मनोज कुमार
अखबार रोज एक न एक रोचक खबर अपने साथ लाती है. यह खबर जितनी रोचक होती है, उससे कहीं ज्यादा सोचने पर विवश करती है और लगता है कि हम कहां जा रहे हैं? आज एक ऐसी ही खबर पर नजर पड़ी. खबर में लिखा था कि राज्य के एक बड़े मंत्री प्याऊ का उद्घाटन करेंगे. खबर पढक़र चेहरे पर बरबस मुस्कान तैर गयी. समझ में नहीं आया कि इस खबर को रोचक खबर की श्रेणी में रखूं या विचार करने की. पहली नजर में तो यह खबर रोचक थी लेकिन इससे कहीं आगे विचार की. प्याऊ का शुरू होना हमारे लिये कोई उत्सव या जश्र नहीं है और न ही कोई शोशेबाजी. अपितु प्याऊ एक परम्परा है, भारतीय संस्कृति का अंग है एवं जीवन दर्शन है. मानव के प्रति मानव समाज की चिंता का सबब प्याऊ है. यह एक संकल्प भी है मानव समाज का लेकिन आज के दौर में संकल्प और संस्कृति ने उत्सव का स्थान ले लिया है. जिस तरह खबर में मंत्रीजी द्वारा प्याऊ के उदघाटन करने की सूचना दी गई है तो निश्चित रूप से मंत्रीजी लाव-लश्कर के साथ उद्घाटन के लिये पहुंचेंगे. इस लाव-लश्कर पर जो खर्च होगा और प्याऊ की स्थापना पर जो खर्च होगा, उसका फरक जमीन और आसमान की दूरी जितना ही होगा.
विचार करने की बात यह है कि कोई दस-पांच हजार की लागत में प्यास बुझाने के लिये प्याऊ की स्थापना हो जाएगी लेकिन उद्घाटन उत्सव पर जो खर्च होगा, वह कम से कम प्याऊ की लागत से चार गुना अधिक ही होगा. तो क्या किसी ने इस बात का जतन नहीं किया कि एक प्याऊ के उद्घाटन से मंत्रीजी की तस्वीरें तो अखबारों में छप जायेगी. उनके पीआओ महोदय इस कार्य को सदी का महान कार्य भी बता देंगे लेकिन क्या एक प्याऊ से सब दूर चल रहे मुसाफिरों की प्यास बुझाने का कोई इंतजाम हो पायेगा? शायद नहीं. बेहतर होता कि मंत्रीजी इस प्याऊ उद्घाटन उत्सव पर होने वाले खर्च को बचाकर शहर के दूसरे हिस्सों में प्याऊ की स्थापना कराने का उपक्रम करते तो मंत्रीजी का नाम और भी बड़ा होता. ऐसा जतन पीआरओ नहीं करेगा क्योंकि ऐसा करने से अखबारों में फोटो कैसे छपेगी? मुसाफिरों की प्यास नहीं, फोटो छपने की प्यास बड़ी है, सो जतन ऐसा किया जाये कि फीता काटते मंत्रीजी ही दिखें.
यह हमारे समाज का दुर्भाग्य है कि एक तरफ तो हम अपनी संस्कृति का ऐसा गुणगान करते हैं कि लगता है कि हमसा कोई दूजा नहीं लेकिन दूसरी तरफ अपनी परम्परा और संस्कृति को उत्सव में बदल कर उसे बाजार की वस्तु बना देते हैं. प्याऊ हमारी भारतीय संस्कृति और समाज का अभिन्न अंग रहा है. गर्मी के आरंभ होते ही मटके को लाल कपड़े में लपेटकर राहगीरों की प्यास बुझाने का प्रबंध करने की पुरातन परम्परा रही है. समय के साथ बदलाव आया और प्याऊ आहिस्ता आहिस्ता नदारद होने लगे. पानी की बोतलें और पाउच बाजार में आ गये. बदलाव का यह दौर इतना क्रूर हो गया कि दुकानदारों ने अपनी अपनी दुकानों से पीने के पानी का सारा प्रबंध ही समाप्त कर दिया. ऐसे में प्याऊ एक कल्पना की वस्तु शेष रह गयी है. एक वह भी समय था जब घर पर ब्याह होने या नवजात शिशु के आने की खुशी में तालाब और कुंओं का निर्माण किया जाता है और आज एक समय यह भी है जब मॉल और मकान बनाने के लिये तालाब और कुंओं को खत्म किया जा रहा है. ऐसे में दरअसल, आज जरूरत है कि हम सब मिलकर उस परम्परा और जीवनशैली को समृद्ध करें जिसमें भारतीय संस्कृति का गौरव दिखता है. हम सब मिलकर इस बात का संकल्प लें कि हर मोड़ पर लाल कपड़े में लिपटा हुआ पानी से लबालब घड़ा हमारा स्वागत करें. प्यास तो बुझे ही, मन भी तरोताजा हो जाये.
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