30 मई पत्रकारिता दिवस पर विशेष
मनोज कुमार
भवानी भाई, पत्रकारिता और बाजार शीर्षक शायद आपको अटपटा लगे लेकिन तीनों के बीच का अन्तर्सबंध आगे चलकर हम समझने की कोशिश करेंगे। मैं गीत बेचता हूं किसम किसम के गीत बेचता हूं..दशकोंं पहले भवानी प्रसाद मिश्र ने जब यह गीत लिखा होगा तो उन्हें इस बात का अहसास रहा होगा कि आने वाले दिनों में पत्रकारिता भी किसम किसम के खबरें बेचेगी। जिसे जो पसंद होगा और जिसके जेब में दाम देने की गुरबत होगी, वह अपनी पसंद की खबर बनवायेगा और छपवायेगा। आज की पत्रकारिता का यही सच है।
यह भी सच है कि 30 मई 1826 को उदंत मार्तण्ड का प्रकाशन आरंभ करते समय पंडित जुगलकिशो शर्मा को इस बात का कतई अहसास नहीं रहा होगा कि पत्रकारिता के ऐसे दिन भी आएंगे। वे तो पत्रकारिता को समाज सुधार का एक माध्यम मानते थे और इसी बूते पर उन्होंने पत्रकारिता के माध्यम से अंग्रेजी शासकों से लोहा लेने की जुर्रत दिखायी। वे कामयाब भी हुए किन्तु जिस पत्रकारिता की तब उन्होंने कल्पना की होगी और जिसे समाज सुधार का माध्यम माना होगा, वह पत्रकारिता सन् 2012 आते आते तक मीडिया में तब्दील हो गया। मीडिया का सामान्य सा अर्थ है माध्यम और इस माध्यम को बाजार ने अपना औजार बना लिया है।
पंडित जुगलकिशोर से लेकर उनके समकालीन व्यक्तित्व के लिये पत्रकारिता के मायने और अर्थ सकरात्मक थे किन्तु इनसे आगे जाकर पंडित भवानी प्रसाद मिश्र ने भविष्य को भांपा और गीत बेचने की बात कही। भवानी भाई पत्रकारिता के आने वाले दिनों के बारे में भले ही अनजान रहे हों लेकिन पत्रकारिता की दशा को शायद उन्होंने पहचान लिया था। उन्हें इस बात का भी अहसास था कि आने वाले समय में समाज पर बाजार का कब्जा होगा। तब अकेले पत्रकारिता या साहित्य बाजार के इशारे पर लिखी, रची नहीं जाएगी बल्कि समूचा समाज बाजार के इशारे पर होगा। यह ठीक है कि आज की तारीख में पत्रकारिता जिसे हम मीडिया कह रहे हैं, ने पत्रकारिता का समूचा स्वरूप ही बदल दिया है। पत्रकारिता हाशिये पर है और मीडिया का वर्चस्व है, इस बात से इंकार करना मुश्किल है।
पत्रकारिता हाशिये पर है किन्तु मीडिया पत्रकारिता की बुनियाद पर अपने अस्तित्व को बनाये हुए है क्योंकि पत्रकारिता और मीडिया का फकत फर्क इतना ही है कि पत्रकारिता सामाजिक सरोकार की बात करती है और मीडिया स्वस्वरोकार की। एक ऐसे मुद्दे की जहां उसे अधिकाधिक लाभ मिल सके किन्तु पत्रकारिता अपने जन्मकाल से जैसा था, वैसा ही है। वह सामाजिक सरोकार के मुद्दे पर बात करती है। पत्रकारिता के लिये जरूरी नहीं है कि वह समाज के बदलते जीवनशैली को विषय बनाये बल्कि उसके लिये जरूरी है कि वह बार बार लौटकर उन गांवों की तरफ जाए जहां आजादी के साठ दशक बाद भी पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क जैसी बुनियादी जरूरतों की कमी है। ठीक इसके उलट मीडिया के लिये जरूरी है कि समाज की जीवन शैली ऽैसे बदल रही है, वह क्या खाना पसंद करता है और किस कम्पनी के कपड़े उसके बदन को फबते हैं। वह किस कीमत का टेबलेट मोबाइल इस्तेमाल करता है, किस कीमत की कार में घूमता है। मीडिया की यह विषय-वस्तु उसकी जरूरत है क्योंकि इन्हीं विषयों से उसका धनोपार्जन होता है।
भवानी भाई का गीत जी हां, हुजूर मैं गीत बेचता हूं और मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी कफन आज की पत्रकारिता की सच्चाई है। भवानी भाई ने इस गीत की रचना भावावेश में नहीं की होगी और संभव है कि उन दिनों पत्रकारिता की ऐसी बाजारू अवस्था भी नहीं रही होगी, ठीक वैसे ही जब मुंशी प्रेमचंद ने कफन लिखा होगा। दोनों रचनाकारों को आने वाले दिनों का अहसास रहा होगा। गीत बेचने और कहानी कफन वर्तमान समय की सच्चाई है। यह पूरे समाज का सच है किन्तु इसे पत्रकारिता को केन्द्र में रखकर समझने की कोशिश करना होगी। वह इसलिये भी कि जिस पत्रकारिता के दम पर हमने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये, आज वही पत्रकारिता सवालों के कटघरे में है। पेडन्यूज आज पत्रकारिता का तखल्लुस बनता चला जा रहा है। सामाजिक सरोकार और पेडन्यूज में तुलना करेंगे तो पाएंगे कि सामाजिक सरोकार की खबरों के दम पर ही पत्रकारिता की सांसें टिकी हुई है किन्तु पेडन्यूज की बात करते हैं तो वह पत्रकारिता पर एक दाग की तरह ही है क्योंकि ऽुछ खास अवसरों पर पेडन्यूज का मामला उठता है।
30 मई को जब हम गर्व के साथ हिन्दी पत्रकारिता का दिवस मनाने की बात करते हैं तब यह दिन केवल उत्सव का दिन नहीं होता है बल्कि यह दिन होता है आत्ममंथन का, स्वयं के विवेचन का। स्वयं को परखने का कि आखिर आज तक के सफर में हमने क्या पाया और क्या खोया। भवानी भाई के बहाने पत्रकारिता और बाजार की पड़ताल की जरूरत हमेशा बनी रहेगी। मीडिया खबरें ढूंढ़ती नहीं बल्कि गढ़ती है बिलऽुल उसी तरह जिस तरह एक कारखाना किसी वस्तु का उत्पादन करता है। शायद यही कारण है कि बार बार मीडिया को उद्योग का दर्जा दिये जाने की मांग और बात की जाती रही है। मेरे जेहन में एक सवाल यह उठता है कि जो मीडिया समाज का चैथा स्तंभ है, वह उद्योग कैसे बन सकता है अथवा बनाया जा सकता है। यदि मीडिया को उद्योग का दर्जा दिया जाना संभव है और इससे संबद्ध लोग सहमत हैं तो हमें मीडिया को चैथा खंभा कहने से स्वयं को बरी कर लेना चाहिए। किसी खंभे का अर्थ होता है जवाबदारी और एक उद्योग जबावदार हो सकता है किन्तु उसकी प्राथमिकता उसके लाभ से संबद्ध होती है। मुझे नहीं लगता है कि पत्रकारिता को उद्योग बनाया जाना चाहिए और यदि ऐसा है तो एक बार फिर भवानी भाई का गीत अपने होने की सार्थकता प्रमाणित करता है।
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