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जनजातीय पत्रकारिता शिक्षा की जरूरत

मनोज कुमार

हिन्दुस्तान का ह्दय प्रदेश मध्यप्रदेश की पहचान एक बड़े हिन्दी एवं आदिवासीबहुल प्रदेश की है। अलग अलग अंचलों यथा भोपाल रियासत, मालवा, विंध्य, महाकोशल, बुंदेलखंड एवं छत्तीसगढ़ को मिला कर चौवन साल पहले नये मध्यप्रदेश का गठन किया गया था। दस वर्ष पहले छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश से अलग होकर पृथक राज्य की पहचान बना ली किन्तु अपनी स्थापना के साथ ही अविभाजित मध्यप्रदेश निरंतर अपनी पहचान के लिये संघर्षरत रहा है। उसका यह संघर्ष अभी भी समाप्त नहीं हुआ है। ऐसा भी नहीं है कि इन सालों में उसने विकास नहीं किया या समय के साथ कदमताल करने में पीछे रहा किन्तु कुछ बुनियादी कमियों के चलते मध्यप्रदेश की छवि एकजाई नहीं बन पायी। मध्यप्रदेश की बात शुरू होती है तो उसकी परम्परा और सांस्कृतिक विरासत को लेकर। अपने जन्मकाल से पहले ही मध्यप्रदेश की धरा हमेशा से साहित्य, संस्कृति और कला के क्षेत्र में सम्पन्न रहा है। उसकी यह सम्पन्नता समय के साथ और भी बढ़ी है। इस बात का साक्षी रजतपट भी बन गया है। मुंबई के बाद अब मायानगरी बनने के लिये मध्यप्रदेश फिल्म निर्माताओं की पहली पसंद बनती जा रही है। राजधानी भोपाल सहित प्रदेश के अनेक हिस्सों में पहले भी कई फिल्मों की शूटिंग हुई है और अब इसकी संभावना बढ़ चली है। भोपाल में फिल्म सिटी के लिये स्थान का चयन भी हो चुका है।
मध्यप्रदेश में भाषायी फिल्म निर्माण में हमेशा संकट बना रहा है और आने वाले समय में भी इसे दूर किया जाना संभव नहीं दिखता है। ऊपर जैसा कि हमने कहा कि मध्यप्रदेश का निर्माण विभिन्न अंचलों को लेकर हुआ है तो स्थानीय बोली में बनने वाली फिल्में उस खास अंचल का प्रतिनिधित्व करती हैं न कि समूचे मध्यप्रदेश का। उदाहरण के तौर पर मालवा क्षेत्र में बनने वाली क्षेत्रीय भाषायी फिल्म मालवा का प्रतिनिधित्व करती है तो बुंदेली में बनने वाली क्षेत्रीय भाषायी फिल्म बुंदेलखंड की होगी न कि समूचे मध्यप्रदेश की। यह हाल राज्य के दूसरे अंचलों की भी है। इसे दूसरी तरह से देखें तो दस साल पहले मध्यप्रदेश से पृथक होकर छत्तीसगढ़ राज्य को अपनी पहचान के लिये इस तरह का संघर्ष नहीं करना पड़ रहा है। वहां बनने वाली फिल्में छत्तीसगढ़ी फिल्में कहलाती हैं और सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ राज्य का प्रतिनिधित्व करती हैं। छत्तीसगढ़ को लगातार और बड़ी संख्या में बनने वाली फिल्मों के कारण छालीवुड नाम भी दिया गया है। मध्यप्रदेश के सामने यह संकट है और बना रहेगा।

मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में फिल्म निर्माण में आदिवासी समुदाय की हमेशा से अनदेखी की गई है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में शासन स्तर पर तो कुछ फिल्मों का निर्माण किया जा रहा है किन्तु सरकारी होने के ठप्पे से वे बरी नहीं हो पायी हैं। मध्यप्रदेश ने एक कदम आगे बढ़कर अन्तर्राष्ट्रीय जनजाति फिल्मोत्सव का आयोजन भी कर रहा है किन्तु इस आयोजन का प्रभाव अभी देखने को नहीं मिला है। इस आयोजन से प्रभावित होकर निजी फिल्म निर्माता यदि रूचि दिखाते हैं तो मध्यप्रदेश का स्वरूप एक बड़े केनवास में देखने को मिल सकेगा। निजी फिल्म निर्माताओं की एक सबसे बड़ी बाधा यह है कि जब वे आदिवासी समुदाय पर फिल्म बनाने का काम करते हैं तो उन्हें उनके शोषण की कहानी ही मिलती है। यह सच है कि आदिवासी समाज का शोषण होता रहा है और समय के साथ इसमें बदलाव की गुंजाईश से भी इंकार नहीं किया जा सकता है किन्तु सिर्फ उनके शोषण को केन्द्र में रखकर फिल्म निर्माण की सोच आदिवासी समाज के साथ अन्याय होगा। आदिवासी समाज में आ रहे बदलाव एवं उनकी उत्कृष्ट परम्पराएं मुख्य धारा में जी रहे समाज के लिये मिसाल है। इस बात को जानना चाहिए कि आदिवासी समाज के मूल में तीन महत्वपूर्ण बातें हैं जिसमें पहला यह कि आदिवासी समाज हमेशा से वाचिक परम्परा में जीता आया है, दूसरा यह कि वह राज्याश्रित नहीं है तथा तीसरा यह कि वह अपने आपमें स्वतंत्र है इसलिये  किसी तरह की क्रांति की तरफ उसकी सोच नहीं जाती है। जन्म से लेकर मृत्यु तक उनकी अपनी परम्पराएं हैं, रीति-रिवाज हैं जो आधुनिक समाज को कई बार सीख देते हैं। उनकी इस खास चीजों को रेखांकित किये जाने की जरूरत है।

आदिवासी समाज और आधुनिक समाज के बीच सेतु का काम मीडिया कर सकता है। मीडिया की पहुंच व्यापक है, इस बात से इंकार करना मुश्किल है किन्तु आदिवासी समाज को लेकर मीडिया को भी शिक्षण-प्रशिक्षण की जरूरत है। अभी तक मीडिया में दो तरह से आदिवासी समुदाय को प्रस्तुत करने की कोशिश की गयी है पहला वह जो सरकार की विभिन्न संस्थाओं द्वारा दिये गये साहित्य को आधार बनाकर खबरें, लेख व फीचर प्रकाशित किये जाते रहे हैं और दूसरा मंत्रालयों में दौड़ रही आदिवासी समाज की कल्याण व अकल्याण की खबरें। इसमें भी वास्तविकता तलाशने के स्थान पर सनसनी का भाव ज्यादा रहता है। इसे इस तरह से भी हम समझ सकते हैं कि झाबुआ का भगोरिया, बस्तर का घोंटुल या छिंदवाड़ा के पातालकोट को लेकर कई तरह की भ्रम-विभ्रम की स्थिति बनी हुयी है। कुछ कारण तो सरकार की वो बंदिशें हैं जहां सुरक्षा की दृष्टि से जारी हैं। इस पर भी ध्यान देना होगा।

आदिवासी समाज के विकास और विस्तार में मीडिया की भूमिका कारगर हो सकती है बशर्तें मीडिया का प्रशिक्षण हो। मध्यप्रदेश में देश का पहला जनजातीय वि·ाविद्यालय के आरंभ होने की कार्यवाही जारी है। वि·ाविद्यालय के पूर्ण स्वरूप आने में अभी समय है और तब तक या इसके बाद भी भोपाल स्थिति माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं जनसंचार वि·ाविद्यालय में जनजातीय पत्रकारिता पर पाठ्यक्रम आरंभ किया जाना आवश्यक प्रतीत होता है। लगभग पन्द्रह से अधिक नये विषयों का पाठ्यक्रम इस वि·ाविद्यालय ने आरंभ किय है, उसका स्वागत किया जाना चाहिए किन्तु अपने ही प्रदेश में अपने ही विषय का पाठ्यक्रम का न होना, अखरने वाली बात है। कुछ माह पहले रायपुर स्थित स्वर्गीय कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार वि·ाविद्यालय ने अखिल भारतीय स्तर पर जनजातीय पत्रकारिता पर वर्कशॉप का आयोजन कर अपनी चिंता जाहिर की थी। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले समय में भोपाल के साथ रायपुर का पत्रकारिता वि·ाविद्यालय जनजातीय पत्रकारिता पाठ्यक्रम आरंभ करने की दिशा में पहल करेगा।

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