ग्रीन नहीं, गरीब सिटी बोलिये....
मनोज कुमार
ये मेरे शहर को क्या हो गया है? विकास के नाम पर सरेआम मेरे शहर को उजाड़ा जा रहा है। जिन हजारों लोगों की रोजी प्रदूषण से शहर को बचाने के नाम पर छीन ली गयी उन भटसुअर के चालक मालिक भोपाल के पहचान थे बिलकुल वैसे ही जैसे आज काटे जा रहे हरे-भरे पेड़। हम सब खामोश हैं। मिटती हरियाली में हमें विकास दिख रहा है। किसी न किसी रूप में हम सब उन राजनेताओं और नौकरशाहों के साथ खड़े दिख रहे हैं जिनके लिये कल की मुसीबत आज विकास की बुनियाद है। कल्पना कीजिये कि शरीर को जला देने वाली गर्मी में भी भोपाल की सड़कों में ठंडक का अहसास होता था। बारिश में बचने के लिये किसी पेड़ की छांह तले आप खड़े हो जाते थे। जब ये पेड़ ही नहीं बचेंगे तो कौन आपके मन को शीतल करेगा और कौन बरसते पानी से भीगने से आपको बचाएगा। बड़ी खूबसूरत बसें शहर का सीना चीरकर बेदम गति से भाग रही हैं। भला लगता है इन बसों को देखना। इनमे सवारी करना लेकिन जब प्रदूषित हवाएं हम पर सवार हो जाएंगी। बीमारियां जब हमारे गले पड़ जाएंगी तब शायद भोपाल की याद आए। उस भोपाल की जिसे आज दुनिया ग्रीन सिटी के नाम से जानती है। संभव है कि प्रकृति की अकूत सम्पदा सहेजे इस शहर को गरीब सिटी के नाम से जाना जाएगा। कल तक लोग भोपाल में बसने के लिये बेताब थे किन्तु आने वाले कल में लोग भोपाल से भागने लगे।
मुझे तो यह समझ नहीं आ रहा है कि अपनी विरासत बड़ी झील को बचाने के लिये श्रमदान करने वाले भोपाली कहां गुम हो गये हैं। अपना वजूद खो बैठी बड़ी झील एक बार फिर इतराती हुई दिख रही है तो उन हजारों लोगों की मेहनत के बदौलत जिन्हें बड़ी झील बचाने का जुनुन था। वो सारे लोग एक बार फिर सड़क पर निकल आएं तो विनाश का यह खेल बंद हो जाएगा। शहर को बचाना हमारी जवाबदारी है। हम कैसे पीछे रह सकते हैं। पेड़ होंगे तो पानी होगा और पानी होगा तो जीवन। पेड़ों के जीने का अर्थ हमारा जीवन का बचना है। इससे जुड़ा एक संकट है पेड़ काटने के बाद कांक्रीट की सड़कों का बनना। कच्ची मुरूमी, डामर की सड़कों से बहने वाला पीने धरती छाती में समा जाती थी लेकिन इन कांक्रीट की सड़कों का क्या करें जो पानी को अपनी ओर रिसने भी नहीं देती हैं। नर्म मुलायम मिट्टी गुस्से से लाल होते सूरज की तपिश को अपने में समा लेती थी। अब इसकी कोई सूरत बचती नहीं दिख हरी है।
मेरी पत्नी चिंतक नहीं है, पत्रकार भी नहीं है। उसकी दुनिया उसके चौके-चूल्हे में है। वह शौकिया चित्रकार है किन्तु उसके भीतर की स्त्री को इस बात अहसास है कि पेड़ों का कटना खुशियों का खो जाना है। घर से बाजार और मेले की तरफ जाती इस गृहणी घर से खुशी खुशी निकलती है और सड़क पर आते आते उसका चेहरा किसी कटे पेड़ की तरह हो जाता है। यह चिंता उस अकेले स्त्री की नहीं है बल्कि शायद हम सबकी है। वो मुझसे अपना दुख बांट लेती है क्योंकि वह एनजीओ नहीं चलाती है जो हल्ला बोल की स्थिति में खड़ी रह सके। वह मुझे कई बार कोसने भी लगती है। कभी कभी तो वह संतों की तरह मेरी चुप्पी पर प्रवचन देने से भी नहीं चूकती है। मेरा धर्म लिखना है और मैं अपने धर्म का पालन कर रहा हूं। मैं जगाने की कोशिश कर रहा हूं। अब देखना है कि ग्रीन सिटी भोपाल को हम लोग गरीब सिटी बन जाने से कब बचा पाते हैं।
मनोज कुमार
ये मेरे शहर को क्या हो गया है? विकास के नाम पर सरेआम मेरे शहर को उजाड़ा जा रहा है। जिन हजारों लोगों की रोजी प्रदूषण से शहर को बचाने के नाम पर छीन ली गयी उन भटसुअर के चालक मालिक भोपाल के पहचान थे बिलकुल वैसे ही जैसे आज काटे जा रहे हरे-भरे पेड़। हम सब खामोश हैं। मिटती हरियाली में हमें विकास दिख रहा है। किसी न किसी रूप में हम सब उन राजनेताओं और नौकरशाहों के साथ खड़े दिख रहे हैं जिनके लिये कल की मुसीबत आज विकास की बुनियाद है। कल्पना कीजिये कि शरीर को जला देने वाली गर्मी में भी भोपाल की सड़कों में ठंडक का अहसास होता था। बारिश में बचने के लिये किसी पेड़ की छांह तले आप खड़े हो जाते थे। जब ये पेड़ ही नहीं बचेंगे तो कौन आपके मन को शीतल करेगा और कौन बरसते पानी से भीगने से आपको बचाएगा। बड़ी खूबसूरत बसें शहर का सीना चीरकर बेदम गति से भाग रही हैं। भला लगता है इन बसों को देखना। इनमे सवारी करना लेकिन जब प्रदूषित हवाएं हम पर सवार हो जाएंगी। बीमारियां जब हमारे गले पड़ जाएंगी तब शायद भोपाल की याद आए। उस भोपाल की जिसे आज दुनिया ग्रीन सिटी के नाम से जानती है। संभव है कि प्रकृति की अकूत सम्पदा सहेजे इस शहर को गरीब सिटी के नाम से जाना जाएगा। कल तक लोग भोपाल में बसने के लिये बेताब थे किन्तु आने वाले कल में लोग भोपाल से भागने लगे।
मुझे तो यह समझ नहीं आ रहा है कि अपनी विरासत बड़ी झील को बचाने के लिये श्रमदान करने वाले भोपाली कहां गुम हो गये हैं। अपना वजूद खो बैठी बड़ी झील एक बार फिर इतराती हुई दिख रही है तो उन हजारों लोगों की मेहनत के बदौलत जिन्हें बड़ी झील बचाने का जुनुन था। वो सारे लोग एक बार फिर सड़क पर निकल आएं तो विनाश का यह खेल बंद हो जाएगा। शहर को बचाना हमारी जवाबदारी है। हम कैसे पीछे रह सकते हैं। पेड़ होंगे तो पानी होगा और पानी होगा तो जीवन। पेड़ों के जीने का अर्थ हमारा जीवन का बचना है। इससे जुड़ा एक संकट है पेड़ काटने के बाद कांक्रीट की सड़कों का बनना। कच्ची मुरूमी, डामर की सड़कों से बहने वाला पीने धरती छाती में समा जाती थी लेकिन इन कांक्रीट की सड़कों का क्या करें जो पानी को अपनी ओर रिसने भी नहीं देती हैं। नर्म मुलायम मिट्टी गुस्से से लाल होते सूरज की तपिश को अपने में समा लेती थी। अब इसकी कोई सूरत बचती नहीं दिख हरी है।
मेरी पत्नी चिंतक नहीं है, पत्रकार भी नहीं है। उसकी दुनिया उसके चौके-चूल्हे में है। वह शौकिया चित्रकार है किन्तु उसके भीतर की स्त्री को इस बात अहसास है कि पेड़ों का कटना खुशियों का खो जाना है। घर से बाजार और मेले की तरफ जाती इस गृहणी घर से खुशी खुशी निकलती है और सड़क पर आते आते उसका चेहरा किसी कटे पेड़ की तरह हो जाता है। यह चिंता उस अकेले स्त्री की नहीं है बल्कि शायद हम सबकी है। वो मुझसे अपना दुख बांट लेती है क्योंकि वह एनजीओ नहीं चलाती है जो हल्ला बोल की स्थिति में खड़ी रह सके। वह मुझे कई बार कोसने भी लगती है। कभी कभी तो वह संतों की तरह मेरी चुप्पी पर प्रवचन देने से भी नहीं चूकती है। मेरा धर्म लिखना है और मैं अपने धर्म का पालन कर रहा हूं। मैं जगाने की कोशिश कर रहा हूं। अब देखना है कि ग्रीन सिटी भोपाल को हम लोग गरीब सिटी बन जाने से कब बचा पाते हैं।
सच बहुत अंतर हो गया है पहले और अब के भोपाल में ..
जवाब देंहटाएंचिंतनशील प्रस्तुति ..