मनोज कुमारहम बचपन में एक खेल खेला करते थे। कोई हमसे आगे न निकल जाये, इसके लिये हम कहते थे कि तु जितना बलवान है, मैं उससे दस गुना ज्यादा बलवान हूं। साथी संगी कहते कि हम तेरे से दस गुना ज्यादा बलवान हैं तो मैं कहता कि पहले ही कह दिया कि तुमसे दस गुना ज्यादा यानि जितना कहोगे उससे हमेशा यह ज्यादा ही रहेगा। बचपन के इस खेल को आज भोपाल में दुहराते हुए देखने का मौका मिला है। हमारा खेल बचपन का था जिसमें कोई स्वार्थ नहीं था लेकिन भोपाल में इन दिनों जो खेल खेला जा रहा है, वह अपने अपने स्वार्थाें के लिये है। दामुल वाले प्रकाश झा भोपाल में पहली दफा राजनीति की शूटिंग करने आये थे और इसके बाद आरक्षण बना डाला। राजनीति से आरक्षण बनाते समय तक न तो उन्हें भोपाल अपना लगा था और न ही उन्होंने कभी भोपाल को अपना घर कहने की बात की थी। इस बार जब अपनी वो एक नयी फिल्म की शूटिंग के लिये आये हैं और कुछ विवाद सामने आया तो उन्होंने कह दिया कि अब से भोपाल मेरा पहला घर। झा की तर्ज पर साथी कलाकारों ने भी भोपाल को अपना कह दिया। एकाध ने तो भोपाल से पुराना रिश्ता ही ढूंढ़ निकाला।
बचपन की यादें ताजा हो गर्इं। प्रकाश झा ने भोपाल को अपना घर क्या कह दिया, बयानों की बरसात लग गयी। अच्छा लगता है जब मेरे भोपाल को ये लोग अपना भोपाल कहते हैं। मुझे इस बात से ऐतराज नहीं है कि प्रकाश झा हों या कोई और जो भोपाल को अपना कहे। मुझे दर्द इस बात का है कि तीन-चार बरस पहले यहां फिल्म की शूटिंग करने आये तो उन्हें अपने भोपाली होने का अहसास हो गया। इसके पहले इतने बरसों तक वे कहां थे, भोपाल तो तब भी था। उसी शान और ठाठ के साथ। प्रकाश झा के आ जाने से भोपाल के तेवर और तासीर में बदलाव नहीं आया है और न किसी एक प्रकाश झा के आने से बदलेगा। प्रकाश झा के लिये आज भोपाल उनका पहला घर है, पूरा प्रदेश उनका नहीं है, यह बात भी उन्होंने साफ कर दी है। मेरे प्रदेश के भोले-भाले कलाकारों को शूटिंग के लिये बुलाना और उन्हें बैरंग लौटा देना हमारे प्रदेश की रवायत नहीं है। वो तो भला हो सह्दयी मुख्यमंत्री शिवराजसिंह का जिन्होंने कलाकारों का दर्द सुना और उन्हें सम्मान भोजन कराया। प्रकाश झा अपना मानते हो तो अपनों की तरह बर्ताव करना भी सीखो। सिर्फ यह कह देना ही पर्याप्त नहीं होगा कि अब भोपाल मेरा पहला घर है। भोपाल में फिल्म बनाओ, भोपालियों को रोजगार दो और खुद भी मालामाल हो जाओ, कोई ऐतराज नहीं करेगा लेकिन सिर्फ काम के लिये किसी को अपना बना लेने की प्रवृत्ति ठीक नहीं है। इससे उबर जाएंगे तो फिल्म से बड़ा केनवास जिंदगी का है। इसमें रंग भरने की जरूरत है। खुशी की, प्यार की और अपनेपन की।
विभाजन का दर्द और उसकी पीड़ा प्रकाश झा नहीं समझते होंगे लेकिन मैं महसूस करता हूं। कभी मेरा मध्यप्रदेश विशाल हिन्दी प्रदेश हुआ करता था। राजनीति बिसात में मात खाने के बाद मेरे प्रदेश के दो खाने हो गये। एक राज्य रह गया मध्यप्रदेश और दूसरे को नाम मिला छत्तीसगढ़। मैं छत्तीसगढ़ में पैदा हुआ हूं और लोगों की सलाह थी कि राज्य के विभाजन के बाद मुझे छत्तीसगढ़ चले जाना चाहिए। ये सलाहकार उन्हीं प्रकाश झा जैसे लोगों में से हैं जो अवसर की तलाश में रहते हैं। खैर, इन सलाहकारों को मेरा धन्यवाद लेकिन मैं भौगोलिक विभाजन को विभाजन नहीं मानता। मेरी जन्म भूमि छत्तीसगढ़ है। मैं उन्हें बारंबार प्रणाम करता हूं किन्तु विभाजन के पहले से मैं मध्यप्रदेश में हूं और कर्मभूमि मेरी मध्यप्रदेश है। मैं दोनों प्रदेश का बेटा हूं। दोनों ने मुझे नाम दिया, सम्मान दिया और समाज में स्थान। मेरे लिये छत्तीसगढ़ भी उतना ही अर्थवान है जितना कि मध्यप्रदेश। विभाजन के बाद मैं यह नहीं कहता कि मध्यप्रदेश अब मेरा पहला घर है बल्कि कहता हूं कि दोनों राज्य मेरे अपने हैं। मेरा तो मानना है कि मैं भारतीय हूं और भारत जन्मभूमि का हर स्थान मेरे लिये वही मायने रखता है जो मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़। कहीं मुझ कर्म करने का अवसर मिले तो उसे अपना पहला घर कहने की भूल नहीं करता। प्रकाश झा बड़े फिल्मकार हैं। बड़ी सोच के साथ फिल्म बनाते हैं तो उन्हें कहना चाहिए कि मध्यप्रदेश उनके पसंदीदा राज्यों में एक है। पूरा हिन्दुस्तान उनका घर है। विशाल भारतभूमि पर किसी एक व्यक्ति का हक नहीं, बल्कि सभी भारतीयों का है। अलग अलग स्वार्थाें से पहले ही भारत के राज्यों में विभाजन रेखा खींच रही है और इस रेखा को बढ़ाने के बजाय समेटे जाने की जरूरत है। ये मेरा घर, ये तेरा घर कहने की मानसिकता से उबरना होगा तब ही हम विभाजन की दरार को पाट सकते हैं।
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