सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

स्वरोजगार बनाम स्टार्टअप


मनोज कुमार
लम्बे सफर के बाद जब आप अपनी मंजिल तक पहुंचने वाले होते हैं तब रेल्वे स्टेशन पर सहसा आपकी नजरें कुली को ढूंढने लगती थी. कोई कुली लपक कर आता और आपके बोझ को अपने कंधों पर उठाकर रेल्वे स्टेशन से बाहर छोड़ आता था. लेकिन अब ऐसा नहीं होता है. अब आप कुली को नहीं ढूंढते हैं और रेल्वे स्टेशन पर कुली भी आपको नहीं मिलता है. समय बदल गया है. चुपके से आप यात्री के साथ साथ स्वयं भी कुली बन गए हैं, यह खबर स्वयं को नहीं हो पायी है. जब आप सफर के लिए सूटकेस खरीदने जाते हैं तो और खासियतों के साथ दुकानदार आपको बताता है कि इस सूटकेस के  पहिए घुमावदार और मजबूत है. आपको सामान ले जाने में दिक्कत नहीं होगी. तब वह आपको अपरोक्ष रूप से बता देता है कि कुली के तौर पर आप अपना भार स्वयं उठाने के लिए तैयार हैं. हमें भी लगता है कि कोई सौ-पचास रुपये बचाकर हमने बड़ा काम कर लिया है लेकिन यह भूल जाते हैं कि ऐसा करके हमने एक आदमी का रोजगार छीन लिया है. हमारे बोझ को उठाकर हमें राहत देता था तो हमें मिलने वाली राहत से उसके घर का चूल्हा जलता था. हम बेखबर रहे और हमारी वजह से कई घरों के चूल्हे बुझने लगे. कुछ लोग शायद मेरी तरह संवेदनशील होते हैं तो उन्हें यह बात अखरती है तो उन्हें साजिशन समझा दिया जाता है कि हम अपना बोझ दूसरे के कंधे पर डाल कर उसका शोषण कर रहे हैं. इस शोषण जैसे शब्द से पूरी कायनात पलट जाती है. 
यह एक कुली की बात नहीं है. ऐसे करके हमने जाने कितने लोगों का, अलग अलग ट्रेंड के रोजगार को खत्म कर दिया है. हमने अपनी पारम्परिक संस्कृति को दरकिनार कर दिया है. फैशन के फेर में भी हमने सैकड़ों घरों के चूल्हे की आग को ठंडा कर दिया है. भारतीय समाज में कांच की चूडिय़ां सौभाग्य का प्रतीक हुआ करती थी. तीज-त्योहार से शादी-ब्याह तक हमारी मां-बहनें, भाभी-चाची हाथों भरकर लाल-हरी चूडिय़ां पहनती थीं. इन चूडिय़ों से उनका सौंदर्य निखर उठता था. रसोई में जब वह रोटी बेलती तो बेलन चलने के साथ आपस में टकराती चूडिय़ां उस रोटी के स्वाद को दुगुना कर देती थी. चूडिय़ों के प्रति आसक्ति इतनी कि उनकी आलमारियों में किसम किसम की चूडिय़ां होती थी. यही नहीं, चूडिय़ों के दरक जाने पर फौरन उसे बदल दिया जाता था. बड़े-बूढ़ों ने समझाया था कि दरकी चूडिय़ां सौभाग्यवती नहीं पहनती हैं. वास्तव में इसके पीछे सामाजिक विज्ञान था, मनोविज्ञान काम करता था. दस-बीस और पचास रुपयों की चूडिय़ों से भाग्य कितना संवरता है या नहीं, यह तो उन्हें भी नहीं मालूम होगा लेकिन इन चूडिय़ों की खरीददारी से चूडिय़ां बनाने वाले कारीगरों के बच्चों को दो जून की रोटी आराम से मिलती थी. फिर समय बदला. कुलियों की तरह चूडिय़ों के दिन भी लदने लगे. फैशन ने दस्तक दी और हाथ भर की चूडिय़ां महिलाओं को बंधन लगने लगा. अब कांच की जगह उसी कीमत की मेटल या कुछ ऐसी ही एक-दो पटले हाथों में डाल लिए. महीनों और बल्कि सालों ना खराब होने वाली चूडिय़ां मात्र परम्परा को पूरी करने पहनी जाने लगी. धीरे-धीरे चूडिय़ां बनाने के कारखाने बंद होने लगे. स्वरोजगार के साथ एक और कुटीर उद्योग मरने लगा. खनकती कलाईयों से रोटी में आने वाली मिठास खत्म होने लगी क्योंकि अब रोटियां बेली नहीं बल्कि बनायी जाती हैं क्योंकि घर-घर में रोटीमेकर है. 
मशीनों के हम इतने मोहताज हो गए हैं कि अब हमारी हर सांस मशीनों पर टिकी हुई है. जो मशीनें हमारी जरूरत के लिए बनी थी, वह हमारी दिनचर्या में शामिल हो गई हैं. हम निकम्मे और नकारा होते जा रहे हैं क्योंकि हमने एक-दूसरे का हाथ छोड़ दिया है. और यही कारण है कि खुद का सामान ढोकर पचीस-पचास रुपये बचाकर किसी कुली को बेरोजगार कर रहे हैं तो फैशन के नाम पर चूडिय़ों से भागकर हमने अपने ही लोगों के हाथों का रोजगार छीन लिया है. मशीनों से हमें शारीरिक श्रम से रोक दिया है और हमारी कमाई का एक बड़ा हिस्सा डॉक्टरों के पास जा रहा है. 25-30 साल के युवाओं के गर्दन में, पीठ और कमर में दर्द की शिकायतें बेपनाह हो रही हैं. ऐसा क्यों इस पर हमने सोचा ही नहीं? भागमभाग की जिंदगी में हमारे मुंह में जिस अचार और पापड़ का स्वाद होता था, सेहत बनाती थी, वह गायब है. नकली और सेहत पर भारी पडऩे वाले मशीनों से बने महीनों पुरानी चीजें खाने के बाद बीमारी की दस्तक अस्वाभाविक नहीं है. ऐसे में जब जब स्टार्टअप  की बात होती है मुझे हिन्दी की महत्वपूर्ण कृति ‘सतह से उठता आदमी’ की याद आ जाती है. स्टार्टअप का मोटेतौर पर शायद मायना शायद ‘सतह से उठता आदमी’ हो सकता है. हमने स्टार्टअप तो ले लिया है लेकिन जमीनी सच से कब जुड़ेंगे? महात्मा गांधी कुटीर उद्योगों के पक्षधर थे क्योंकि वे जानते थे कि इससे समाज, संस्कृति के साथ सेहत भी बची रहेगी. बहुत कुछ अभी भी शेष है. योग को योगा बनाकर लौट रहे हैं तो फैशन की तरह लेकिन योग कर लें और थोड़ा दूसरों के प्रति संवेदनशील हो जाएं तो शायद मशीन और डॉक्टर से हमारा पीछा तो छूटेगा ही. चूडिय़ों की खनक और कुलियों की मुस्कराहट से अपनी नई पीढ़ी को दिखा सकेंगे.

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

विकास के पथ पर अग्रसर छत्तीसगढ़

-अनामिका कोई यकीन ही नहीं कर सकता कि यह वही छत्तीसगढ़ है जहां के लोग कभी विकास के लिये तरसते थे।  किसी को इस बात का यकिन दिलाना भी आसान नहीं है कि यही वह छत्तीसगढ़ है जिसने महज डेढ़ दशक के सफर में चौतरफा विकास किया है। विकास भी ऐसा जो लोकलुभावन न होकर छत्तीसगढ़ की जमीन को मजबूत करता दिखता है। एक नवम्बर सन् 2000 में जब समय करवट ले रहा था तब छत्तीसगढ़ का भाग्योदय हुआ था। साढ़े तीन दशक से अधिक समय से स्वतंत्र अस्तित्व की मांग करते छत्तीसगढ़ के लिये तारीख वरदान साबित हुआ। हालांकि छत्तीसगढ़ राज्य बन जाने के बाद भी कुछ विश्वास और असमंजस की स्थिति खत्म नहींं हुई थी। इस अविश्वास को तब बल मिला जब तीन वर्ष गुजर जाने के बाद भी छत्तीसगढ़ के विकास का ब्लूप्रिंट तैयार नही हो सका था। कुछेक को स्वतंत्र राज्य बन जाने का अफसोस था लेकिन 2003 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने सत्ता सम्हाली और छत्तीसगढ़ के विकास का ब्लू प्रिंट सामने आया तो अविश्वास का धुंध छंट गया। लोगों में हिम्मत बंधी और सरकार को जनसमर्थन मिला। इस जनसमर्थन का परिणाम यह निकला कि आज छत्तीसगढ़ अपने चौतरफा विकास के कारण देश के नक्शे

शोध पत्रिका ‘समागम’ का नवीन अंक

  शोध पत्रिका ‘समागम’ का नवीन अंक                                       स्वाधीनता संग्राम और महात्मा गांधी पर केन्द्रीत है.                      गांधी की बड़ी यात्रा, आंदोलन एवं मध्यप्रदेश में                                          उनका हस्तक्षेप  केन्दि्रय विषय है.

टेक्नो फ्रेंडली संवाद से स्वच्छत

मनोज कुमार           देश के सबसे स्वच्छ शहर के रूप में जब इंदौर का बार-बार जिक्र करते हैं तो मध्यप्रदेश को अपने आप पर गर्व होता है, मध्यप्रदेश के कई शहर, छोटे जिलों को भी स्वच्छ भारत मिशन के लिए केन्द्र सरकार सम्मानित कर रही है. साल 2022 में मध्यप्रदेश ने देश के सबसे स्वच्छ राज्य का सम्मान प्राप्त किया। स्वच्छता का तमगा एक बार मिल सकता है लेकिन बार-बार मिले और वह अपनी पहचान कायम रखे, इसके लिए सतत रूप से निगरानी और संवाद की जरूरत होती है. कल्पना कीजिए कि मंडला से झाबुआ तक फैले मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में बैठकर कैसे निगरानी की जा सकती है? कैसे उन स्थानों में कार्य कर रही नगरपालिका,  नगर परिषद और नगर निगमों से संवाद बनाया जा सकता है? एकबारगी देखें तो काम मुश्किल है लेकिन ठान लें तो सब आसान है. और यह कहने-सुनने की बात नहीं है बल्कि प्रतिदिन मुख्यालय भोपाल में बैठे आला-अधिकारी मंडला हो, नीमच हो या झाबुआ, छोटे शहर हों या बड़े नगर निगम, सब स्थानों का निरीक्षण कर रहे हैं और वहां कार्य करने वाले अधिकारी-कर्मचारियों, सफाई मित्रों (मध्यप्रदेश में सफाई कर्मियों को अब सफाई मित्र कहा जाता है) के