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विश्वास का संकट



-मनोज कुमार

भोपाल राजधानी तो है किन्तु महानगर नहीं बन पाया है. भोपाल के अपने ठाठ हैं और भोपाली कहलाने का गर्व भी अलग से तरह से होता है. इन दिनों भोपाल थोड़ा बहुत महानगर के रास्ते पर चलने की कोशिश कर रहा है. तांगों और रिक्शों की इस शहर से विदाई तो कभी की हो चुकी है. तेज रफ्तार से भागती गाडिय़ां महानगर होने का अहसास कराती हैं. मेरे भोपाल में भी मॉल संस्कृति की धमक सुनायी देने लगी है. मैं भी इस नयी संस्कृति के गवाह होने का सुख ले रहा हूं. एक बड़े भव्य मॉल में जाने का मौका मिला. सामने से उसकी चमक-दमक देखकर ही मेरे पसीने छूट गये. इस पसीने यह तो बता दिया कि मेरी लाख कोशिशों के बाद मैं अपने ठेठ देहातीपन से बाहर नहीं आ पाया हूं. खैर, मॉल के भीतर कदम रखने से पहले ही विश्वास के संकट से मेरा सामना हो गया. दरवाजे पर खड़े लोगों ने मशीन से मेरी तलाशी ले डाली, गोया मैं ग्राहक नहीं, आतंकवादी हूं,  झटपट वहां से निकला, आगे बढ़ा. विश्वास के संकट के साथ मैं हर दुकान के सामने से निकलता चला जा रहा था. डर लग रहा था कि फिर कोई रोक कर तलाशी न ले ले. हिम्मत कर मैं एकाध दुकान में गया तो पता चला कि दुकान में लगा कैमरा मेरी निगरानी कर रहा है. इस निगहबानी को देखकर एक बार फिर मैं अपने गांव पहुंच गया. गांव के बनिये की दुकान पर पहुंच कुछ अपनी सुनायी और कुछ उसकी सुनी. कुछ सौदा-सुलह किया और घर को लौट आये. कभी कोई सामान ज्यादा आ गया तो बनिया को लौटा आये और कभी ज्यादा पैसे दे आये तो वो मेरा हिसाब में बकाया लिख लिया. बरसों से बना विश्वास का रिश्ता.

इस मॉल संस्कृति में आपस में सुख-दुख सुनने सुनाने की बात तो दूर विश्वास का रिश्ते की कोई सूरत दिखायी ही नहीं देती है. दुकान में आने वाले की नीयत पर संदेह और काम करने वालों की निगहबानी. मुझे समझ में नहीं आया कि विकास का यह कैसा पैमाना है? विस्तार से विश्वास का संकट, सोचने में भी अजीब सा लगता है लेकिन आज का सच यही है कि अब गैरों पर तो क्या अपनों पर भी किसी को भरोसा नहीं रहा. तोल-मोल के जमाने में अब विश्वास भी तोल-मोल कर खरीदा और बेचा जा रहा है. इस मॉल ने हमारी संस्कृति को नष्ट कर दिया है. हमारे विश्वास की दीवार दरकने लगी है. विकास का यह चेहरा उन लोगों को भा रहा है जिन्हें खुद पर विश्वास नहीं रहा है. मां की बनायी गुझिया और पिता की डांट मेरे विश्वास होने के गवाह हंै. मुझे नहीं मालूम की मॉल में बिकने वाले पिज्जा और बर्गर में कभी मां ेि हाथों की बनी गुझिया की मिठास मिलती होगी. मुझे तो यह भी नहीं पता कि जो लोग अपनों पर विश्वास नहंीं कर रहे हैं, वे अपने ही रिश्तों में कितने ईमानदार होंगे लेकिन एक बात मुझे पता है कि इस विकास के विस्तार ने मुझे और मुझ जैसे जाने कितने लोगों को लालची और स्वार्थी बना दिया है. रिश्तों की गर्माहट मैं मॉल में बहने वाली एयरकंडीशन की ठंडी हवा में भूलता जा रहा हूं. कोयले में पकी मोटी रोटियां और उसके साथ प्याज और मिर्च का स्वाद अब मेरी जुबान को नहीं भाती हैं. अब मेरी जुबान पर बासी और लगभग बीमार कर देने वाले पिज्जा और बर्गर का स्वाद लग गया है. यह संकट स्वाद का नहीं है और न ही सेहत का. यह संकट है विश्वास का जो मैं अपनों से खोता चला जा रहा हूं और शायद स्वयं से भी विश्वास उठ जाने का समय आ गया है.

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