सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

श्रमिक आंदोलन की धुंधली होती चमक



-मनोज कुमार
हम मेहनतकश जब भी अपना हिस्सा मांगेंगे, एक खेत नहीं, एक गांव नहीं, पूरी की पूरी दुनिया मांगेंगे... जैसे गीत अब नेपथ्य में चले गये हैं. हममें से बहुतों को तो याद भी नहीं होगा कि 1 मई का महत्व क्या है? हमें तो यह भी स्मरण करना पड़ेगा कि आखिरी श्रमिक आंदोलन कहां और कौन सा था? समय परिवर्तन के साथ जैसे पूरा समाज कॉर्पोरेट के चंगुल में फंसता चला गया वैसे ही श्रमिक आंदोलन की चमक भी धुंधली पड़ती जा रही है. एक समय था जब उद्योगपतियों को कद्दावर श्रमिक नेताओं के नाम से ही पसीना छूट जाता था लेकिन अब सरकारें जिस गति से उद्योग लगाने पर जुटी हुई हैं तो इसका एक कारण श्रमिक आंदोलन की चमक का खो जाना भी है. एक समय था जब छत्तीसगढ़ के श्रमिक नेता शंकर गुहा नियोगी की आवाज की गूंज पूरे देश में सुनायी देती थी और तब उद्योगपति एवं श्रमिकों के बीच संघर्ष की स्थिति बनी रहती थी. नियोगी की मौत के बाद तो जैसे श्रमिक आंदोलन को सांप सूंघ गया हो. ऐसा भी नहीं है कि श्रमिक अपने हक के लिये लड़ नहीं रहे हैं लेकिन उनकी आवाज को बुलंद करने वाला कोई नायक अब दिखाई नहीं देता है. यह हकीकत है और इसे मंजूर करना चाहिये.  जो संगठन या राजनीतिक दल श्रमिक आंदोलन की आवाज उठाने का दम भरते हैं, उनकी सचाई भी किसी से छिपी नहीं है. मुझे याद पड़ता है कि लगभग दो दशक पहले मेरी मुलाकात ताराचंद वियोगी जी से हुई थी. श्रमिकों को लेकर उनसे अनेक मुद्दों पर विस्तार से चर्चा हुई थी. अब वियोगीजी भी सक्रिय नहीं जान पड़ते हैं. 

श्रमिक आंदोलन को मीडिया भी समर्थन देता रहा है लेकिन अब मीडिया का रूख भी श्रमिक आंदोलन को लेकर बहुत सक्रिय नहीं है. ऐसा नहीं है कि मीडिया में श्रमिक आंदोलन खबर नहीं बनती है. सच तो यह है कि मीडिया में श्रमिक आंदोलन केवल खबरों तक है. इसके बाद की भूमिका से मीडिया नदारद है. श्रमिक आंदोलन की सफलता और विस्तार में मीडिया की भूमिका हमेशा से रही है किन्तु वही कॉर्पोरेट सेक्टर ने मीडिया को भी श्रमिक आंदोलन से परे कर दिया है. अब मीडिया का फोकस श्रमिक आंदोलन पर नहीं रहा क्योंकि मैनजमेंट को लगता है कि इससे उनके व्यवयास पर आंच आयेगी. आज की स्थिति में हर मीडिया ग्रुप विभिन्न व्यवसाय कर रहा है और श्रमिक आंदोलन में मीडिया का समर्थन का सीधा अर्थ होगा अपने ही गु्रप के बिजनेस को नुकसान पहुंचाना. ऐसी स्थिति में कोई भी मीडिया गु्रप नहीं चाहेगा कि उसके हित जख्मी हों.
श्रमिक आंदोलन की मरणासन्न स्थिति से सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न होता है. श्रमिक आंदोलन के कारण ही उद्योगपतियों को मजबूरी में ही सही, सामाजिक कल्याण के कार्यों में सहयोग करना पड़ता था. मजदूरों को उनका वाजिब हक मिलता था और स्थानीय लोगों को रोजगार के अवसर बढ़ते थे. पूरे देश की राज्य सरकारें अधिकाधिक औद्योगिकरण पर जोर दे रही हैं. उद्योगों के लिये पलक-पांवड़े बिछा दिये गये हैं. रियायतों को पिटारा खोल दिया गया है. एक तरह से राज्य सरकारें उद्योगपतियों के समक्ष शरणम गच्छामी की स्थिति में हैं तो दूसरी तरफ स्थानीय लोगों को रोजगार देने की तरफ कोई पक्का रास्ता नहीं तलाशा जा रहा है. श्रमिक आंदोलनों की कमजोर होती स्थिति ने बेरोजगारी को बढ़ाया है और उद्योगपति अपनी सुविधा से लोगों को काम दे रहे हैं. कम मजदूरी पर ज्यादा काम लेेने की दृष्टि से दूसरे प्रदेशों के बेरोजगारों को काम मिल रहा है और स्थानीय मजदूर आज भी खाली हाथ बैठा है.

1 मई को एक बार फिर मजदूर दिवस की औपचारिकता पूरी कर दी जाएगी. कुछ श्रमिक संगठन और कुछ राजनीतिक दल मगरमच्छी आंसू बहाकर श्रमिकों की दशा सुधारने की बात कहेंगे. इस दिन के गुजरने के साथ ही साथ वे भूल जाएंगे कि मजदूरों के हक के लिये उन्हें लडऩा है. मजदूर की नियती है कि वह लड़ते लड़ते अपना जीवन त्याग देगा लेकिन दो जून की रोटी उसे नसीब नहीं होगी. वह गीत गाता रहेगा जब भी मांगेंगे.. एक खेत नहीं.. एक गांव नहीं.. पूरी की पूरी दुनिया मांगेंगे.. मजदूर को यह सच भी पता है कि न तो उसे मांगने का अवसर मिलेगा और न ही दुनिया.. दो जून की रोटी और तन ढक़ने के लिये कपड़ा ही मिल जाये तो मजदूर दिवस सार्थक हो जाएगा. फिलहाल श्रमिक आंदोलन की गुम होती रोशनी में मजदूर के लिये कोई सुबह नजर नहीं आती है.

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

विकास के पथ पर अग्रसर छत्तीसगढ़

-अनामिका कोई यकीन ही नहीं कर सकता कि यह वही छत्तीसगढ़ है जहां के लोग कभी विकास के लिये तरसते थे।  किसी को इस बात का यकिन दिलाना भी आसान नहीं है कि यही वह छत्तीसगढ़ है जिसने महज डेढ़ दशक के सफर में चौतरफा विकास किया है। विकास भी ऐसा जो लोकलुभावन न होकर छत्तीसगढ़ की जमीन को मजबूत करता दिखता है। एक नवम्बर सन् 2000 में जब समय करवट ले रहा था तब छत्तीसगढ़ का भाग्योदय हुआ था। साढ़े तीन दशक से अधिक समय से स्वतंत्र अस्तित्व की मांग करते छत्तीसगढ़ के लिये तारीख वरदान साबित हुआ। हालांकि छत्तीसगढ़ राज्य बन जाने के बाद भी कुछ विश्वास और असमंजस की स्थिति खत्म नहींं हुई थी। इस अविश्वास को तब बल मिला जब तीन वर्ष गुजर जाने के बाद भी छत्तीसगढ़ के विकास का ब्लूप्रिंट तैयार नही हो सका था। कुछेक को स्वतंत्र राज्य बन जाने का अफसोस था लेकिन 2003 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने सत्ता सम्हाली और छत्तीसगढ़ के विकास का ब्लू प्रिंट सामने आया तो अविश्वास का धुंध छंट गया। लोगों में हिम्मत बंधी और सरकार को जनसमर्थन मिला। इस जनसमर्थन का परिणाम यह निकला कि आज छत्तीसगढ़ अपने चौतरफा विकास के कारण देश के नक...

नागरिक बोध और प्रशासनिक दक्षता से सिरमौर स्वच्छ मध्यप्रदेश

  मनोज कुमार वरिष्ठ पत्रकार                    स्वच्छ भारत अभियान में एक बार फिर मध्यप्रदेश ने बाजी मार ली है और लगातार स्वच्छ शहर बनने का रिकार्ड इंदौर के नाम पर दर्ज हो गया है. स्वच्छ मध्यप्रदेश का तमगा मिलते ही मध्यप्रदेश का मस्तिष्क गर्व से ऊंचा हो गया है. यह स्वाभाविक भी है. नागरिक बोध और प्रशासनिक दक्षता के कारण मध्यप्रदेश के खाते में यह उपलब्धि दर्ज हो सकी है. स्वच्छता गांधी पाठ का एक अहम हिस्सा है. गांधी जी मानते थे कि तंदरूस्त शरीर और तंदरूस्त मन के लिए स्वच्छता सबसे जरूरी उपाय है. उनका कहना यह भी था कि स्वच्छता कोई सिखाने की चीज नहीं है बल्कि यह भीतर से उठने वाला भाव है. गांधी ने अपने जीवनकाल में हमेशा दूसरे यह कार्य करें कि अपेक्षा स्वयं से शुरूआत करें के पक्षधर थे. स्वयं के लिए कपड़े बनाने के लिए सूत कातने का कार्य हो या लोगों को सीख देने के लिए स्वयं पाखाना साफ करने में जुट जाना उनके विशेष गुण थे. आज हम गौरव से कह सकते हैं कि समूचा समाज गांधी के रास्ते पर लौट रहा है. उसे लग रहा है कि जीवन और संसार बचाना है तो ...

शोध पत्रिका ‘समागम’ का नवीन अंक

  शोध पत्रिका ‘समागम’ का नवीन अंक                                       स्वाधीनता संग्राम और महात्मा गांधी पर केन्द्रीत है.                      गांधी की बड़ी यात्रा, आंदोलन एवं मध्यप्रदेश में                                          उनका हस्तक्षेप  केन्दि्रय विषय है.