शुक्रवार, 8 अगस्त 2025

पचास साल से ‘शोले’ का भोपाल कनेक्शन

प्रो. मनोज कुमार

    पवित्र माह अगस्त में जब हम स्वाधीनता का उत्सव मना रहे होंगे तब फिल्म ‘शोले’ अपना पचासवाँ सालगिरह मना रहा होगा। इस फिल्म की चर्चा की जरूरत इसलिए भी है कि पचास साल पहले ‘शोले’े की ही चर्चा नहीं थी बल्कि यह साल इतिहास के पन्नों में दर्ज है, जब देश में आपातकाल लागू हुआ था। अनेक फिल्मों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। अभिव्यक्ति की आजादी पर पहरा बिठा दिया गया था लेकिन फिल्म ‘शोले’ मजे से देखी गई क्योंकि यह सरकार पर वार नहीं करती थी। मौसी और जय का संवाद हो या ताँगेवाली बसंती का बड़बोलापन, राधा की खामोशी हो या सांभा का डायलाग... बार बार और हर बार, हर पीढ़ी को मोह लेता है। इस संकटकाल में ‘शोले’ ने कई मानक गढ़े और आज भी वह सिने प्रेमियों को लुभा रहा है। 

...तो क्या दो रुपये में पूरा जंगल खरीदने निकले थे आप... देखो मियाँ भोत हो गया...अब आप यहाँ से रवानगी डाल दो... नई तो मेरा नाम भी सूरमा भोपाली ऐसई नई हे... यह डॉयलाग तो आपको याद होगा।। होगा क्यों नहीं... पचास साल से धूम मचा रहे सूरमा भोपाली ऐसई थोड़ी हैं... ये हैं फिल्म ‘शोले’ के भोपाल और मध्यप्रदेश कनेक्शन की पहली कड़ी...इसके अलावा भी और भी कड़ी हैं जिनका हम आगे जिक्र करेंगे।  ‘शोले’ किसी अलहदा कहानी पर नहीं बनी थी। फौरीतौर पर देखा जाए तो वह एक मसाला फिल्म थी।  ‘पचास पचास कोस दूर जब बच्चा रात तो रोता है तो माँ कहती है चुप हो जा... नहीं तो गब्बर आ जाएगा’....  ‘शोले’ के अलावा भी अनेक फिल्मों ने पचास साल पूरे किए लेकिन शोले ने जो रिकार्ड कायम किया, उसका सानी दूसरा नहीं हुआ। ‘शोले’ और भोपाल और मध्यप्रदेश कनेक्शन को याद करना भी जरूरी हो जाता है।

कभी चुलबुली और बाद में संजीदा नायिका के रूप में जिन्हें आप याद करेंगे तो वह भोपाल की जया होगी। कभी यही जया भादुड़ी आज श्रीमती जया बच्चन हंै। इस तरह फिल्म शोले में जया भादुड़ी का भोपाल कनेक्शन भी आपकी याद में होगा। भोपाल में अपने समय के लब्ध प्रतिष्ठित पत्रकार तरूण कुमार भादुड़ी की बिटिया जया भादुड़ी हैं। इस फिल्म में तरूण कुमार भादुड़ी का कोई सीधा कनेक्शन नहीं है लेकिन गब्बर का किरदार को प्रभावी बनाने में उनकी किताब ‘अभिशप्त चंबल’ का बड़ योगदान है। अमज़द खान को उन्होंने यह किताब पढऩे के लिए दिया गया था जिसे रियल लाइफ में अमजद खान की पत्नी यह किताब पढ़ कर उन्हें सुनाती। इस तरह गब्बर सिंह का स्वाभाविक और दमदार किरदार परदे पर उतर आया। जय की भूमिका निभाने वाले अमिताभ बच्चन भले ही जन्म से इलहाबादी हों लेकिन भोपाल के दामाद होने से उनका भी ‘शोले’में भोपाली कनेक्शन दिखता है। ऐसे में पचास साल पहले लौटते हैं तो अपने समय की बॉक्स ऑफिस पर सुपर-डुपर फिल्म के रूप में धूम मचाने वाली फिल्म ‘शोले’ के भोपाल और मध्यप्रदेश कनेक्शन को लेकर चर्चा करना जरूरी हो जाता है। ‘शोले’ और भोपाल की ऐसी आपसदारी है कि ‘शोले’ की चर्चा हो और भोपाल छूट जाए और भोपाल की चर्चा हो और ‘शोले’ का जिक्र ना हो, यह तो लगभग नामुमकिन सा है। आखिऱ क्या कनेक्शन है ‘शोलेे’ और भोपाल का? जब इस बात की तहकीकात करेंगे तो आनंद आ जाएगा और यह बात भी साफ हो जाएगी कि करीब डेढ़ दशक से ऊपर समय से भोपाल में फिल्म सिटी बनाए जाने की माँग की जा रही है, वह जायज है। सरकार को इस ओर ध्यान देकर भोपाल में फिल्म सिटी डेवलप किया जाना चाहिए। 

खैर, फिल्म ‘शोले’ के भोपाल कनेक्शन की बात करते हैं तो बीती पीढ़ी, वर्तमान पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी जब भी ‘शोले’ देखती है तो उसे सूरमा भोपाली याद आ जाते हैं। अब आप पूछ सकते हैं कि सूरमा भोपाली है कौन? तो मियाँ हम कहेंगे हमारे जगदीप...  भोपाल में सूरमा भोपाली जैसा सचमुच का कोई किरदार है या नहीं, यह तो पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता है लेकिन भोपाल की मशहूर पटियाबाजी से यह किरदार उपजा होगा। और यह किरदार इतना प्रभावी है कि फिल्म से उसे हटा दिया जाए तो फिल्म का एक बड़ा हिस्सा वीरान सा हो जाएगा। सूरमा भोपाली के किरदार को इस कदर जीवंत किया कि वाह भोपाल, आह भोपाल बरबरस ही निकल पड़ता है। याद होगा ना कि अपने लकड़ी के टाल पर पटियाबाजी के अंदाज में सूरमा अर्थात जगदीप लम्बी लम्बी छोड़ते हैं और बताते हैं कि कैसे उन्होंने जय-वीरू को कॉलर पकड़ कर अंदर करवा दिया था। लेकिन सामने जय-वीरू को देखते ही उनके पसीने छूट जाता है। बस, इसी के साथ दर्शकों के चेहरे पर हँसी आ जाती है। इस कॉमिक कैरेक्टर से जगदीप को काफी नाम और पहचान मिली, जिसके बाद से उन्हें सूरमा भोपाली के नाम से भी जाना जाने लगा। वैसे जगदीप का जन्म मध्यप्रदेश के दतिया में 29 मार्च 1939 को एक संपन्न परिवार में हुआ था। ‘शोले’ में उनको ये रोल मिलने का किस्सा भी बड़ा मजेदार है। ‘सूरमा भोपाली’ का किरदार भोपाल के फॉरेस्ट ऑफिसर नाहर सिंह पर आधारित था।

भोपाल में अरसे तक रहे जावेद अख्तर ने नाहरसिंह के किस्से सुन रखे थे, इसलिए जब उन्होंने सलीम के साथ फिल्म ‘शोले’ लिखना शुरू किया, तो कॉमेडी के लिए नाहर सिंह से मिलता-जुलता किरदार ‘सूरमा भोपाली’ तैयार कर दिया। जावेद अख्तर ने उन्हें ‘शोले’ की कहानी सुनाई। जगदीप को लगा कि दोस्ती की वजह से उन्हें काम मिलेगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। फिल्म की लगभग पूरी शूटिंग हो गई, तब एक दिन अचानक उन्हें डायरेक्टर रमेश सिप्पी का फोन आया। उन्होंने जगदीप को फिल्म में सूरमा भोपाली का रोल ऑफर किया। इस पर जगदीप ने कहा कि फिल्म की शूटिंग तो पूरी हो गई। तब सिप्पी ने कहा कि अभी कुछ सीन्स की शूटिंग बाकी है। सिप्पी के ऑफर पर  उन्होंने सूरमा भोपाली का रोल निभाया। शोले और सूरमा भोपाली का रोल, दोनों ही हिट रहे। इस सक्सेस के बाद जगदीप ने इसी किरदार पर फिल्म सूरमा भोपाली बनाई भी, जो 1988 में रिलीज हुई थी। ये भारत के बहुत से राज्य में फ्लॉप रही, लेकिन मध्यप्रदेश में इस फिल्म के प्रशंसक बड़ी तादाद में रहे।

सूरमा भोपाली के किरदार को गढऩे वाले जावेद अख़्तर को कौन नहीं जानता? ‘शोले’ की हिट करने वाली पटकथा लिखने वाले जोड़ी सलीम-जावेद में से जावेद अख़्तर का सीधा रिश्ता भोपाल से है। भोपाल में पले-बढ़े जावेद के भीतर भी कहीं एक भोपालीपन होता है और शायद यही कारण है कि ‘शोले’ में सूरमा भोपाली के किरदार को गढ़ा और ऐसा गढ़ा कि पचास साल बाद भी उसकी याद ताज़ा है। जावेद अख़्तर 17 जनवरी 1945 को ग्वालियर में जन्मे। उनके पिता, जां निसार अख़्तर, एक प्रसिद्ध कवि थे और उनकी माता, सफिया अख़्तर, एक गायिका और लेखिका थीं। जावेद अख़्तर ने लखनऊ में अपनी शुरुआती शिक्षा प्राप्त की और भोपाल के सैफिया कॉलेज से ग्रेजुएशन किया। इस प्रसंग को याद करना भी मजेदार है कि स्क्रिप्ट को कागज़ पर उतारना जावेद का काम था लेकिन उनकी राइटिंग इतनी खऱाब थी कि उसको पढ़ा ही नहीं जा सकता था. वो उर्दू में लिखते थे जिसका हिन्दी अनुवाद करते थे उनके असिस्टेंट ख़लिश. इसके बाद उनके एक दूसरे असिस्टेंट अमरजीत उसका एक लाइन में अंग्रेज़ी में साराँश लिखा करते थे। खैर, उनकी तासीर उनके इस शेर से पता चल जाता है

जिधर जाते हैं सब जाना उधर अच्छा नहीं लगता

मुझे पामाल रस्तों का सफऱ अच्छा नहीं लगता

पचास सालों से हिट फिल्म शोले की पटकथा लेखकों का जिक्र हो तो सलीम के बिना अधूरा रहेगा। कभी सलीम-जावेद की जोड़ी फिल्मी दुनिया में मशहूर हुए सलीम का सीधा रिश्ता भोपाल से नहीं है लेकिन मध्यप्रदेश के इंदौर से जरूर है। सलीम का परिवार इंदौर से है और सलमान खान का जन्म इंदौर में हुआ है। सलीम-जावेद ने ऐसी धाँसू पटकथा तैयार की कि एक मसाला फिल्म होने के बाद भी वह हरदिल अज़ीज़ फिल्म बनकर आज भी धूम मचा रही है। शोले के लिए सारी तैयारियाँ हो गई थीं। फिल्म की पूरी स्टार कास्ट सेट पर पहुँेचने के लिए तैयार थी। डायरेक्टर रमेश सिप्पी ‘शोले’ के पहले सीन के लिए कट बोलने के लिए बेसब्री से इंतजार कर रहे थे, क्योंकि उन्होंने लेखक जावेद अख्तर और सलीम खान के साथ इस मूवी के लिए काफी मेहनत की थी। 

‘शोले’ का भोपाली कनेक्शन के बहाने मध्यप्रदेश में सिनेमा संसार पर थोड़ी चर्चा जरूरी हो जाता है। सिनेमा निर्माण के लिए मध्यप्रदेश हमेशा से मुफीद रहा है। किसी समय राजकपूर जैसे शोमेन मध्यप्रदेश में फिल्म ‘तीसरी कसम’ शूटिंग सागर में की थी। जबलपुर में प्रेमनाथ का थियेटर था जो अब जमींदोज हो चुका है, राजकपूर की ससुराल रीवा में है। इधर बीते  कुछ सालों से सिनेमा के परदे से लेकर ओटीटी प्लेटफॉर्म पर मध्यप्रदेश का जलवा है। लता मंगेशकर से लेकर किशोर कुमार, पंडित प्रदीप, जावेद अख़्तर और जाने कितने नामचीन लोग मध्यप्रदेश से निकल कर रूपहले परदे पर वर्षों से मुकाम बनाए हुए हैं। अब समय आ गया है कि प्रकाश झा जैसे बड़े फिल्मकार राजनीति, आरक्षण और चक्रव्यूह बना चुके हैं। इसके अलावा मध्यप्रदेश में बनने वाली फिल्मों में तू और भोपाल एक्सप्रेस, अशोका, मकबूल,जब वी मेट, पीपली लाइव, पान सिंह तोमर टॉयलेट एक प्रेम कथा, बाजीराव मस्तानी एवं गंगाजल जैसी फिल्म थी।

मध्यप्रदेश लोकेशन की दृष्टि से बहुत समृद्ध है। फिल्मों का क्रेज होने से कलाकार सस्ते में बल्कि मुफ्त में भी काम करने को मिल जाते हैं। अनेक शिक्षण संस्थाएँ, हॉस्पिटल, होटल और दूसरे भवन सस्ते दरों में शूटिंग के लिए मिल जाते हैं। राज्य सरकार भी फिल्म निर्माण के लिए मध्यप्रदेश की जमीन को उर्वरा मानती है और साथ ही फिल्मसिटी निर्माण से रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे। यही नहीं, एक नीति बन जाने से कलाकारों का शोषण भी नहीं हो पाएगा। समय आ गया है कि हिन्दी सिनेमा से भोपाल ही नहीं, मध्यप्रदेश का कनेक्शन और पक्का हो जाए। 


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