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गांधी और अण्णा की चुनौतियां अलग अलग



मनोज कुमार

भारत देष में भ्रष्टाचार हमेषा से एक मुद्दा रहा है। समय समय पर इसके खिलाफ आवाज उठायी जाती रही है किन्तु यह आवाज व्यक्ति तक सीमित रहा है और यही कारण है कि इसका उतना प्रभाव देखने में नहीं मिला है। भ्रष्टाचार को भारतीय समाज में षिष्टाचार की संज्ञा दी गई है। इसके पीछे सोच यही थी कि भ्रष्टाचार नासूर बन गया है और इसका इलाज कोई नहीं कर सकता है। राजनीतिक दलों से यह अपेक्षा बहुत पहले ही खत्म हो गयी थी। स्वाधीनता प्राप्त कर लेने के कुछ सालों तक सत्ताधारी दलों से उम्मीद की जाती थी कि उनके मंत्री या सदस्यों पर लगाये गये आरोपों की जांच के बाद उनके खिलाफ कार्यवाही की जाएगी और यह उम्मीद बनी रही। राज्यों के विधानसभाओं में और लोकसभा में ऐसे उदाहरण देखने को मिल जाएंगे किन्तु आपातकाल के बाद सत्ता ने ऐसी करवट ली कि यह उम्मीद खत्म सी हो गयी है। सत्ताधारी दल अपने नेता और मंत्री के बचाव में सामने आने लगे हैं लोक मर्यादा की सारी सीमाओं को लांघ दिया गया। षायद यहीं-कहीं से भ्रष्टाचार को नाम मिला षिष्टाचार।

पराधीनता से स्वाधीनता और स्वाधीन भारत के एक सदी की यात्रा के कुछ साल गुजर जाने के बाद भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने के लिये वयोवृद्ध अण्णा हजारे सामने आये। हजारे जी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जो हल्ला बोला तो देष के घर घर से लोग साथ निकल पड़े। भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक उम्मीद की लौ जागी। लगा कि अब भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई बात बनेगी लेकिन यह कोरा सपना था। गांधीजी और अण्णा की चुनौतियां एकदम अलग अलग हैं। अण्णा की तुलना गांधीजी से की जाने लगी। उनकी सादगी में लोग गांधीजी का अक्स देख रहे थे और उनके मुद्दे को भी लोग गांधीजी से जोड़ कर देख रहे थे।

भ्रष्टाचार के खिलाफ अण्णा का कदम मौजू था। गांधीजी से उनकी तुलना बेमानी थी। उन्हें अण्णा ही रहने देना था। गांधीजी की लड़ाई अपनों से नहीं थी। वे अंग्रेजों से अपनों के लिये जूझते रहे और अण्णा को अपनों के लिये अपनों से ही लड़ना था। यह संकट अण्णा के लिये हजारों संकट से बड़ा था। के खिलाफ अण्णा का एजेंडा अपना था। वे सरकार और संसद से ऊपर की बात करने लगे थे। हम चाहे अपनी सरकारों के खिलाफ जितना मोर्चा खोलें, हल्ला बोलें लेकिन हम संविधान से ऊपर नहीं हो सकते हैं। अण्णा के साथ भ्रष्टाचार की लड़ाई में खड़े दूसरे सहयोगियों ने सभी मर्यादाओं को ताक पर रख दिया था। बेलाग और असंसदीय षब्दों का उपयोग करने लगे थे। हद तो तब हो गयी जब एक युवा ने गुस्से में मंत्री पवार को चांटा जड़ दिया। भ्रष्टाचार के खिलाफ एक बेहतरी का संकल्प तार तार होने लगा था। भ्रष्टाचार का मुद्दा एक तरफ होने लगा। यह बात आहिस्ता आहिस्ता अण्णा हजारे को समझ में आने लगी थी। दूसरी दफा जब वे फिर अनषन पर बैठे तो आंदोलन में जुटे लोग मीडिया से दो दो हाथ करने पर उतारू हो गये। मीडिया की ताकत को अण्णा समझते हैं और षायद यही कारण था कि उन्होंने कह दिया कि मीडिया के साथ दुर्व्यवहार किया जाएगा तो वे आंदोलन खत्म कर देंगे। अण्णा सहयोगी इस बात को लेकर नाराज थे कि मीडिया उन्हें सरकार के निर्देष पर कव्हरेज नहीं दे रहा है। सच तो यह है कि इस आंदोलन से लोग खुद को किनारे कर रहे थे। आंदोलन में जिस भीड़ की उम्मीद ये लोग लगाये बैठे थे, वह नदारद थी।

अण्णा को समझ आ गया कि मामला अब नहीं सुलझने वाला। सरकार उनकी अनदेखी कर रही है। अण्णा को यह भी पता होगा कि सत्ता सम्हालने वाले डरपोक होते हैं और वे इतने ही चालाक भी कि जल्द ही भांप जाते हैं कि उनके खिलाफ हल्ला बोलने वाले में कितना दम है। पहली दफा अण्णा ने हुंकार भरी तो सरकार के पसीने छूट गये थे लेकिन अगली दफा उन्हें अण्णा से डर नहीं रहा। लगभग मैदान छोड़ देने की स्थिति में राजनीति दल बनाने के ऐलान के साथ अण्णा ने आंदोलन खत्म कर दिया। अक्टूबर जिसे आने में अभी पूरे एक माह से भी कुछ अधिक दिन का समय बाकि है, में पार्टी के बारे में बताने का ऐलान किया गया था। अचानक अण्णा के एक प्रमुख सहयोगी अरविंद केजरीवाल कोयला घोटाले को लेकर फिर धरना-प्रदर्षन के लिये पहुंच गये। इस बार अण्णा तो साथ थे ही नहीं, उनकी कोई खोज-खबर भी इसमें नहीं दिखी। उल्टे केजरीवाल ने किरण बेदी पर भारतीय

जनता पार्टी के प्रति नरम होने का आरोप जड़ दिया। स्वाभाविक है नाराज बेदी नहीं आयी। यही नहीं, आंदोलन के बिखराव का संकेत तब मिला जब लोग मैं अण्णा हूं कि जगह मैं केजरीवाल हूं की टोपी पहने दिखे। इस तरह एक उम्मीद टूट गयी। हालांकि इसका आभास पहले ही था लेकिन यह सब कुछ सच में इतनी जल्दी बदल जाएगा, इसकी अपेक्षा नहीं थी।

सही मायने में अण्णा अभी भी फेल नहीं हुए हैं, उनका  भ्रष्टाचार विरोधी अभियान अभी भी कामयाब हो सकता है। जो तंत्र सड़-गल गया है, उसे ठीक करने में समय गंवाने के बजाय वे प्राथमिक षालााओं में जाएं। बच्चों को बतायें कि उन्हें क्या करना है। बचपन का मन कच्चे घड़े के समान होता है। उन्हें ईमानदारी का पाठ पढ़ाया जाएगा तो वे पूरे जीवन ईमानदार रहेंगे। वे आम आदमी को बतायें कि रेल में आरक्षण पाने के लिये रिष्वत न दें, गैस न मिले तो घासलेट के स्टोव से काम चलायें लेकिन रिष्वत की गैस से खाना न पकायें, वे महिलाओं को समझायें कि पति से रिष्वत के पैसों से सुख-सुविधा की मांग न करें, छोटी छोटी सुविधाओं का मोह त्यागकर रिष्वत देने और लेने के पाप से बचें। खेतों में बराबर पानी कैसे मिले, यह काम अण्णा बरसों से करते रहे हैं, उन्हें अपनी यह तकनीक देषभर के किसानों में बांटना पड़ेगी। अन्नदाता स्वयं के बूते पर मजबूत होगा तो भ्रष्टाचार होगा कैसे? सरकारों के सस्ते कर्जे से उन्हें उबारना होगा। आज कर्जे पाने के लिये किसान बेताब है और कर्ज देने के नाम पर भ्रष्टाचार की एक नई लकीर खींची जा रही है, इससे भला कौन नावाकिफ है। नतीजा किसानों द्वारा आत्महत्या। 
अण्णा को पता ही होगा कि 2जी स्पेक्ट्रम, खेल घोटाला और कोयला में हाथ काले करने का खेल कुछ बार ही होता है लेकिन सौ दौ रूपयों की दलाली और रिष्वतखोरी से हिन्दुस्तान में रोज करोड़ों का भ्रष्टाचार होता है, इसे रोकना पहले जरूरी है। उसे खुद होकर दलाली और रिष्वत से बाहर आने के लिये प्रेरणा देना होगी। आम आदमी के भीतर विष्वास जगाना होगा। यह काम अण्णा हजारे जैसे लोगों को अकेले अकेले करना होगा। इस एकला चलो की यात्रा भी वातानुकूलित कार, रेल या हवाई यात्रा से नहीं होगी। सामान्य श्रेणी की रेल यात्रा करना होगी, बस में चलना होगा और कभी तो पैदल चल कर ही अलख जगाने का काम करना होगा। बात इससे भी पूरी तरह बन जाएगी, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती है किन्तु जब हम गांधीवादी रास्ते पर चलने की बात करते हैं तो हमें उनके रास्ते पर चलना होगा। अण्णा को भी और उन सभी लोगों को जो भारत को एक बार सोने की चिड़िया के रूप में देखना चाहते हैं।

लेखक वरिष्ठ मीडिया विष्लेषक हैं

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