सरकार के डरने का डर
मनोज कुमार
इन दिनों एक बात सुनियोजित ढ़ंग से स्टेबलिस करने की कोशिशें हो रही हैं कि सरकार डर रही है। सरकार के डर के पीछे के जो कारण बताये जा रहे हैं, उसकी मीमांसा अलग अलग ढ़ंग से हो रही है किन्तु कहीं भी कोइ्र भी, इसका तर्कपूर्ण जवाब नहीं दे पा रहा है। विवाद की स्थिति को निपटाने को सरकार का डर कहा जा रहा है तो इस पर कोई तर्क नहीं किया जा सकता है। एक लोकतांत्रिक सरकार का दायित्व होता है कि वह हर अवसर पर आगे आकर लोगों की सुने, समझे और एक सर्वमान्य हल निकालने की कोशिश करे। हाल-फिलहाल केन्द्र सरकार यही कर रही है और इसे सरकार के डरने की बात कही जा रही है। मेरे विचार से यह निरर्थक प्रयास है। सरकार तो सरकार होती है और डरने का शब्द उसकी डिक्शनरी में नहीं होता है और होना भी नहीं चाहिए। अक्सर होता यह है कि जो फैसले हमारी मर्जी के मुताबिक होते हैं, उन्हें हम सही फैसला मान लेते है किन्तु जब ऐसा नहीं होता है तो हम उस सरकार की कमजोरी मान लेते हैं।
सरकार के डरने का शब्द सबसे पहले गढ़ा गया अन्ना हजारे के लोकपाल के मुद्दे को लेकर। सरकार ने पहल की और हजारे की बात सुनी और अपनी बात रखी। सरकार ने अलग अलग आयामों पर सोचा होगा, समझा होगा और सरकार हजारे की बात से सहमत हुई। सरकार के इस फैसले को उसके डरे होने का फैसला माना गया। इसी मामले में अब बाबा रामदेव अनशन की धमकी दे रहे हैं। सरकार एक बार फिर पहल कर बाबा को समझाने के लिये आगे आयी तो इसे भी सरकार का डर बताया जा रहा है। अभी हाल में आतंकवादियों को सजा देने और न देने के मुद्दे में सरकार को डरा हुआ कहा गया है। सवाल यह है कि सरकार डरे तो किससे और क्यों? कोई माकूल जवाब तो लोगों के पास हो। अनुभव यही बताता है कि मीडिया रोज एक नया शब्द गढ़े और उसे प्रचारित कर दे। जो शब्द चलन में आ जाए, वही चरित्र बन जाता है। कभी शाइनिंग इंडिया शब्द गढ़ा गया था और उसका जो हश्र हुआ वह सब जानते हैं। जहां तक सरकार के डरने का मामला है तो यह गफलत पैदा करता है और गफलत का खामियाजा पूरे समाज को भुगतना होता है। मीडिया शब्दों के चयन को लेकर सावधान नहीं है। उसकी यह प्रवृत्ति आने वाले समय के लिये घातक और मारक है।
सरकार के डरने को लेकर एक इमेज बनाने की जो कोशिशें हो रही हैं, वह दुखद है। सरकार एक तंत्र है और तंत्र पूरी व्यवस्था के साथ काम करता है। सरकार में केवल राजनीतिक दल के चुने हुए लोग ही शामिल नहीं होते हैं बल्कि प्रशासनिक और सामाजिक दायित्वों वाले लोगों की भागीदारी भी होती है जो सरकार के सभी निर्णय में शामिल होते हैं। मीडिया हमेशा विपक्ष की भूमिका में रहता आया है और रहना भी चाहिए किन्तु विपक्ष का अर्थ विरोध करना नहीं बल्कि सरकार को सर्तक करना भी होता है। सरकार डरती तो महंगाई काबू आने में घंटों लगते, सरकार डरती तो मेघा पाटकर का आंदोलन कभी का खत्म हो जाता, सरकार डरती तो घोटालों का पर्दाफाश नहीं हो पाता, सरकार डरती तो और भी जाने क्या क्या हो जाता। किसी आतंकवादी को फांसी न देने अथवा अन्ना हजारे या बाबा रामदेव से चर्चा की पहल को सरकार का डर बताना सर्वथा अनुचित है। सरकार के इन फैसलों को लोकतांत्रिक चश्मे से देखा जाना चाहिए न कि सरकार के विरोधी बनकर।
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