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पानीदार "अनुपम" के लिए भीगी आंखें


मनोज कुमार
मीठे पानी की तरह अनुपम। अपने नाम को सार्थकता प्रदान करते हुए अनुपम ने 68 वर्ष की जिंदगी में सुप्त और लुप्त होते समाज में पानी के प्रति चेतना जागृत करने की जो कोशिशें की, उन कोशिशों के बीच अनुपम मिश्र नाम का यह व्यक्तित्व हमारे साथ रहेगा, चलेगा और हमें दिशा देता रहेगा। तालाब आज भी खरे हैं उनके नाम के अनुरूप अनुपम कृति है लेकिन पानी के प्रति लोगों में जागरूकता की उनकी हर कोशिश अनुपम रही है। गीतकार भवानीप्रसाद मिश्र और सरला ने बहुत समझ कर उनका नाम अनुपम रखा होगा। यह बात भी सच है कि भवानीभाई गीतफरोश लिख कर अमर हो गए तो उनका चिराग पानीदार समाज देखने की चिंता में एक उम्र गुजार गया। यह कहना गैरवाजिब होगा कि अनुपम के बाद पानीदार समाज की चिंता करने वाले नहीं होंगे बल्कि यह कहना वाजिब होगा कि उन्होंने पानीदार समाज की चिंता करने के लिए एक बड़ी फौज तैयार कर रखी है। ये लोग समूहों में बंटे  हुए हैं। अपने अंचलों और अपने लोगों के बीच, समुदाय के बीच काम कर रहे हैं। इनकी चर्चा नहीं होती है लेकिन इनके काम इनकी आवाज और पहचान है। इनके कामों में अनुपम बसे हुए हैं। आखिर अनुपम तो अनुपम ही हैं ना।
मध्यप्रदेश के लिए गौरव की बात है कि वह जिस तरह देश का ह्दय प्रदेश कहलाता है, वैसा ही उसे सपूत मिला अनुपम मिश्र के नाम का जिसने तालाबोंं और कुंओं से सूखते पानी को बचाने में न केवल लोगों को जगाया बल्कि समाज की आंखों में सूखते पानी को बचाने की कोशिश की। अनुपम का जन्म उसी वर्धा में हुआ जहां गांधी की यादें बसी हुई है और जिस शहर में गांधी की हवा, वहां अनुपम ही पैदा होते हैं, यह बात एक बार फिर साबित हो गई। सत्य और अहिंसा के रास्ते पर चलकर पानी के जतन के लिए जो कोशिश अनुपम ने किया, वह बेमिसाल है। ‘तालाब आज भी खरे हैं’ उनकी अनुपम कृति है और एक ऐसी रचना जो सदियों सदियों तक पानीदार समाज की धरोहर होगी। पानी बचाने और उसके जतन के लिए क्या किया जा सकता है कि चर्चा इस किताब के बिना नहीं हो पाएगी।  
  अनुपम मिश्र की छाप जाने माने लेखक, संपादक, छायाकार और गांधीवादी पर्यावरणविद् की है। पर्यावरण-संरक्षण के प्रति जनचेतना जगाने और सरकारों का ध्यानाकर्षित करने की दिशा में वह तब से काम कर रहे हैं, जब देश में पर्यावरण रक्षा का कोई विभाग नहीं खुला था। आरम्भ में बिना सरकारी मदद के अनुपम मिश्र ने देश और दुनिया के पर्यावरण की जिस तल्लीनता और बारीकी से खोज-खबर ली है, वह कई सरकारों, विभागों और परियोजनाओं के लिए भी संभवत: संभव नहीं हो पाया है। उनकी कोशिश से सूखाग्रस्त अलवर में जल संरक्षण का काम शुरू हुआ जिसे दुनिया ने देखा और सराहा। सूख चुकी अरवरी नदी के पुनर्जीवन में उनकी कोशिश काबिले तारीफ रही है। इसी तरह उत्तराखण्ड और राजस्थान के लापोडिय़ा में परंपरागत जल स्रोतों के पुनर्जीवन की दिशा में उन्होंने अहम काम किया है।
यहां उनका लिखा स्मरण करना जरूरी हो जाता है जिसमें वे लिखते हैं कि - तालाब का लबालब भर जाना भी एक बड़ा उत्सव बन जाता। समाज के लिए इससे बड़ा और कौन सा प्रसंग होगा कि तालाब की अपरा चल निकलती है। भुज (कच्छ) के सबसे बड़े तालाब हमीरसर के घाट में बनी हाथी की एक मूर्ति अपरा चलने की सूचक है। जब जल इस मूर्ति को छू लेता तो पूरे शहर में खबर फैल जाती थी। शहर तालाब के घाटों पर आ जाता। कम पानी का इलाका इस घटना को एक त्योहार में बदल लेता। भुज के राजा घाट पर आते और पूरे शहर की उपस्थिति में तालाब की पूजा करते तथा पूरे भरे तालाब का आशीर्वाद लेकर लौटते। तालाब का पूरा भर जाना, सिर्फ एक घटना नहीं आनंद है, मंगल सूचक है, उत्सव है, महोत्सव है। वह प्रजा और राजा को घाट तक ले आता था। पानी की तस्करी? सारा इंतजाम हो जाए पर यदि पानी की तस्करी न रोकी जाए तो अच्छा खासा तालाब देखते-ही-देखते सूख जाता है। वर्षा में लबालब भरा, शरद में साफ-सुथरे नीले रंग में डूबा, शिशिर में शीतल हुआ, बसंत में झूमा और फिर ग्रीष्म में? तपता सूरज तालाब का सारा पानी खींच लेगा। शायद तालाब के प्रसंग में ही सूरज का एक विचित्र नाम ‘अंबु तस्कर’ रखा गया है। तस्कर हो सूरज जैसा और आगर यानी खजाना बिना पहरे के खुला पड़ा हो तो चोरी होने में क्या देरी? सभी को पहले से पता रहता था, फिर भी नगर भर में ढिंढोरा पिटता था। राजा की तरफ से वर्ष के अंतिम दिन, फाल्गुन कृष्ण चौदस को नगर के सबसे बड़े तालाब घड़सीसर पर ल्हास खेलने का बुलावा है। उस दिन राजा, उनका पूरा परिवार, दरबार, सेना और पूरी प्रजा कुदाल, फावड़े, तगाडिय़ाँ लेकर घड़सीसर पर जमा होती। राजा तालाब की मिट्टी काटकर पहली तगाड़ी भरता और उसे खुद उठाकर पाल पर डालता। बस गाजे- बाजे के साथ ल्हास शुरू। पूरी प्रजा का खाना-पीना दरबार की तरफ से होता। राजा और प्रजा सबके हाथ मिट्टी में सन जाते। राजा इतने तन्मय हो जाते कि उस दिन उनके कंधे से किसी का भी कंधा टकरा सकता था। जो दरबार में भी सुलभ नहीं, आज वही तालाब के दरवाजे पर मिट्टी ढो रहा है। राजा की सुरक्षा की व्यवस्था करने वाले उनके अंगरक्षक भी मिट्टी काट रहे हैं, मिट्टी डाल रहे हैं। उपेक्षा की इस आँधी में कई तालाब फिर भी खड़े हैं। देश भर में कोई आठ से दस लाख तालाब आज भी भर रहे हैं और वरुण देवता का प्रसाद सुपात्रों के साथ-साथ कुपात्रों में भी बाँट रहे हैं। उनकी मजबूत बनक इसका एक कारण है, पर एकमात्र कारण नहीं । तब तो मजबूत पत्थर के बने पुराने किले खंडहरों में नहीं बदलते। कई तरफ से टूट चुके समाज में तालाबों की स्मृति अभी भी शेष है। स्मृति की यह मजबूती पत्थर की मजबूती से ज्यादा मजबूत है।’
जल संसाधनों के संरक्षण व पर्यावरण चेतना के  योगदान के लिए अनुपम को 1996 में इंदिरा गांधी पर्यावरण पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड व मध्यप्रदेश को उन्होंने अपनी कार्यस्थली बनाया। यहां उन्होंने कुओं, बावडिय़ों, तालाबों व बरसाती नदियों के संरक्षण की मुहिम को संबल प्रदान किया।  अनुपम मानते हैं कि वर्ष 2050 में जब भारत की जनसंख्या डेढ़ अरब का आंकड़ा पार चुकी होगी तो देश के सामने जल-संकट एक बड़ी चुनौती के रूप में उपस्थित होगा। लेकिन देश के नीति नियंता इस मुद्दे पर गंभीर नजऱ नहीं आते। उनका स्पष्ट मानना है कि पानी का कोई विकल्प नहीं हो सकता, इसकी पर्याप्त उपलब्धता के लिए व्यापक स्तर पर मुहिम चलाने की आवश्यकता है। 
वे परंपरागत वर्षा जल-संरक्षण की पुरजोर वकालत करते हैं, ताकि वर्षपर्यंत पेयजल की उपलब्धता बनी रहे। वे इसके लिए गैर-सरकारी संगठनों, स्वयंसेवी संस्थाओं, विकास एजेंसियों तथा पर्यावरण संरक्षण से जुड़े समूहों की सक्रिय भागीदारी का आह्वान करते हैं। उनका मानना है कि स्वदेशी तकनीकों के बलबूते पर न केवल हम पेयजल जुटा सकते हैं बल्कि सिंचाई के साधन भी विकसित कर सकते हैं। वे कुओं को पेयजल व सिंचाई जल का महत्वपूर्ण स्रोत मानते हैं। इन कुओं की सफाई व पुनर्जीवन पर वह विशेष बल देते हैं। इसके साथ ही वे भूमि की जलसंग्रहण की परंपरागत तकनीक को बढ़ावा देने की बात करते हैं। वे राजनीतिक उदासीनता को दुखद बताते हुए कहते हैं कि इसके चलते देश में जल संरक्षण चेतना का समुचित विकास नहीं हो पाया।
उनकी स्पष्ट धारणा है कि जल संरक्षण प्रकृति व संस्कृति की रक्षा की अनिवार्य शर्त है। देश में भौगोलिक विषमता के चलते कुछ इलाकों में अकूत जल-संपदा विद्यमान है तो कुछ इलाकों में निपट सूखा है। इस असंतुलन को दूर करने की सख्त जरूरत है। इसमें सरकार की दृढ़ इच्छाशक्ति व जन समुदायों की सक्रिय भागीदारी की जरूरत है। उनके इस अभियान को सार्थक बनाने वाले तरुण भारत संघ के योगदान की दुनियाभर में चर्चा होती है जिसे इस योगदान के लिए ‘मैगसेसे पुरस्कार’ से भी सम्मानित किया गया है।
उल्लेखनीय पहलू यह है कि अनुपम जल संरक्षण की स्वदेशी तकनीकों के पक्षधर रहे हैं। वे मानते हैं कि हमारे पुरखे सही मायनों में जल इंजीनियर थे लेकिन हम उनकी तकनीकों व अपनी विरासत का संरक्षण नहीं कर पाये। आज परंपरागत जल-स्रोत दम तोड़ रहे हैंं। आज वर्षा जल प्रबंधन-संरक्षण वक्त की दरकार है। उनकी मान्यता है कि पश्चिम जीवनशैली में पानी के दुरुपयोग के संस्कार समाहित हैं जिससे बचकर हम जल की बचत कर सकते हैं।
अनुपम पानी की तरह खरे थे। वे कहते थे कि ‘आज तो हमारी भाषा ही खारी हो चली है। जिन सरल, सजल शब्दों की धाराओं से वह मिठी बनती थी उन धाराओं को बिल्कुल नीरस, बनावटी, पर्यावरणीय, परिस्थितिक जैसे शब्दों से बाँधा जा रहा है। अपनी भाषा, अपने ही आंगन में विस्थापित हो रही है। वह अपने ही आंगन में पराई बन रही है।’ उनकी बातें बार-बार याद आती रहेंगी। यंू तो अनुपम हममें से किसी एक के लिए नहीं बल्कि हरेक के लिए एक अनुपम अनुभव की तरह हैं लेकिन मध्यप्रदेश वालों के लिए कुछ खास। हां, अनुपम की यादों को अनुपम बनाये रखने के लिए जरूरत है कि हम सब पानी के जतन के लिए उनके प्रयासों को आगे बढ़ायें और जाने की पानीदार समाज हो जाने में हमें क्या कुछ करना होगा। वे सरकारी तंत्र के साथ काम जरूर करते थे लेकिन सरकारों पर उनकी निर्भरता बिलकुल भी नहीं थी। हम भी उनसे सीख लें ताकि पानी की यह अनुपम बूंदें उनके होने का अहसास दिलाती रहे।

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