गुरुवार, 4 सितंबर 2025

मास्साब से शिक्षा कर्मी : कहाँ तलाशें राधाकृष्णन



प्रो. मनोज कुमार

आज एक महान दिन है. आज हम सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म को शिक्षक दिवस के रूप में मनाते हैं. किसी महान व्यक्ति के जन्मदिन का उत्सव इसलिए नहीं मनाते हैं कि उन्होंने अपने जीवनकाल में उपलब्धियाँ अर्जित की बल्कि इसलिए मनाते हैं कि समाज उनके नक्शेकदम पर चल कर उनकी दृष्टि के साथ नए समाज का निर्माण करे. लेकिन दुर्भाग्य से आज हम जिस समय में जी रहे हैं, उस समय में शिक्षक दिवस महज औपचारिक बन कर रह गया है. शिक्षक मास्साब से शिक्षाकर्मी हो गए हैं और विद्यार्थी तो विद्यार्थी रहे ही नहीं. शिक्षा और विद्यालय दोनों ही बाजार बन गए हैं. सरकारी स्कूलों पर बदहाली का ठप्पा है तो प्रायवेट स्कूल मनमानी फीस लेकर स्टेट्स सिंबल बन गए हैं. दुर्भाग्य इस बात का है कि लगभग सभी प्रायवेट स्कूलों  स्वयं को इंटरनेशनल का तमगा दे रखा है. होगा भी, अच्छी बात है लेकिन पहली बात यह है कि क्या कोई प्रायवेट स्कूल स्थानीय या राज्य का नहीं हो सकता है. प्रायवेट स्कूल कभी अपने को जनता विद्यालय संबोधित नहीं करते हैं, उन्हें गर्व होता है पब्लिक स्कूल संबोधित करते हुए. हम आजादी के साथ ही इस बात का शोर मचा रहे हैं कि मैकाले ने भारतीय शिक्षा पद्धति का नाश कर दिया. बात सही है लेकिन क्या मैकाले इस करतूत का जवाब हम अच्छा करके नहीं दे सकते हैं. स्वाधीनता के बाद हम अनेक सेक्टर में बेहतर प्रदर्शन किया, स्वयं को खड़ा किया और विश्व गुरु बनने की ओर एक बार तैयार हैं तो ऐसा क्या हुआ कि हम शिक्षा को नहीं सुधार पाए? ऐसा क्या हुआ कि शिक्षा को जागरूक समाज का हिस्सा बनाने के बजाय डिग्री से जोड़ दिया और नौकरी के लिए मोहताज कर दिया. सच तो यह है कि मैकाले ने भारतीय शिक्षा व्यवस्था पर मठा डाल गया था और हम उसकी गलती को आगे बढ़ाते रहे. 
जो लोग इस बात को लेकर माथा पीट रहे हैं कि सरकारी स्कूल बदहाल हैं लेकिन पन्ने पलटिए  और देखिए कि देश और दुनिया में जो महान लोग हैं, वे इन्हीं सरकारी स्कूलों में पढ़े हैं. और आज भी कामयाब लोगों की सूची बनाएंगे तो उनमें ज्यादतर सरकारी स्कूलों में पढऩे वाले मिलेंगे. हर साल परीक्षा परिणाम जाँचेंगे तो पता चलेगा कि प्रायवेट स्कूल से ज्यादा बेहतर परिणाम सरकारी स्कूलों की है. थोड़ी के लिए मान लेते हैं कि सरकारी स्कूल बदहाल हैंं तो हमने उसमें सुधार के लिए क्या किया? हम आगे नहीं आए और अपने नौनिहालों को अंग्रेजी मीडियम के पब्लिक स्कूलों के हवाले कर दिया. हमें अंग्रेजी नहीं आती है लेकिन बच्चों को अंग्रेजी बोलते देख हम खुश हो जाते हैं. हमारे अवचेतन में जो हमारी नाकामयाबी है, कुंठा है, उसका शमन हम इस तरह करते दिखते हैं. इसी समाज में जब मास्साब को शिक्षा कर्मी बनाया जा रहा था तो किसने आवाज उठायी?  जब ऐसा हो रहा था तो हम चुप थे. अब शिकायत किस बात की. यहाँ भी बदले रूप में आपको मैकाले दिख जाएगा. पचास वर्ष की उम्र और उससे अधिक वाले हम लोग जो अपने अपने विषय के जानकार हैं, विशेषज्ञ हैं, उन्होंने कभी आगे आकर कहा कि सरकारी स्कूलों में शिक्षक नहीं हैं तो हम पढ़ाऐंगे. जिस समाज ने आपको मान और जीवन जीने लायक बनाया, क्या वहाँ आपका दायित्व नहीं है कि उस समाज को कुछ लौटाएं? नहीं, हमारा सुर तो शिकायत का है. कवि कुमार विश्वास कहते हैं कि जब राज्य फेल होता है तो निजी संस्थाएं पनपती हैं लेकिन मेरा कहना है कि जब समाज फेल होता है तब निजी संस्थाएं पनपती हैं. हर बात पर सरकार पर निर्भरता समाज को कमजोर बनाती है। 
एक वीडियो इन दिनों चर्चा में है जिसका लब्बोलुआब यह है कि बच्चा फेल हो रहा है तो यह स्कूल की और शिक्षक की जवाबदारी है ना कि पालकों की. यह सच है कि जब स्कूल  मोटी फीस वसूल रहे हैं तो उन्हें इस बात की जिम्मेदारी लेना पड़ेगी. लेकिन क्या किसी के पास इस बात का जवाब है कि पालकों की अपनी जिम्मेदारी नहीं है कि वह अपने बच्चों को जाँचे कि वह क्या पढ़ रहे हैं या नहीं? दरअसल यहां मानसिकता बाज़ार की हो गई है।

एक वह भी समय था जब मास्साब गलती होने पर, पढ़ाई नहीं करने पर पेट में चिकोटी काट कर उठा देते थे और घर पर जाकर बच्चे की शिकायत करते थे. पालक मास्साब का आवभगत करते थे और घर आने पर धुनाई. लेकिन अब बच्चे को इस तरह की सजा देने की बात करना तो दूर, अब उनसे ऊँची आवाज में बात नहीं कर सकते हंै. यदि कुछ किया तो कार्यवाही करने के लिए अनेक कानूनी मंच हैं. अब ऐसे में मैकाले से कैसे मुक्ति पाएंगे. यह नौबत आयी कैसै, कौन है इसके लिए दोषी? इस दौर की यह भी एक सच्चाई यह है कि अनेक खबरें आती हैं कि जिसमें शिक्षक ने गुस्से में बच्चे को बेरहमी से पीटा या कि बच्चियों के साथ अश£ील हरकतें की. शिक्षक शराब पीकर स्कूल में पहुँच गए हैं. ये हुआ वह भयावह है लेकिन हुआ क्यों? हुआ इसलिए कि हमने डिग्री देखकर उसे शिक्षक बना दिया. उसके भीतर शिक्षक का भाव है कि नहीं, वह जवाबदार है कि नहीं, यह देखने का कोई सिस्टम हमारे पास है नहीं. पब्लिक स्कूलों के शिक्षक के लिए पहली जरूरत होती है अँग्रेजी का ज्ञान और सरकारी स्कूलों की जरूरत होती है खाली पदों को भरना. हालांकि सिस्टम ही यही है तो क्या ही किया जा सकता है.
समस्या तो बड़ी है और आने वाले दिनों में भयावह होगी. इसलिए आवश्यक हो जाता है कि जिस तरह पीपीपी मोड में अन्य कार्य हो रहे हैं, वैसा ही एक ढाँचा शिक्षण के लिए बनाया जाए. हरेक घर से एक व्यक्ति यह जिम्मेदारी ले और अपनी विशेषज्ञता के साथ बच्चों को पढ़ाने जाए. फिलवक्त समस्या का एक समाधान यह भी हो सकता है कि वृद्धाश्रम में निराशा में डूबते-उतरते अपने समय के काबिल लोगों को शिक्षण के कार्य पर लगायें. वे अपने अनुभव से पूरी शिक्षा व्यवस्था का चेहरा बदल देंगे. समाज को भी ये इंटरनेशल पब्लिक स्कूलों से भी दूर जाना होगा. राष्ट्रीय शिक्षा नीति से एक उम्मीद जगती है कि मातृभाषा में शिक्षा. यह अंग्रेजी से मुक्ति का एक बड़ी कोशिश है. सरकारी स्कूलों से ही आपको डॉ. राधाकृष्णन, कलाम साहब, डॉ. शंकर दयाल शर्मा और अनन्य लोग मिल जाएंगे. समाज को फिर से मास्साब चाहिए ना कि शिक्षा कर्मी. साक्षात्कार एवं अन्य प्रयोग से आप शिक्षण संस्थानों के लिए कर्मी तो बना सकते हैं लेकिन शिक्षक तो स्वयं से बनते हैं. एक जुनून ही शिक्षक का दूसरा नाम होता है. ऐसा कर सकें तो ना केवल महान शिक्षाविद् हमें मिलेंगे बल्कि मैकाले की कालीछाया से भी मुक्ति पा सकेंगे.(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं मीडिया शिक्षा से संबद्ध हैं)

मास्साब से शिक्षा कर्मी : कहाँ तलाशें राधाकृष्णन

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