मनोज कुमार
अकबर ने बीरबल से एक बार पूछा था कि यह सडक़ कहां जाती है? हाजिर जवाब बीरबल का जवाब था-सडक़ तो कहीं नहीं जाती अलबत्ता लोग जरूर जाते-आते हैं. बचपन में पढ़ी यह कहानी का अर्थ तब मुझे शायद समझ में नहीं आया था लेकिन आज समझ में आ गया. मेरे भोपाल में दो दिन पहले एक हादसा हुआ. तकरीबन 8 बरस की एक बच्ची को किसी व्यक्ति ने बेरहमी से मार डाला. आशंका कई तरह की जतायी जा रही थी. लोग गुस्से से उबल रहे थे. जिस सडक़ से मैं रोज अपने दफ्तर आता हूं और उसी सडक़ से घर लौटता हूं. आज उसी सडक़ पर सन्नाटा था. इस सडक़ पर बच्ची नहीं थी लेकिन इस दुख का गवाह सडक़ था. अमूनन वैसे ही जैसा कि हर सडक़ हर हादसे का गवाह होता है. मन तो दुखी था ही. बेबस मैं घर लौट रहा था. आहिस्ता आहिस्ता अंधेरा घिरने लगा था. दुख पर रात का स्याह अंधेरा छाने लगा था. अगली दिन सुबह की लालिमा में बीते रात का दुख कहीं कम हो चुका था.
रोज की तरह मेरी रोजमर्रा की गाड़ी अपने रफ्तार से शुरू हो चुकी थी. रोज की तरह एक बार फिर मैं इसी सडक़ पर था. सडक़ के जिस हिस्से पर कल दुख बिसरा था, वहां पहुंच पाता इसके सौ फर्लांग पहले मुझे शहनाई की आवाज सुनाई दी. बैंडबाजा बज रहा था. एक तरफ मुस्कराते और बतियाते लोग ठीक उसी जगह पर खड़े थे जहां कल बिटिया की मौत के निशान थे. आज वहीं पर एक और बिटिया है. यह बिटिया मंदिर के दरवाजे पर मत्था टेक कर अपने सुखद भविष्य के लिये आशीष मांग रही थी. इस अवसर का भी गवाह बन चुकी थी सडक़. ऐसे हादसों और अवसरों का गवाह बनती है रोज सडक़.
इस मंजर को देखने के बाद मुझे समझ नहीं आया कि मैं अपनी भावना कैसे व्यक्त करूं. मासूम की मौत का दुख मनाऊं या ब्याहती बिटिया की खुशी में खुद को भागीदार बनाऊं. मैं दर्शन का न तो कोई विद्यार्थी हूं और न ज्ञाता. मैं ठेठ सांसारिक आदमी हूं. दुख से दुखी होता हूं. आज इस सडक़ से मैं कुछ सीख पाया हूं. निर्लिप्तता का भाव. सडक़ किसी के दुख में दुखी नहींहोती है और न ही वह किसी को खुश देखकर खुश. वह अपनी जगह पर खड़ी है. राहगीर अपनी मंजिल तलाश लेते हैं और रौंदकर निकल जाते हैं. रौंदने वालों से भी उसे शिकायत नहीं है. वह निर्विकार भाव से अपने जन्म से वैसे ही खड़ी है जैसा कि वह अपने जन्म के समय थी. आज मुझे पता चल गया कि सडक़ कहीं नहीं जाती है, राहगीर आते और जाते हैं, बिलकुल वैसे ही जैसा कि जीवन में सुख और दुख. सडक़ कहीं नहीं जाती है.
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