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जो जीता वहीं सिकंदर यानि अब नीतिश और सिर्फ नीतिश

मनोज कुमार

यह माना हुआ सच है कि जो जीता वही सिकंदर और इस अर्थ में इस समय नीतिश कुमार सिकंदर बन गये हैं। बिहार में उन्होंने जो तूफानी जीत हासिल की है उसने उन्हें भारतीय राजनीति का सिरमौर बना दिया है। भारतीय राजनीति, खासतौर पर क्षेत्रीय दलों के लिये वे नये रोल मॉडल के रूप में उभरे हैं। बिहार चुनाव जीतने में उन्होंने किस तरह की रणनीति अपनायी और वे उसमें सफल रहे, इस बात की मीमांसा की जा रही है। यह तो तय है कि ऐसी जीत बिहार में नीतिश कुमार को नहीं मिली होती तो आज उनका कोई नामलेवा नहीं होता और लालूप्रसाद यादव सिरमौर होते। कभी यही हाल लालू प्रसाद का हुआ करता था और उनकी लोकलुभावन शैली प्रादेशिक राजनीति की दिशा बदल दिया करती थी।

भारतीय राजनीति में, खासतौर पर प्रादेशिक राजनीति में पिछले दो दशकों में काफी परिवर्तन देखने को मिला है। एक समय था जब समूचे दलों के लिये प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से गुजरात के नरेन्द्र मोदी रोल मॉडल बन गये थे। उनके हिन्दुत्व का एजेंडा सबको लुभा रहा था। सत्ता के लिये हिन्दुत्व का कार्ड सहज और सरल रास्ता था। गुजरात के बाद उत्तरप्रदेश और बिहार में जाति का कार्ड खेला गया। नीतिश कुमार इसी रास्ते से सत्ता में आये थे और मायावती इसी रास्ते से सत्तासीन हैं।

मोदी जिस हालात में लगातार गुजरात की सत्ता में बने रहे तो राजनीति में उनकी अलग पहचान बन गयी किन्तु मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में जब भारतीय जनता पार्टी ने दुबारा सत्ता सम्हाली तो हिन्दुत्व और जातिवाद से परे होकर विकास का मुद्दा सामने आया। इस बार छत्तीसगढ़ के डाक्टर रमनसिंह और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान विकास के रोल मॉडल बन गये। प्रादेशिक राजनीति के ये नये ब्रांड एम्बेसडर बन गये। छत्तीसगढ़ नया राज्य है और इस लिहाज से यह माना गया कि कांग्रेस के विकास के प्रति उपेक्षा ने उन्हें सत्ता में आने नहीं दिया किन्तु मध्यप्रदेश में भाजपा के लिये ऐसा कोई कारण नहीं था। दस बरस के कांग्रेस के कार्यकाल में दिग्विजयसिंह के राज में विकास को पीछे धकलने का आरोप लगा और वे सत्ता से बाहर हो गये किन्तु भाजपा बहुमत के साथ सत्ता में लौटी और आरंभ के दो बरस में दो मुख्यमंत्री बदल दिये गये। विकास का मुद्दा तब भी हाशिये पर था और शिवराजसिंह तीसरे मुख्यमंत्री बने। पहली बार भाजपा और मध्यप्रदेश में गैरकांग्रेसी मुख्यमंत्री के रूप में शिवराजसिंह को लगातार तीन वर्ष काम करने का अवसर मिला। इस तीन वर्ष में शिवराजसिंह ने महिलाओं, आदिवासियों और किसानों के लिये कुछ काम करने की कोशिश की। राज्य में पूर्व की तरह बिजली, पानी, सड़क आदि की समस्या का कोई बड़ा हल नहीं निकला था किन्तु शिवराजसिंह ने अपनी जीत दर्ज करा दी। लगभग यही स्थिति छत्तीसगढ़ में थी। बावजूद के दोनों राज्यों में भाजपा को मिली जीत को विकास की जीत कहा गया।

बिहार में जो जीत नीतिश कुमार को मिली है वह मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ का दुहराव है। कल तक विश्लेषक बिहार की स्थिति को बहुत संतोषजनक नहीं बता रहे थे और नीतिश की वापसी पर भी एकराय नहीं थे किन्तु स्थितियां बदली और नीतिश कुमार के पक्ष में हवा बहने लगी। लालू यादव किनारे कर दिये गये। बिहार में नीतिश कुमार की सरकार लौट आयी और एक बार फिर विश्लेषकों ने इसे विकास की जीत कहा। वैसा ही जैसा मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा की वापसी पर कहा गया था।

यह हो सकता है कि यह जीत विकास की हो किन्तु मेरा मानना है कि यह जीत विकास की न होकर बल्कि विकास को परखने की जीत है। एक नजर से देखें तो अब मतदाता इस बात के लिये तैयार नहीं हैं कि पांच बरस में सरकार बदल दें और आने वाली नयी सरकार फिर से प्रदेश को प्रयोगशाला बना दें। पूर्ववर्ती सरकारों की योजनाओं को तो थोड़ा बदला जाता है किन्तु उन योजनाओं के नाम बदलने पर करोड़ों रुपये और वक्त जाया करते हैं। शायद इस दृष्टि से अब मतदाता ने मन बना लिया है कि कम से कम दो कार्यकाल तो एक सरकार को मिले ताकि उनके द्वारा पहले पांच वर्ष में आरंभ किये गये कार्याें को एक मुकाम तो मिल सके। इन योजनाओं का परिणाम आमजनता देख सके और वह फिर तय करें कि इस सरकार को तीसरा मौका दिया जाना चाहिए या नहीं।

इस बात को इस तर्क के साथ देखा जा सकता है कि दिल्ली की कांग्रेस सरकार को क्यों मौका मिला? अनेक किस्म की शिकायतें और गुस्सा होने के बावजूद कांग्रेस की जीत का यही एक कारण हो सकता है। पश्चिम बंगाल में तीन तीन बार सरकार का चुना जाना आम आदमी के मन में सरकार के प्रति वि·ाास का होना ही है। आगामी दो हजार तेरह में जब मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, दिल्ली और इनके साथ जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होना है वहां सरकार की परीक्षा होगी। विकास कार्याें को आम आदमी जांचेगा और तय है कि खरा नहीं उतरने पर सरकारें बदल दी जाएंगी। मीडिया ने आम आदमी को शिक्षित कर दिया है। कंबल और नोट बांटकर सरकारें बनाने के दिन अब लदते दिख रहे हैं। बदलाव की यह सूरत एकाएक नहीं है। चौंसठ वर्ष की आजादी के बाद यह सूरत देखने को मिली है। सूरत तो बदल रही है किन्तु एकाएक किसी राज्य में सरकार की जीत को रोल मॉडल मान कर उसे दोहराने की कोशिश राजनीति दलों को भारी पड़ सकती है। स्थितियों और परिस्थितियों पर राजनीति दलों की हार-जीत तय होती है न कि एक राज्य की जीत पर दूसरे राज्य की जीत। बहरहाल, अभी तो जयकारा हो रही है बिहार की और मुख्यमंत्री नीतिश कुमार की।



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