सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

बेमानी है प्रेस फ्रीडम की बातें

मनोज कुमार


    तीन दशक पहले संयुक्त राष्ट्र संघ ने 3 मई को विश्व प्रेस फ्रीडम डे मनाने का ऐलान किया था. तब से लेकर आज तक हम इसे पत्थर की लकीर मानकर चल रहे हैं. इन तीन दशकों में क्या कुछ हुआ, इसकी मीमांसा हमने नहीं की. पूरी दुनिया में पत्रकार बेहाल हैं और प्रेस बंधक होता चला जा रहा है. खासतौर पर जब भारत की चर्चा करते हैं तो प्रेस फ्रीडम डे बेमानी और बेकार का ढकोसला लगता है. दशकवार जब भारत में पत्रकारिता पर नजर डालें तो स्थिति खराब नहीं बल्कि डरावना लगता है. लेकिन सलाम कीजिए हम पत्रकारों की साहस का कि इतनी बुरी स्थिति के बाद भी हम डटे हुए हैं. हम पत्रकार से मीडिया में नहीं बदल पाये इसलिए हमारे साहस को चुनौती तो मिल रही है लेकिन हमें खत्म करने की साजिश हमेशा से विफल होती रही है. इस एक दिन के उत्सवी आयोजन से केवल हम संतोष कर सकते हैं लेकिन फ्रीडम तो कब का खत्म हो चुका है बस समाज की पीड़ा खत्म करने का जज्बा ही हमें जिंदा रखे हुए है.
    भारत में पत्रकारिता के पतन की शुरूआत और उसकी स्वतंत्रता खत्म करने का सिलसिला साल 1975 में ही शुरू हो गया था. आपातकाल के दरम्यान जो कुछ घटा और जो कुछ हुआ, वह कई बार बताया जा चुका है. उसे दोहराने का अर्थ समय और स्पेस खराब करना है. लेकिन एक सच यह है कि पत्रकारिता इसके बाद से दो हिस्सों में बंटती चली गई. लोगों ने मिशन से बाहर आकर इसे प्रोफेशन मान लिया. अखबारों और पत्रिकाओं की संख्या मे इजाफा होना शुरू हो गया. कल तक जिनके लिए किसी स्कूल में शिक्षक बन जाना आसान था, उन्हें यह भी आसान लगा कि पत्रकार बन जाओ. ना शिक्षा की पूछ-परख और ना ही अनुभव का कोई लेखा-जोखा. मैं कुछ ऐसे पत्रकारों को जानता हंू जो शीर्ष संस्थाओं के प्रमुख हैं लेकिन जमीनी पत्रकारिता से उनका कोई वास्ता नहीं रहा. डिग्री हासिल की और सुविधाजनक ढंग से बड़े पदों पर आसीन हो गए. नयी पीढ़ी उन्हें प्रखर पत्रकार और आचार्य संबोधित करने लगे. मिश्री घुली बातों से वे चहेते बन गए और आज जिस बात का हम रोना रो रहे हैं, वह इन्हीं महानुभावों की वजह से उत्पन्न हुआ है. इसमें तथाकथित प्रखर पत्रकार और आचार्य बन चुके रसमलाई में लिपटे लोगों की गलती तो थोड़ी है. इससे बड़ी गलती उन दिग्गज लोगों की है जो जानते हुए भी उन्हें आगे बढ़ाने में लग रहे.
    बेहिसाब पत्रकारिता के शिक्षण संस्थान शुरू हो रहे हैं. यहां पढऩे वाले विद्यार्थियों को पत्रकारिता को छोडक़र शेष सारी विधायें सिखायी जाती हैं. डिग्री और बेहतर नौकरी के साथ सुविधाजनक जिंदगी की चाहत लिए पत्रकारिता के नौनिहाल सवाल करना भी नहीं जानते हैं. संवाद और अध्ययन से उनकी कोसों दूरी है. कभी किसी पर इनकी खबर का केवल इंट्रों देख लीजिए तो माथा पीट लेंगे. पू्रफ रीडिंग जैसी बुनियादी सबक कभी इन्हें सिखाया नहीं गया. जुम्मा-जुम्मा चार साल की पत्रकारिता और वरिष्ठ पत्रकार का खिताब. इन सालों में एक खबर ऐसी नहीं कि जो छाप छोड़ गई हो. हालांकि निराशाजनक स्थिति के बावजूद मैं कह सकता हूं कि कुछेक विद्यार्थी हैं जो पत्रकारिता करने आये थे और पत्रकारिता कर रहे हैं. पत्रकारिता शिक्षण संस्थाओं में अध्यापन के दौरान उन्हें इस बात का भी ज्ञान नहीं दिया गया कि पत्रकारिता और मीडिया क्या है? आज पत्रकारिता दिवस है और सोशल मीडिया में निश्चित रूप से मीडिया को शुभकामनाएं दी जा रही होंगी. प्रेस की स्वतंत्रता के मायने यह नहीं है कि आपको लिखने की आजादी है. प्रेस स्वतंत्रता का अर्थ है आप सामाजिक सरोकार की पत्रकारिता करें. पेजथ्री की पत्रकारिता से बाहर आकर एक बार विद्यार्थी, पराडकर, गांधी और तिलक को पढ़ें. मैं यह भी नहीं कहता कि आधुनिक संचार माध्यमों में वह सबकुछ संभव है जो पराधीन भारत की पत्रकारिता में था लेकिन जैसे सृृष्टि ने मां बनाया तो सदियां बदल जाने के बाद भी मां ही है, वैसे ही माध्यम बदल जाए, विकास हो जाए लेकिन पत्रकारिता की आत्मा जिंदा रहना चाहिए. पत्रकारिता हमारी अस्मिता है.
    जब हम प्रेस स्वतंत्रता की बात करते हैं तो इन दिनों कोरोना काल में जो कुछ घट रहा है, वह हमें आईना दिखाने के लिए बेहतर है. देशभर में पत्रकारों को फ्रंटलाइन कोरोना वर्कर मानने के लिए सरकारों को अर्जियां दी जा रही हैं. फिर राजशाही की तरह सरकार हम पर एहसान कर कहती है कि फलां सरकार ने पत्रकारों को फ्रंटलाइन कोरोना वर्कर मान लिया है. समाज में शुचिता और सकरात्मकता का भाव उत्पन्न करने की जिम्मेदारी पत्रकारिता की. सरकार के प्रयासों को लोगों तक पहुंचाने की अपेक्षा पत्रकारिता से. लेकिन पत्रकारों को फ्रंटलाइन कोरोना वर्कर मानने के लिए सरकारों से बात करना होगी. क्या सरकारों की जिम्मेदारी नहीं है कि वह हमारा ध्यान रखे? इस स्थिति के लिए भी हम दोषी हैं. रोहित सरदाना की मृत्यु हो जाती है तो हम खेमें में बंट जाते हैं. हम भूल जाते हैं कि वो भी एक पत्रकार था और हम सब भी. यह भी सच है कि जिस अखबार, पत्रिका या चैनल में काम करेेंगे, उसकी नीति के अनुरूप बोलना होगा. यह बंधन सबके लिए है. हमारी आपस की बैर और खेमेबाजी राजनीतिक दलों के लिए सुविधा पैदा करती है. आज सचमुच में प्रेस स्वतंत्र होता तो सरकारें आगे आकर फ्रंटलाइन कोरोना वर्कर मानने के लिए मजबूर होती लेकिन दुर्भाग्य से हम खेमेबाज पत्रकार हैं. इसलिए सब बातें बेमानी है.
    उम्मीद कीजिए और भरोसा रखिए कि देश के कोने कोने से कोराना के चलते जो पत्रकार जान गंवा रहे हैं, उनसे हम सीख लें. एक साथ खड़े हो जाएं. जिस दिन हम यह साहस कर पाएंगे हर प्रबंधन को आगे आकर वेतन आयोग की शर्ते मानना होगी और सरकारों को भी. लेकिन इसके लिए इंतजार करना होगा कि क्योंकि एक ऐसी अदृश्य शक्ति है जो हमें इसमें या उसमें बांट रही है.   

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

विकास के पथ पर अग्रसर छत्तीसगढ़

-अनामिका कोई यकीन ही नहीं कर सकता कि यह वही छत्तीसगढ़ है जहां के लोग कभी विकास के लिये तरसते थे।  किसी को इस बात का यकिन दिलाना भी आसान नहीं है कि यही वह छत्तीसगढ़ है जिसने महज डेढ़ दशक के सफर में चौतरफा विकास किया है। विकास भी ऐसा जो लोकलुभावन न होकर छत्तीसगढ़ की जमीन को मजबूत करता दिखता है। एक नवम्बर सन् 2000 में जब समय करवट ले रहा था तब छत्तीसगढ़ का भाग्योदय हुआ था। साढ़े तीन दशक से अधिक समय से स्वतंत्र अस्तित्व की मांग करते छत्तीसगढ़ के लिये तारीख वरदान साबित हुआ। हालांकि छत्तीसगढ़ राज्य बन जाने के बाद भी कुछ विश्वास और असमंजस की स्थिति खत्म नहींं हुई थी। इस अविश्वास को तब बल मिला जब तीन वर्ष गुजर जाने के बाद भी छत्तीसगढ़ के विकास का ब्लूप्रिंट तैयार नही हो सका था। कुछेक को स्वतंत्र राज्य बन जाने का अफसोस था लेकिन 2003 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने सत्ता सम्हाली और छत्तीसगढ़ के विकास का ब्लू प्रिंट सामने आया तो अविश्वास का धुंध छंट गया। लोगों में हिम्मत बंधी और सरकार को जनसमर्थन मिला। इस जनसमर्थन का परिणाम यह निकला कि आज छत्तीसगढ़ अपने चौतरफा विकास के कारण देश के नक...

नागरिक बोध और प्रशासनिक दक्षता से सिरमौर स्वच्छ मध्यप्रदेश

  मनोज कुमार वरिष्ठ पत्रकार                    स्वच्छ भारत अभियान में एक बार फिर मध्यप्रदेश ने बाजी मार ली है और लगातार स्वच्छ शहर बनने का रिकार्ड इंदौर के नाम पर दर्ज हो गया है. स्वच्छ मध्यप्रदेश का तमगा मिलते ही मध्यप्रदेश का मस्तिष्क गर्व से ऊंचा हो गया है. यह स्वाभाविक भी है. नागरिक बोध और प्रशासनिक दक्षता के कारण मध्यप्रदेश के खाते में यह उपलब्धि दर्ज हो सकी है. स्वच्छता गांधी पाठ का एक अहम हिस्सा है. गांधी जी मानते थे कि तंदरूस्त शरीर और तंदरूस्त मन के लिए स्वच्छता सबसे जरूरी उपाय है. उनका कहना यह भी था कि स्वच्छता कोई सिखाने की चीज नहीं है बल्कि यह भीतर से उठने वाला भाव है. गांधी ने अपने जीवनकाल में हमेशा दूसरे यह कार्य करें कि अपेक्षा स्वयं से शुरूआत करें के पक्षधर थे. स्वयं के लिए कपड़े बनाने के लिए सूत कातने का कार्य हो या लोगों को सीख देने के लिए स्वयं पाखाना साफ करने में जुट जाना उनके विशेष गुण थे. आज हम गौरव से कह सकते हैं कि समूचा समाज गांधी के रास्ते पर लौट रहा है. उसे लग रहा है कि जीवन और संसार बचाना है तो ...

शोध पत्रिका ‘समागम’ का नवीन अंक

  शोध पत्रिका ‘समागम’ का नवीन अंक                                       स्वाधीनता संग्राम और महात्मा गांधी पर केन्द्रीत है.                      गांधी की बड़ी यात्रा, आंदोलन एवं मध्यप्रदेश में                                          उनका हस्तक्षेप  केन्दि्रय विषय है.