पत्रकारिता के स्कूल थे प्रभाषजी
एक पत्रकार का पहला और अंतिम धर्म होता है लिखना लेकिन जब उसकी कलम थम जाए तो मान लीजिये कि उस पर दुख का पहाड़ टूट पड़ा है। प्रभाषजी के जाने के बाद शायद मेरे साथ ऐसा हुआ है। पहली दफा मुझमें कुछ लिखने की हिम्मत नहीं हो रही है। आज मन उदासी से उबर पाया है तो कुछेक यादें आपके साथ शेयर करने के लिये लिख रहा हूं। प्रभाषजी के साथ मेरा काम करने का कोई अनुभव नहीं रहा है। लगभग दो वर्ष पहले भोपाल में एक आयोजन में उनका आना हुआ। पहले तो उनका कहा सुना और बाद में उनसे मुलाकात हुई। लगभग 73वर्ष के पत्रकारिता के महामना जोशीजी के सामने मैं बौना सा पत्रकार किन्तु उनके सहज स्वभाव ने जैसे मेरा मन जीत लिया। कदाचित मैं यह भी उनसे सीखा कि अपने से जूनियर साथियों के साथ भी हमें भी वैसा ही बर्ताव करना चाहिए।
प्रभाषजी को लोग बार बार मालवा का गिन रहे हैं किन्तु मुझे लगता है कि यह ऐतिहासिक भूल है। जिस तरह पत्रकारिता की कोई सीमा नहीं होती वैसे ही प्रभाषजी किसी एक गांव या शहर अथवा प्रदेश के नहीं थे। वे समूची पत्रकारिता के थे और वे अपने आप में पत्रकारिता की पाठशाला थे। उनसे सीखा जा सकता है कि पत्रकार एक विषय ही नहीं अनेक विषयों का ज्ञाता होता है और उसे अपनी रूचि के अनुरूप् लिखना चाहिए। वे खेल और खासतौर पर क्रिकेट पर लिखने के लिये प्रतिबद्व थे तो समसामयिक विषयों पर भी वे लिखते रहे हैं। राजनीति और राजनेता भले ही चुप्पी साधे रहें लेकिन सच तो यह है कि उनके लिखे को पढ़कर वे तिलमिला जाते रहे हैं। आज प्रभाषजी हमारे बीच नहीं है लेकिन पत्रकारिता में उन्हांेने जो दृष्टि गढ़ी, जो रास्ता दिखाया, वह हम सबके लिये हमेशा पथ प्रदर्शक का काम करेगा।
मनोज कुमारसंयोजकराजेन्द्र माथुर स्मृति पत्रकारिता संस्थान, भोपाल
एक पत्रकार का पहला और अंतिम धर्म होता है लिखना लेकिन जब उसकी कलम थम जाए तो मान लीजिये कि उस पर दुख का पहाड़ टूट पड़ा है। प्रभाषजी के जाने के बाद शायद मेरे साथ ऐसा हुआ है। पहली दफा मुझमें कुछ लिखने की हिम्मत नहीं हो रही है। आज मन उदासी से उबर पाया है तो कुछेक यादें आपके साथ शेयर करने के लिये लिख रहा हूं। प्रभाषजी के साथ मेरा काम करने का कोई अनुभव नहीं रहा है। लगभग दो वर्ष पहले भोपाल में एक आयोजन में उनका आना हुआ। पहले तो उनका कहा सुना और बाद में उनसे मुलाकात हुई। लगभग 73वर्ष के पत्रकारिता के महामना जोशीजी के सामने मैं बौना सा पत्रकार किन्तु उनके सहज स्वभाव ने जैसे मेरा मन जीत लिया। कदाचित मैं यह भी उनसे सीखा कि अपने से जूनियर साथियों के साथ भी हमें भी वैसा ही बर्ताव करना चाहिए।
प्रभाषजी को लोग बार बार मालवा का गिन रहे हैं किन्तु मुझे लगता है कि यह ऐतिहासिक भूल है। जिस तरह पत्रकारिता की कोई सीमा नहीं होती वैसे ही प्रभाषजी किसी एक गांव या शहर अथवा प्रदेश के नहीं थे। वे समूची पत्रकारिता के थे और वे अपने आप में पत्रकारिता की पाठशाला थे। उनसे सीखा जा सकता है कि पत्रकार एक विषय ही नहीं अनेक विषयों का ज्ञाता होता है और उसे अपनी रूचि के अनुरूप् लिखना चाहिए। वे खेल और खासतौर पर क्रिकेट पर लिखने के लिये प्रतिबद्व थे तो समसामयिक विषयों पर भी वे लिखते रहे हैं। राजनीति और राजनेता भले ही चुप्पी साधे रहें लेकिन सच तो यह है कि उनके लिखे को पढ़कर वे तिलमिला जाते रहे हैं। आज प्रभाषजी हमारे बीच नहीं है लेकिन पत्रकारिता में उन्हांेने जो दृष्टि गढ़ी, जो रास्ता दिखाया, वह हम सबके लिये हमेशा पथ प्रदर्शक का काम करेगा।
मनोज कुमारसंयोजकराजेन्द्र माथुर स्मृति पत्रकारिता संस्थान, भोपाल
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