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rone ke liye hum nahi

विलाप नहीं, कीमत खुद तय करें

-मनोज कुमार

एक नौजवान पत्रकार साथी ने शोषण के संदर्भ में एक अखबार कह कर जिक्र किया है और संकेत के तौर पर साथ में एक टेबुलाइड अखबार देने की बात भी कही है। समझने वाले समझ गये होंगे और जो नहीं समझ पाए होंगे, वे गुणा-भाग लगा रहे होंगे। यहां पर मेरा कहना है कि एक तरफ तो आप शोषण की कहानी साथियों को बता सुना रहे हैं और दूसरी तरफ आपके मन में डर है कि अखबार का नाम बता देने से आपका भविष्य संकट में पड़ सकता है। आप नौजवान हैं और पत्रकारिता के चंद साल ही हुए हैं। अपने आरंभिक दिनों में यह डर मुझे कुछ ठीक सा नहीं लगता है। बोलते हैं तो बिंदास बोलिये वरना खामोशी ही बेहतर।

पत्रकारिता में आने वाले हर साथी से हमारा आग्रह है और उन्हें सलाह भी कि पत्रकारिता में हम तो गंवाने ही आये हैं, कमाना होता तो इतनी काबिलियत है कि कहीं बाबू बन जाते और बैठकर सरकार को गालियां देते रहते। ये हमारी फितरत में नहीं है। इस तस्वीर को बदलने के लिये ही हम आए हैं। जहां तब बात शोषण की है तो सभी को यह समझ लेना चाहिए कि यह शोषण हमारी ट्रेनिंग की पहली सीढ़ी है। जब हम खुद शोषित होते हैं तो पता चलता है कि समाज में शोषण किस स्तर पर हो रहा है। मैं शोषण की तरफदारी नहीं कर रहा हूं लेकिन यह जरूर कहता हूं कि आप काबिल हैं तो अपनी कीमत खुद तय कीजिए। आपको लगता है कि आपकी एक रिपोर्ट/लेख की कीमत पांच हजार है तो उतना मांगिये और नहीं दे तो रिपोर्ट/लेख लिखने की जरूरत ही नहीं। ऐसी बातों से कुंठित होकर आप अपना समय खराब कर रहे हैं। देश के नामचीन अखबारों में शोषण आम बात है।

लगे हाथ को आपको एक मिसाल दे जाऊं, शायद अच्छा लगे और आपके काम आए। पत्रकारिता के व्यवसायिक हो जाने की बात काफी अर्से से चल रही है। आप जैसे कुछ नौजवान साथियों से इस बारे में मैंने बात की। वे भी इस बात के पक्षधर थे। मैंने उनसे एक सवाल किया कि देश के सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले अखबार में आप नौकरी करते हैं और महीने में आपको दस हजार की तनख्वाह दी जाती है। इसके बदले में आप माह भर में दस एक्स्कूलसिव खबरें देते हैं। यानि हर खबर की कीमत एक हजार रुपये। वे मेरी बात से सहमत हुए लेकिन पूरी तरह नहीं। वे तब भी यह मानने को तैयार नहीं कि पत्रकारिता व्यवसायिक नहीं हुई है। आखिरकार मुझे थोड़ा गुस्सा आया और सच से उन्हें वाकिफ करना पड़ा कि उस अखबार का सर्कुलेशन एक लाख हो तो आपको दस पैसे के हिसाब से भुगतान किया जाता है। दस पैसे की पत्रकारिता और बातें बड़ी बड़ी। तो आपने कहा है कि दो सौ से एक हजार रुपये तक का भुगतान किया जाता है तो यहां भी मामला एक खबर का भुगतान दस पैसे जैसा ही है। वे पाठक से अखबार की कीमत तीन रुपये और कहीं कहीं अधिक वसूलते हैं और बदले में पाठक को पूरे अखबार की खास खबर के नाम पर एकाध रुपये की खबर देते हैं। शेष खर्चा तो प्रबंधन में होता है।

दोस्त, सच यही है और इस सच से आप मुंह चुराएंगे या विलाप करेंगे तो स्थिति नहीं बदलने वाली। यदि आप इतने ही दुखी हैं तो साहसी साथियों को साथ लेकर कोई उपक्रम कीजिये और यह मेहनत अपने लिये कीजिये। मेरे लिये कहना आसान है किन्तु इसे व्यवहार में लाना कठिन। फिर आपको यह भी पता होना चाहिए कि पत्रकारिता में आने के लिये आपको किसी ने आमंत्रण नहीं दिया। स्थितियों को बदलने की आग लेकर पत्रकरिता के मैदान में आयें हैं तो चुनौती का सामना करना भी सीखें। मुझे वह दिन देखना है जब आप जैसे साथी कहीं लिखेंगे कि आपने अपनी कीमत खुद पहचान ली है। चलते चलते मैं बता दूं कि एक भड़ास जैसे एक नयी नवेली मीडिया वेबसाइट का निमंत्रण आया कि मैं उनके लिये लिखूं तो मैंने फौरन पूछ लिया कि कितने पैसे दोगे? तो उनका जवाब था कि हमारे यहां नीति नहीं है भुगतान की। जब उनके पास भुगतान की नीति नहीं है तो मैंने कहा था कि वेबसाइट लांच करो। बावजूद इसके वह वेबसाइट चल रही है और चलेगी भी। भड़ास पर लिखता हूं तो अपनी मर्जी से। स्वयं के आनंद के लिये और जब लगेगा कि यशवंत भाई से भी मेहनताना मांगा जाए तो पीछे नहीं हटूंगा।यह भी सच है कि आपको यह पता होना चाहिए कि गुंबद हमेशा से चमकदार होती है किन्तु बुनियाद का कोई नामलेवा नहीं होता है। विलाप नहीं, क्रांति कीजिए और शोषकों से लोहा लीजिए। 

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