शुक्रवार, 7 अगस्त 2009

bahas

पत्रकारिता के इस मंच पर आपका स्वागत है

बहस में हिस्सेदारी कीजिये- सराय नहीं पत्रकारिता

पत्रकारिताको लेकर लगातार बहस होती है। पत्रकारिता के कार्य और उसकी सरहदों को लेकर लोग मनचाहे कमेंट करते हैं। कहीं कहीं पर तो पत्रकारिता के अस्तित्व पर भी सवालिया निशान लगाया जाता है। बावजूद इसके पत्रकारिता के बिना लोगों का काम भी नहीं चल पाता है क्योंकि पत्रकारिता ही एक ऐसा मंच है जहां न वकील करना पड़ता है और न ही अपनी बात को रखने के लिये किसी की सिफारिश। बिना स्वार्थ और लोभ के लोकहित में पत्रकारिता ढाई सौ सालों से अधिक समय से काम कर रहा है। पत्रकारिता में वे लोग काम कर रहे हैं जो मुफलिसी में जीना पसंद करते हैं और जिनके लिये लोकसेवा पहला कर्तव्य है। पत्रकारिता में यह स्थिति बदलती जा रही है। अब नौकरी नहीं मिलने के कारण पत्रकारिता में आना मजबूरी हो गई है या फिर लोकप्रियता हासिल करने के लिये भी लोग पत्रकारिता में प्रवेश कर रहे हैं। हाल ही में प्रोफेसरी से बर्खास्त किये गये प्रो. मटुकनाथ ने पत्रकारिता में आने की बात कही है। क्या मटुकनाथ का पत्रकारिता में आना उचित है? क्या मटुकनाथ को पत्रकारिता में आना चाहिए? संभव है कि आपको मटुकनाथ एक सेलिब्रेटी लगे और उनका आना आपको ठीक लगे लेकिन सवाल यह है कि पत्रकारिता को सेलिब्रेटी चाहिए अथवा समर्पित व्यक्तित्व? पत्रकारिता का जो स्वरूप प्रस्तुत किया जा रहा है उससे इतर एक दुनिया बनाने की जरूरत है जो वास्तव में है। आप सजग हैं और पत्रकारिता के प्रति गंभीर भी। आपकी राय इस मायने में महत्वपूर्ण होगी। पत्रकारिता सराय नहीं है, विषय पर आपकी प्रतिक्रिया मेरे ब्लाक http:\\mpreporter.blogpost.com पर भेजें। मेरा ईमेल है k.manojnews@gmail.com mpreporter2009@gmail.com

1 टिप्पणी:

  1. आदरणीय मनोज जी,
    वैसे तो आपका नाम ही काफी था हिलाने के लिए लेकिन आपके विषय ने तो झकझोर कर रख दिया,
    दरअसल पत्रकारिता का एक वो दौर था जिससे आप जैसे पत्रकार गुजरे और ये एक आज का दौर है जिससे कई तरह के विचित्र पत्रकार गुजर रहे है. यहाँ विचित्र कहना किसी पत्रकार या पत्रकारिता का अपमान करना नहीं है, विचित्रता है उनके काम करने और सोचने के तरीके में, इस सब के बीच से पत्रकारिता के मूल्य (जिनकी बात आपने उठाई है) गुम हो गए लगते हैं,
    सभी के अपने अपने आसमान हैं, ऐसा नहीं की आज लोग समर्पित नहीं है, लेकिन फ्रंटलाइन में खडा व्यक्ति ही हमेशा आदर्श होता है ये तो हम सभी जानते है, इस व्यक्ति के विचार कई बार परिस्थितियों के हिसाब से बदलते रहते हैं, लब्बो लुआब ये की ये जैसा मरीज हो वैसी ही दावा देने में यकीन रखता है. इस सोच ने प्रथा का रूप ले लिया है अब पत्रकारिता में दोहरे मानदंड वाले इक्का दुक्का लोग ही नजर आते है, अधिकांश लोग अनेकों मानदंड वाले हो गए हैं. जो नहीं हुए है वे अवसरों की तलाश में है की हो जाएँ.
    मीडिया को मटुकनाथ जैसे लोगो ने सराय नहीं मुफ्त की सुविधा वाली फाइव स्टार होटल समझ रखा है, जोड़ लाइम लाइट में रहने का रास्ता दिखाई देता है, इन्हें पत्रकारिता पर अहसान करने का पहला मौका कौन देगा ये देखना बाकी है. वैसे चिंता की कोई बात इसलिए नहीं है क्योंकि ये मीडिया के ही तैयार किये हुए खिलोने हैं और इनकी चाबी भी मीडिया के ही पास है.
    विगत वर्षो में मीडिया और व्यावसायिकता का जो घालमेल बना इसने संतुलन और बिगाड़ दिया है, धंधा करना बुरा नहीं है, पर सिर्फ आदर्श संतुलन का सवाल है.
    --
    संजीव परसाई

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