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रंगमंडल की उदासी से मुस्कराया राज्य नाट्य विद्यालय

मनोज कुमार

तीस बरस पहले जब भोपाल में भारत भवन की स्थापना हुयी थी तो यह भारत भवन एक उम्मीद की बुनियाद थी। संस्कृति, कला और साहित्य के लिये। भारत भवन के बूते भोपाल ने पूरे विश्व में एक सांस्कृतिक नगर का गौरव पाया था। बाद के  वर्षाें में अपने अनेक उत्कृष्ट आयोजनों के साथ दुनिया के कला मंच पर भारत भवन की ख्याति बढ़ती गयी और उम्मीदें भी। आहिस्ता आहिस्ता समय गुजरता गया। इस गुजरते समय ने भारत भवन की पहचान को पुख्ता नहीं किया बल्कि ख्याति सीजने लगी। स्वार्थाें की यह सड़न और सीड़न ने भारत भवन को असमय असामयिक बना दिया। तीस बरस के इस सफर में उसकी खूबियां, उसकी कामयाबी और उसकी चमक विवादों में खो गयी। कल का कलागृह अब कलह गृह के रूप में पहचाना जाने लगा और बाद के वर्षाें में यही उसकी स्थायी पहचान बन गयी। इस तीस बरस की समीक्षा करेंगे तो पाएंगे कि जिस तरह संस्कृति और कला के साधकों ने इस पर अपनी धाक जमाने की कोशिश की तो राजनेताओं ने भी इसे भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। दिल्ली तक अपनी आवाज की छाप छोड़ने के लिये जब भी जरूरत पड़ी, भारत भवन का इस्तेमाल किया गया। राजनीतिक गलियारों में भी भारत भवन को लेकर उत्पन्न हुआ रोमांच आहिस्ता आहिस्ता थम सा गया।

भारत भवन के बारे में चर्चा करें तो रंगमंडल एक बड़ा अध्याय होता है। लगभग पन्द्रह बरस पहले हमने भारत भवन के कलाकारों और उनसे जुड़े संस्कृति के लोगों से चर्चा में इस बात पर जोर दिया था कि रंगमंडल भारत भवन के परिसर से बाहर क्यों नहीं जाता है? तब छत्तीसगढ़ अलग नहीं हुआ था। इस बारे में तर्क कम और कुतर्क अधिक था। रंगमंडल की गतिविधियों का विकेन्द्रीकरण नहीं हो सका और जो जहां था, वहीं का रह गया। एन.एस.डी. की जो पहचान थी, उससे इतर भारत भवन के रंगमंडल के पहचान बनाने की कोई कोशिश नहीं हुई। कभी अपने प्रभावशाली प्रदर्शनों के लिये रंगमंडल की एक छाप थी, यह छाप भी धुंधलाता गया। रंगमंडल लगभग नेपथ्य में ही चला गया। आज भारत भवन के आंगन में लगातार नाटकों का प्रदर्शन हो रहा है किन्तु इसकी गुणवत्ता पर कोई चर्चा
नहीं होती है। नाटकों को दर्शकों का अभाव लगातार बना हुआ है। शुक्र इस बात का करना चाहिए कि एक सिलसिला तो कायम है।
कभी इस बात को गौर से न तो सोचा गया और न ही किया गया कि आखिर इस सांस्कृतिक विरासत का संवर्धन और संरक्षण कैसे किया जाए, इसका परिणाम यह हुआ कि भारत भवन को विस्तार देने के बजाय उसके बराबर में दूसरी संस्थाएं खड़ी की गई। विस्तार का यह चेहरा भी बुरा नहीं है लेकिन सुखकारक नहीं कहा जा सकता है। भारत भवन के बराबर में कोई और खड़ा हो तो गुरेज नहीं लेकिन एक विरासत को विस्तार देना ज्यादा सार्थक होता। इस स्थिति के लिये भारत भवन परिवार ही ज्यादा दोषी है। जिन लोगों ने भारत भवन में रहकर सीखा, समझा और कम से कम देश में अपना नाम किया, वे लोग भारत भवन से परे हो गये। अपनी एक नयी दुनिया गढ़ ली। अपने को आबाद कर गये और जहां से सीखा, नाम पाया, उसे अकेला छोड़ गये। भारत भवन एक बिÏल्डग है, बस्ती नहीं। बस्ती होती तो शोर होता। शोर उन लोगों के खिलाफ जिन लोगों ने एक पीढ़ी गढ़ने तक भी इंतजार नहीं किया। बाबा कारंत, स्वामीनाथन के देहांत के बाद भारत भवन की रौनक कम हुई है। यह प्रकृति का नियम है। एक दिन उन्हें हमसे बिछड़ना था तो प्रकृति ने यह नियम भी बनाया है कि परम्परा को आगे बढ़ाने के लिये कुछ लोग शिक्षित होते हैं और वे उनकी परम्परा को आगे बढ़ाते हैं। भारत भवन इस मामले में दुर्भाग्यशाली रहा। बिलकुल उसी तरह जिस तरह देश के अनेक प्राचीन और ख्यातिनाम संस्कृति और शिक्षा के घर दुर्भाग्यशाली रहे हैं।

प्रकृति का एक और नियम है। यह नियम कहता है कि तू नहीं और सही, इसी की तर्ज पर राज्य नाट्य विद्यालय की स्थापना हो गयी। राज्य नाट्य विद्यालय की मुस्कराहट रंगमंडल की इस उदासी का ही परिणाम मानने में किसी को हिचक नहीं होना चाहिए। जो काम रंगमंडल अपने चमकते दिनों में कर सकता था, उसने नहीं किया और आज वही काम राज्य नाट्य विद्यालय कर रहा है। छत्तीसगढ़ अलग हो जाने के बाद मध्यप्रदेश के अंचलों में राज्य नाट्य विद्यालय के विद्यार्थी नये किस्म के प्रयोग कर रहे हैं। वे सीखने के बाद प्रदर्शन के लिये दिल्ली तक अन्तर्राष्ट्रीय प्रदर्शन में पहुंच गये हैं। एक कल्पनाशील संस्कृति अधिकारी के बूते राज्य नाट्य विद्यालय की यह कामयाबी चमत्कारिक नहीं है बल्कि योजनाबद्ध तरीके से अपने उद्देश्य को अंजाम तक पहुंचाना है। इसे रंगमंडल की नाकामयाबी तो मान ही लेना चाहिए।

भारत भवन के इस तीस बरस के सफर में पहले दस साल बहुत खुशनुमा रहे। संस्कृति, साहित्य और कला का संगम को देखना अभूतपूर्व था। बाद के दस वर्ष में यह अहसास थोड़ा कम हुआ और बचे दस वर्षाें में भारत भवन लगभग अनदेखा किया गया। आयोजनों की खनक अब वैसी ऊर्जा उत्पन्न नहीं करती जैसा कि खजुराहो का नृत्य उत्सव आज भी करता है। अब भारत भवन के वर्षगांठ की प्रतीक्षा वैसी नहीं रहती जैसा कि मध्यप्रदेश आदिवासी लोककला परिषद के लोकरंग के आयोजन को लेकर आज भी है। भारत भवन के आंगन में होने वाले राज्य के प्रतिष्ठापूर्ण सम्मान समारोह भी अब बेसमय होने लगे हैं। एक सच यह भी है कि दस बीस बरस पहले भोपाल आने वाले लोगों की उत्कंठा भारत भवन देख लेने की होती थी, वह भी आहिस्ता आहिस्ता मरने लगी है। अब उम्मीद कर सकते हैं कि भारत भवन में एक सुबह होगी जो अपने गौरव को लौटाने के संकल्प के साथ होगी। एक आस फिर जागेगी जो कला और संस्कृति के लिये आम आदमी में भारत भवन की तरफ लौटने को विवश करेगी। बस एक उम्मीद ही है भारत भवन का फिर से भारत भवन बन जाने की।


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