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कलाम, गांधी और आम्बेडकर


मनोज कुमार
           आज की पीढ़ी के लिये कलाम साहब एक आदर्श व्यक्तित्व हैं. मिसाइलमैन कलाम साहब बच्चों से मिलते रहे हैं. उनमें सपने जगाते रहे हैं. उनका सब लोग अनुसरण करना चाहते हैं. ऐसा करना भी सही है. पिछले दो दशकों में जवानी की दहलीज पर खड़े युवाओं के समक्ष कलाम साहब से बेहतर कोई नहीं है. वे गांधी को भी जानते हैं और डॉ. भीमराव आंबेडकर का स्मरण भी उन्हें हैं. बहुतों ने किताबों में उनके बारे में, उनकी बातों को पढ़ा है लेकिन कलाम साहब उनके लिये एक अलग मायने रखते हैं. कलाम साहब की खासियत यह नहीं है कि वे एक कामयाब वैज्ञानिक हैं या फिर वे भारत के राष्ट्रपति रह चुके हैं. उनकी खासियत है जिंदगी के वह फलसफे बच्चों और युवा पीढ़ी को बताना जिसकी उन्हें दरकार है. वे कहते हैं कि सपने ऐसे देखो, जो आपकी नींद उड़ा दे. यह वाक्य जीवन का फलसफा है और जिसने इसे अपने जीवन में उतार लिया, वे कामयाब हो गये. 
लाम साहब राजनेता नहीं हैं और उन्होंने राजनीति में अपना उपयोग भी नहीं होने दिया. किसी भी राजनीतिक दल ने उन्हें अपना ब्रांड एम्बेसडर बनाने का खतरा मोल नहीं लिया लेकिन जब आप गांधी की बात करते हैं, जब आप डॉ. आम्बेडकर की बात करते हैं और जब आप लोहिया की बात करते हैं, तो ये किसी न किसी दल के लिये ब्रांड एम्बेसडर के रूप में युवा पीढ़ी के समक्ष मौजूद हैं. बात यहां तक होती तो भी अनदेखा किया जा सकता था लेकिन बात बढक़र राजनीतिक लाभ के लिये इनके उपयोग तक आ पहुंची है. एक छोटी बच्ची यह पूछने का दुस्साहस करती है कि गांधीजी को किस कानून के तहत राष्ट्रपिता का दर्जा दिया गया तो सरकार खामोश हो जाती है. यह ठीक है कि उन्हें किसी कानून के तहत राष्ट्रपिता का दर्जा नहीं दिया गया लेकिन क्या इसके लिये कोई कानूनी प्रक्र्रिया पूरी नहीं की जानी चाहिये? ऐसा नहीं किया जायेगा क्योंकि हमारे ये महापुरूष राजनीतिक उपयोग की वस्तु बन गये हैं. 
कांग्रेस गांधी के रास्ते पर चलने का दावा करती है तो बहुजन समाज पार्टी के लिये बाबा साहब हैं तो समाजवादी लोहिया के नाम की माला जप रहे हैं. भाजपा के पास श्यामाप्रसाद मुखर्जी जैसे नेता हैं. इन महापुरूषों की जन्म और निधन के तारीख पर, इनके बताये रास्ते पर चलने का संकल्प लेते हैं और अगले दिन इन राजनीतिक दलों का चरित्र क्या होता है, इस बारे में कुछ सोचना, लिखना और कहना बेमानी है. जब तक ये दल अपने अपने लिये महापुरूषों को अपना ब्रांड एम्बेसडर के तौर पर उपयोग कर रहे थे, तब तो बात ठीक थी लेकिन अब इससे आगे निकल गये हैं. महात्मा गांधी इन दिनों मोदी सरकार के लिये ब्रांड एम्बेसडर है और वे उन्हें आगे रखकर देश में स्वच्छता अभियान चला रहे हैं और परदेस में गांधीजी के रास्ते पर चलकर राज करने की बात कर रहे हैं. लोहियाजी की क्या नीति थी, क्या नियम थे, इस बारे में कोई समाजवादी बात नहीं करना चाहता है, कुछ कुछ ऐसी स्थिति बाबा साहब और मुखर्जी को लेकर भी है. 
       ऐसा क्यों है? यह सवाल जब मैंने अपने आपसे किया था तो जवाब मुकम्मल भले ही न हो लेकिन करीब तक ले गया. अध्ययन एवं संवाद की कमी. हमने जब इन महापुरूषों को पढ़ा नहीं, इनके विचारों पर संवाद ही नहीं किया तो इनकी प्रासंगिकता जन्म और मृत्यु की तारीख तक ही रह जाती है. अण्णा जब लोकपाल की मांग को लेकर युवाओं को उद्वेलित करते हैं तो यह आवेग किसी उद्देश्य को लेकर नहीं था बल्कि एक हवा थी. ठीक वैसे ही जैसे विधानसभा और लोकसभा चुनाव के समय पूरे देश ने महसूस किया. यह सवाल बहुत समय से अनुत्तरित है कि अण्णा ने जो कदम उठाया वह तो उचित था लेकिन क्या लोकपाल के बारे में युवाओं को शिक्षित किया गया? शायद नहीं. ऐसे में यूथ के लिये कलाम साहब एक ऐसे शख्सियत के रूप में उपस्थित होते हैं जो सपने नहीं बेचते, जो युवाओं को किसी अभियान में नहीं झोंकते. उन्हें सच से अवगत कराते हैं और जीने का तरीका बताते हैं. वक्त अभी शेष है. हमारे महापुरूषों को युवाओं का आदर्श बनाना है तो अध्ययन एवं संवाद का उपक्रम शुरू करना होगा. देश की स्वतंत्रता के लिये अहिंसा कितना बड़ा हथियार बना, पूंजीपतियों के खिलाफ लोहियाजी का दर्शन क्या था, दलितों और पिछड़े वर्गों को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिये बाबा साहेब ने क्या क्या जतन किये, इसका ब्यौरा युवापीढ़ी को अनरवत देते रहना होगा. यह आज समय की जरूरत है.

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