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बंदूक का जवाब कलम से

-राजेन्द्र

छत्तीसगढ़ में बंदूक का जवाब कलम से देने के प्रयास में सरकार जुटी हुई है। जो बच्चे नक्सली इलाकों में शिक्षा से दूर होते जा रहे थे, उनके लिये सरकार ने विशेष प्रयास आरंभ कर उन्हें वापस स्कूल भेजने का इंतजाम किया है। शांति के लिये प्रतिबद्ध वनपुत्रों ने भी सरकार के साथ इस मुहिम में साथ देने के लिये निश्चय किया और निकल पड़े सरकार के साथ। देखते ही देखते स्थितियां बदलने लगी। स्कूलों से दूर होते बच्चों के हाथों में किताब-कलम थी और चेहरे पर कामयाबी की मुस्कान। बोर्ड परीक्षा में इन बच्चों ने कमाल कर दिखाया। प्रथम श्रेणी में आने वाले इन उस्तादों ने प्राप्तांक को इतना छू लिया कि यह हर किसी के लिये अचंभा था। कामयाबी इसलिये महत्वपूर्ण् है कि ये बच्चे उन लोगों में शामिल नहीं हैं जिन्हें हर किस्म की सुविधाएं मिल रही हैं, ये वो बच्चे हैं जिनके पांव के आसपास हमेशा डर की डोरी बंधी रहती है। डर को कलम से मात देकर उन्होंने एक नया सबक समाज को सिखाया है। नक्सली हिंसा में अपने माता-पिता को खोने वाले इन अनाथ बच्चों के साहस की जितनी सराहना की जाए, उतनी कम है।

बस्तर के अंदरूनी इलाकों में इस क्षेत्र-विशेष के नक्सलियों ने इन बच्चों के कंधों से बस्ता उतारकर, बंदूकें टाँगना अपना मकसद माना, ऐसी बेजा पहल से भी स्वयं को बचाते हुए, इन होनहार बच्चों ने अपना मुकाम पा ही लिया। गोलियों और धमाकों के बीच लाशों को अपनी आँखों से देखने वाले इन वनपुत्रों ने अपनी मशक्कत के बूते लक्ष्य पाकर एक उत्तम आदर्श स्थापित किया है। हिंसक वातावरण में भी अपने मंसूबों को पा लेने वाले लगभग सवा तीन सौ बच्चों को राज्य के आदिम जाति कल्याण विभाग ने एक विशेष अभियान के तहत तराशा है। सबसे अहम बात यह रही है कि इनमें से अधिकांश बच्चों ने ऐसे स्कूलों में शिक्षा हासिल की है, जिनमें विषयों के शिक्षक तक नहीं थे। इन आदिवासी छात्रों ने दसवीं बोर्ड में ७० से ९५ फीसदी अंक हासिल कर नायाब मिसाल पेश की है। इन होनहार छात्रों ने विपरीत माहौल में अपने जज्बे को कायम रखते हुए, संसाधनहीन शैक्षणिक दायरे में भी अपनी लगन के बूते बुलंदियों के मुकाम पर पहुँचने में कामयाबी पाई है।

राज्य के नक्सल प्रभावित इलाकों में सरकार ने "प्रयास" नामक बाल शिक्षा योजना बनाकर जंगल की इन प्रतिभाओं को राजधानी के स्कलू आश्रम में स्थान दिया। यहां इनके रहने, पढ़ने, खाने एवं चिकित्सा जैसी सुविधाएँ देकर इन्हें शिक्षित करने का मुकम्मल इंतजाम किया गया। इस आश्रम स्कूल में आने वाले बच्चों ने सरकार को उम्मीद से ज्यादा का परिणाम दिया। प्रयास से यह उम्मीद थी कि वे सदमे से उबरकर आम जीवन जीना शुरू कर दें। शिक्षा तो इनके जीवन में बदलाव का मात्र माध्यम था किन्तु अब चौंकने की बारी सरकार की थी जहां इन बच्चों ने पच्चहतर फीसदी से ज्यादा अंक पाकर जता दिया कि वे किसी से कम नहीं।

बच्चों की इस कामयाबी ने सरकार को उत्साहित किया है। आदिम जाति कल्याण विभाग होनहार विद्यार्थियों के व्यक्तित्व, खेलकूद, मानसिक एवं शारीरिक विकास तथा योग संबंधी शिक्षा के जरिए इन्हें संवारने की पहल की है। जो विद्यार्थी कक्षा बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण कर चुके हैं, उनके आगे की शिक्षा का इंतजाम सरकार कर रही है औ इसी कड़ी में इंजीनियरिंग तथा मेडिकल जैसे लक्ष्य से जोड़ने की खातिर कोचिंग क्लासेस की प्रभावी शिक्षा देने का प्रयास भी किया गया है। आने वाले समय में वनपुत्रों के ये लाडले राज्य की पहचान बनेंगे।
राज्य के नक्सलियों के मंसूबे पर पानी फेरते ये बच्चे इस बात का सबूत हैं कि जीने का मतलब दूसरों को डराना नहीं, अराजकता फैलाना नहीं, विकास में बाधक बनना नहीं बल्कि जीवन में प्रेम और उत्साह भरना है, अराजकता की जगह सकरात्मकता को स्थान देना है, विकास में बाधक बनने की जगह विकास को आगे ले जाना है और इन सब को करने के लिये एकमात्र उपाय है लोगों का शिक्षित होना। शिक्षा ही विकास का रास्ता बनाती है और जंगलों में डरने-दुबकने के बजाज शिक्षा के रास्ते साहस और प्रतिभा का परिचय दिया है। बच्चों की इस कामयाबी ने एक बार साबित कर दिया है कि कितनी भी मुश्किलें क्यों न हो, रास्ता कभी बंद नहीं होता है। आइए, इस रास्ते पर चलकर डर का जवाब कलम से दें।

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