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अपने अपने आग्रह और सत्याग्रह



मनोज कुमार

इसे गुदगुदाने वाला अनुभव ही कहा जा सकता है। महात्मा गांधी अचानक से अपने विरोधियों के लिये भी आदर्श बन गये हैं। हर कोई स्वयं को महात्मा का अनुगामी बता रहा है। गांधीजी को लेकर विलाप का दौर जारी है। उनके स्मृति चिन्हों की नीलामी को लेकर चिंता तो खूब जतायी जा रही है किन्तु विश्व के अनेक हिस्सों में सुरक्षित महात्मा गांधी के स्मृति चिन्हों को सहेजने की चिंता किसी ने नहीं की। जिन लोगों को गांधीजी के आग्रह और सत्याग्रह पर कभी यकिन नहीं था, वे सभी आग्रही और सत्याग्रही बन पड़े हैं। राजनीति से परे रहने वाले गांधीजी के नाम पर यह राजनीति एक अलग किस्म की है। सात्विक दिखकर, अहिंसा के मार्ग पर चलकर सत्ता तक पहुंचने का यह अभिनव अभिनय की एक मिसाल पेश की जा रही है। समाजसेवियों से लेकर राजनेताओं तक को अब गांधीजी का सहारा चाहिए। यह सुखद भी है कि आजादी के छह दशक से ज्यादा समय गुजर जाने के बाद जब हम गांधीजी की जरूरत महसूस करते हैं तो लगता है कि गांधीजी सर्वकालिक रहे हैं और रहेंगे लेकिन उनके सामयिक हो जाने का अर्थ अलग अलग है।

मुन्ना भाई एम.बी.बी.एस. फिल्म में गांधीजी को जिस रूप में दिखाया गया और नकलची छात्रों को उस रूप में देखना दुर्भाग्यजनक है। बिलकुल वैसा ही कि राजनीतिज्ञ अपनी मांगों को मनवाने के लिये राजनीति का सहारा लेने के बजाय गांधीजी के आग्रह और सत्याग्रह को लाठी बनाकर उसका सहारा ले रहे हैं। गांधीजी का आग्रह और सत्याग्रह कभी स्वार्थसिद्धि के लिये नहीं रहा। अंग्रेजों को अपने आग्रह और सत्याग्रह से झुकाने वाले गांधीजी ने जो कुछ उपक्रम किया, वह भारतवासियों के लिये किया। आज के ये नकली गांधी अनुगामी नेता जो कुछ कर रहे हैं, वे सिर्फ और सिर्फ अपने लिये। सत्ता में बने रहें या सत्ता की राह सुगम हो सके, इसके लिये वे गांधी का स्मरण कर रहे हैं। उनके आग्रह और सत्याग्रह के मार्ग पर चलने का स्वांग रच रहे हैं। गांधीजी के इन अनुगामियों को कभी इस बात का इल्म नहीं हुआ कि वे हिंसा के खिलाफ कोई गांधीवादी सोच को जमीं पर उतारें। हिंसा को हिंसा के रास्ते निपटाने की कोशिश हो रही है और जब इस कोशिश के बारे में बात की जाती है तो लोकतंत्र की दुहाई दी जाती है। लॉ एंड ऑर्डर की बात कही जाती है। व्यवस्था में गांधीवादी विचार एकदम से विलुप्त हो जाता है। यह दुर्भाग्यजनक है। 

सौ बरस पहले लिखा गया हिन्द स्वराज इस दौर का सबसे पठनीय किताब बन चुकी है। हिन्द स्वराज जिन लोगों ने पढ़ी है, उन्हें मालूम है कि यह किताब क्या संदेश देती है। हिन्द स्वराज का मैं पॉकेट संस्करण को पढ़ रहा था। इस किताब में पाठक और सम्पादक के बीच संवाद है। मेरी जिज्ञासा इस बात को लेकर थी कि ये पाठक कौन है और सम्पादक कौन? गांधीजी की इसमें क्या भूमिका है। हिन्द स्वराज का गीत गाने वाले लगभग एक दर्जन सुधिजनों से इस सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश किन्तु अधिकांश टाल गये अथवा आधा-अधूरा जवाब देकर खुद को बरी कर लिया। इन्हीं में से एक ने जरूर मुझे मुकम्मल जवाब दिया। तब मुझे पता चला कि गांधीजी ने स्वयं को पाठक बनकर सवाल किया और स्वयं सम्पादक बन का पाठक की जिज्ञासा को शांत करते रहे। गांधीजी अनेक किस्म के सवाल स्वयं से करते थे और जवाब भी तलाशते थे। उनके मन में कहीं यह था कि आम पाठकों के मन में भी इस तरह के सवाल आते होंगे। जब वे जहाज में लम्बी यात्रा पर होते थे तो ऐसे सवाल स्वयं गढ़ते और जवाब देने की कोशिश करते। उनकी यही कोशिश बाद में हिन्द स्वराज के नाम से आयी। इस तरह मुझे हिन्द स्वराज के बारे में जानकारी मिली। जो लोग हिन्द स्वराज को केन्द्र में रखकर चर्चा-परिचर्चा कर रहे हैं, उन्हें हिन्द स्वराज की रचना की पृष्ठभूमि से पाठकों को अवगत कराना चाहिए ताकि आयोजकों का प्रयास प्रभावी हो सके।

गांधीजी के आग्रह-सत्याग्रह से लेकर हिन्द स्वराज की चर्चा और परिचर्चा में गांधीजी होकर भी नहीं हैं। वे संकेत मात्र हैं। उनकी जनस्वीकार्यता है अत: सत्ता के करीब पहुंचने का माध्यम बनाकर गांधीजी का स्मरण करने की कोशिशें जारी हैं। जिस देश में एम.जी रोड लिखा जाता हो, जहां महात्मा गांधी मार्ग बोलने में संकोच और शर्म हो, जिस देश में महात्मा गांधी २ अक्टूबर और ३० जनवरी तक सीमित रह गये हों, उस देश में सत्ता मार्ग के लिये एमजी रोड सुविधाजनक होता है। आग्रह, सत्याग्रह, चर्चा और परिचर्चा सिर्फ विलाप करने का जरिया है। दुख को तो इस बात का भी होता है कि एक और गांधी जैसे विशेषण से उन लोगों को महिमामंडित किया जाता है जिनकी निगाहें जनकल्याण के लिये नहीं बल्कि स्व-कल्याण के लिये लगी होती हैं। सच में महात्मा के प्रति इतना ही आग्रह है तो हिंसा को अहिंसा में बदलने की कोशिश हो, राजस्व बढ़ाने के लिये शराब की दुकानें खोलने की सहमति असहमति में बदल जाये तभी कुछ उम्मीद बंधेगी।  

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