमंजस की स्थिति खत्म नहींं हुई थी। इस अविश्वास को तब बल मिला जब तीन वर्ष गुजर जाने के बाद भी छत्तीसगढ़ के विकास का ब्लूप्रिंट तैयार नही हो सका था। कुछेक को स्वतंत्र राज्य बन जाने का अफसोस था लेकिन 2003 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने सत्ता सम्हाली और छत्तीसगढ़ के विकास का ब्लू प्रिंट सामने आया तो अविश्वास का धुंध छंट गया। लोगों में हिम्मत बंधी और सरकार को जनसमर्थन मिला। इस जनसमर्थन का परिणाम यह निकला कि आज छत्तीसगढ़ अपने चौतरफा विकास के कारण देश के नक...
बात तो आपने सही कही है।
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