सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

उम्मीद के मजदूर


मनोज कुमार
    एक मई की तारीख कितने लोगों को याद है? बस, उन चंद लोगों के स्मरण में एक मई शेष रह गया है जो आज भी इस उम्मीद में जी रहे हैं कि एक दिन तो हमारा भी आएगा. वे यह भी जानते हैं कि वह दिन कभी नहीं आएगा लेकिन उम्मीद का क्या करें? उम्मीद है कि टूटती नहीं और हकीकत में उम्मीद कभी बदलती नहीं. एक वह दौर था जब सरकार की ज्यादती के खिलाफ, अपने शोषण के खिलाफ आवाज उठाने मजदूर सडक़ों पर चले आते थे. सरकार की दमनकारी नीतियों का विरोध करते हुये लाठी और गोली खाकर भी पीछे नहीं हटते लेकिन दुर्भाग्य देखिये. कैलेंडर पर जैसे-जैसे तारीख आगे बढ़ती गयी, मजदूर आंदोलन वैसे वैसे पीछे होता गया. अब तो मजदूर संगठनों की स्थिति निराशाजनक है. यह निराशा मजदूर संगठनों की सक्रियता की कमी की वजह से नहीं बल्कि कार्पोरेट कल्चर ने निराशाजनक स्थिति उत्पन्न की है.  मजदूर एकता जिंदाबाद के नारे सुने मुझे तो मुद्दत हो गये हैं. आपने शायद कभी सुना हो तो मुझेे खबर नहीं. भारत सहित समूचे विश्व के परिदृश्य को निहारें तो सहज ही ज्ञान की प्राप्ति हो जाएगी कि मजदूर नाम का यह शख्स कहीं गुम हो गया है. 
    कार्पोरेट सेक्टर के दौर में मजदूर यूनियन गुमशुदा हो गये हैं. एक के बाद एक संस्थानों का निजीकरण किया जा रहा है. निजी संस्थाओं को मजदूरों की जरूरत नहीं होती है. दस मजदूरों का काम एक मशीन करने लगी है. कार्पोरेट सेक्टर को मजदूर नहीं गुलाम चाहिये. मजदूर कभी गुलाम नहीं हो सकता है. मशीन गुलाम होती है और गुलाम का कर्तव्य होता है आदेश का पालन करना. मशीन कभी आवाज नहीं उठाती है.  लगातार बढ़ती यंत्र व्यवस्था ने समूचे सामाजिक जीवन का ताना-बाना छिन्न-भिन्न कर दिया है. हमारी जरूरतों के उत्पादों के निर्माण में यंत्रों के उपयोग से समय की बचत हो रही है, गुणवत्ता भी शायद ज्यादा होगी लेकिन जीवंतता नदारद है. एक मजदूर के बुने गये कपड़ों में उसकी सांसों की गर्मी सहज रूप से महसूस की जा सकती है. उसके द्वारा बुने गये धागों में मजदूर की धडक़न को महसूस किया जा सकता है. एक मशीन के उत्पाद में कोई जीवंतता नहीं होती है. इन उत्पादों से मनुष्य की बाहरी आवश्यकताओं की पूर्ति तो हो रही है किन्तु मन के भीतर संतोष का अभाव महसूस किया जा सकता है. 
     इस यंत्र व्यवस्था ने न केवल मजदूरों का हक छीना बल्कि लघु उद्योगों को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया है. हर तरफ यंत्र ने ऐसा कब्जा जमाया है कि आम आदमी स्वयं का गुलाम होकर रह गया है. रेल्वे स्टेशनों पर आपको कुलियों की फौज देखने को नहीं मिलेगी क्योंकि इस यांत्रिक व्यवस्था ने हर मुसाफिर को कुली बना दिया है. भारी-भरकम सूटकेस में लगे पहियों को खींचते हुये वह पैसा बचाने में लगा है. सूटकेस में लगे पहिये कुलियों को चिढ़ा रहे हैं और शायद कह रहे हैं ले, अब हो गई तेरी छुट्टी. छुट्टी कुली के रोजगार की ही नहीं हुई है बल्कि उसके चौके-चूल्हे की भी हो गई है. मजदूरी नहीं मिलेगी तो चूल्हा जलेगा कैसे? ऐसे कई काम-धंधे हैं जिन्होंने कामगारों के हाथों को बेकार और बेबस किया है. सत्ता और शासकों की नींद उड़ा देने वाली आवाज आहिस्ता आहिस्ता मंद पडऩे लगी है. यंत्रों ने जैसे मजदूरों की शेर जैसी दहाड़ को अपने भीतर कैद कर लिया है. शायद यही कारण है कि मजदूर दिवस की ताप से अब समाज गर्माता नहीं है. सोशल मीडिया में भी मई दिवस की आवाज सुनाई नहीं देती है. अखबार के पन्नों पर कहीं कोई खबर बन जाये तो बड़ी बात, टेलीविजन के पर्दे पर भी मजदूर दिवस एक औपचारिक आयोजन की तरह होता है. हैरान नहीं होना चाहिये कि आपका बच्चा कहीं आपसे यह सवाल कभी कर बैठे-यह मजदूर क्या होता है? नयी पीढ़ी को तो यह भी नहीं पता कि एक मई क्या होता है?  इस विषम स्थिति के बावजूद मजदूर उम्मीद से है. उसे इस बात का इल्म है कि दुनिया बदल रही है. इस बदलती दुनिया में मजदूर की परिभाषा भी बदल गई है लेकिन मजदूर और किसान कभी नाउम्मीद नहीं होते. उनकी दुनिया बदल जाएगी, इस उम्मीद के साथ वे जीते हैं. वे मौका आने पर कह भी देते हैं कि - ‘हम मेहनतकश इस दुनिया से जब अपना हिस्सा मांगेंगे/इक गांव नहीं, इक खेत नहीं, सारी की सारी दुनिया मांगेंगे. उम्मीद से जीते मजदूर और मजदूर दिवस को मेरा लाल सलाम. 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

विकास के पथ पर अग्रसर छत्तीसगढ़

-अनामिका कोई यकीन ही नहीं कर सकता कि यह वही छत्तीसगढ़ है जहां के लोग कभी विकास के लिये तरसते थे।  किसी को इस बात का यकिन दिलाना भी आसान नहीं है कि यही वह छत्तीसगढ़ है जिसने महज डेढ़ दशक के सफर में चौतरफा विकास किया है। विकास भी ऐसा जो लोकलुभावन न होकर छत्तीसगढ़ की जमीन को मजबूत करता दिखता है। एक नवम्बर सन् 2000 में जब समय करवट ले रहा था तब छत्तीसगढ़ का भाग्योदय हुआ था। साढ़े तीन दशक से अधिक समय से स्वतंत्र अस्तित्व की मांग करते छत्तीसगढ़ के लिये तारीख वरदान साबित हुआ। हालांकि छत्तीसगढ़ राज्य बन जाने के बाद भी कुछ विश्वास और असमंजस की स्थिति खत्म नहींं हुई थी। इस अविश्वास को तब बल मिला जब तीन वर्ष गुजर जाने के बाद भी छत्तीसगढ़ के विकास का ब्लूप्रिंट तैयार नही हो सका था। कुछेक को स्वतंत्र राज्य बन जाने का अफसोस था लेकिन 2003 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने सत्ता सम्हाली और छत्तीसगढ़ के विकास का ब्लू प्रिंट सामने आया तो अविश्वास का धुंध छंट गया। लोगों में हिम्मत बंधी और सरकार को जनसमर्थन मिला। इस जनसमर्थन का परिणाम यह निकला कि आज छत्तीसगढ़ अपने चौतरफा विकास के कारण देश के नक...

नागरिक बोध और प्रशासनिक दक्षता से सिरमौर स्वच्छ मध्यप्रदेश

  मनोज कुमार वरिष्ठ पत्रकार                    स्वच्छ भारत अभियान में एक बार फिर मध्यप्रदेश ने बाजी मार ली है और लगातार स्वच्छ शहर बनने का रिकार्ड इंदौर के नाम पर दर्ज हो गया है. स्वच्छ मध्यप्रदेश का तमगा मिलते ही मध्यप्रदेश का मस्तिष्क गर्व से ऊंचा हो गया है. यह स्वाभाविक भी है. नागरिक बोध और प्रशासनिक दक्षता के कारण मध्यप्रदेश के खाते में यह उपलब्धि दर्ज हो सकी है. स्वच्छता गांधी पाठ का एक अहम हिस्सा है. गांधी जी मानते थे कि तंदरूस्त शरीर और तंदरूस्त मन के लिए स्वच्छता सबसे जरूरी उपाय है. उनका कहना यह भी था कि स्वच्छता कोई सिखाने की चीज नहीं है बल्कि यह भीतर से उठने वाला भाव है. गांधी ने अपने जीवनकाल में हमेशा दूसरे यह कार्य करें कि अपेक्षा स्वयं से शुरूआत करें के पक्षधर थे. स्वयं के लिए कपड़े बनाने के लिए सूत कातने का कार्य हो या लोगों को सीख देने के लिए स्वयं पाखाना साफ करने में जुट जाना उनके विशेष गुण थे. आज हम गौरव से कह सकते हैं कि समूचा समाज गांधी के रास्ते पर लौट रहा है. उसे लग रहा है कि जीवन और संसार बचाना है तो ...

शोध पत्रिका ‘समागम’ का नवीन अंक

  शोध पत्रिका ‘समागम’ का नवीन अंक                                       स्वाधीनता संग्राम और महात्मा गांधी पर केन्द्रीत है.                      गांधी की बड़ी यात्रा, आंदोलन एवं मध्यप्रदेश में                                          उनका हस्तक्षेप  केन्दि्रय विषय है.