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जीवन मंत्र-१
हदों से परे होता समाज

मनोज कुमार

मेरे एक बुर्जुग मार्गदर्शक मित्र हैं। वे भोपाल की तेजी से बढ़ रही एक कॉलोनी में रहते हैं। उन्होंने मुझसे शिकायत की कि उनके घर के आसपास एक प्रभावशाली व्यक्ति ने अपने घर का दायरा सड़क तक बढ़ा लिया है। उनका यह बढ़ा हुआ दायरा वैधानिक है या अवैधानिक, किसी को नहीं मालूम। बात आयी और गयी। मेरे मन के भीतर यह बात सालती रही। हालांकि इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ता है कि बढ़ा हुआ दायरा वैधानिक है या वैधानिक किन्तु इस बात से फर्क जरूर पड़ता है कि इस सीमा को लांघने से एक व्यवस्था छिन्न-भिन्न होती है। सीमा यानि अपनी हद लांघने से हमारे जीवन में विविध किस्म की समस्याओं का जन्म होता है। अपनी हद में नहीं रहने वाले लोग ही समाज के लिये समस्या हैं। हद लांघने की बात को जरा विस्तार से समझने की कोशिश करेंगे तो पूरी तस्वीर सामने आ जाएगी।

एक पिता अपने बेटे से इसलिये परेशा है कि वह उनकी अवज्ञा कर रहा है अर्थात हद लांघ रहा है। एक शिक्षक की तकलीफ यही है कि विद्यार्थी उदंड होते जा रहे हैं और गुरूजनों की अवज्ञा कर रहे हैं। यहां भी मामला हद लांघने की है। एक सास अपनी बहू की अवज्ञा से परेशान है। एक अधिकारी अपने कर्मचारी से, एक मंत्री अपने मातहतों से और भी भिन्न भिन्न लोग इस अवज्ञा वाली स्थिति से परेशान हैं। लगभग पूरे समाज में अराजकता की स्थिति बन चली है। सवाल यह है कि यह हद लांघने का साहस कैसे हो रहा है? इस पर चिंतन करने की जरूरत है। मामला बहुत पेचीदा नहीं है लेकिन हम समझना ही नहीं चाहते हैं। अवज्ञा करने की कोई नहीं सोचता है और न ही करना चाहता है किन्तु भौतिक सुख-सुविधाओं ने इसे विस्तार दे दिया है। इसे थोड़ा और विस्तार से समझने का प्रयास करेंगे।

लगभग कई दिनों से मैं भौतिक सुख-सुविधाओं के बारे में चिंतन-मनन कर रहा हूं। सवाल अनेक हैं लेकिन जवाब कोई भी नहीं। एक बड़ी चमचमाती कार पूरे रफ्तार के साथ मेरे बगल से गुजर गयी। सड़कों पर लगभग हर रोज एक नयी कार दौड़ती नजर आएगी। इन कारों को देखकर सहसा मेरे मन में प्रश्न उठा कि कार के स्वामी का जीवन लक्ष्यविहिन होगा। लक्ष्य है भी तो अधिकाधिक सुख की प्राप्ति। यह सुख भी शाश्वत नहीं है, क्षणिक है। कार के स्वामी ने पहले तो अपना सारा श्रम और मस्तिष्क कार की रकम चुकाने में लगायी होगी। कदाचित बैंक लोन से भी खरीद लिया होगा तो अब उसे बैंक का किश्त जमा करने के लिये रोज अधिक मेहनत बल्कि अधिक चालबाजी करनी पड़ती होगी। यह भी सच है कि जिस व्यक्ति के पास ऐसी कार है, उसके आय के स्रोत से उसका परिवार वाकिफ होगा और वह यह भी जानता है कि इतनी महंगी कार उस आय के स्रोत से नहीं खरीदी जा सकती है। बात साफ है कि कार के सुख के पीछे मेहनत कम, मक्कारी ज्यादा है जिसे आज के समय में हम भ्रष्टाचार का नाम दे सकते हैं।

जब परिजन को यह पता है कि उनका घर भ्रष्टाचार से चल रहा है तो अवज्ञा की स्थिति सहज ही बन जाती है। पहले तो अनावश्यक डिमांड की जाती है। चिकचिक से बचने अथवा अपना प्रभाव दिखाने के लिये उन अनावश्यक जरूरतों को पूरा किया जाता है। यदाकदा की मांग बाद के समय में आदत में बदल जाती है और जब आदत बिगड़ जाए तो सिर्फ अवज्ञा की स्थिति बनती है। यह बात पूरे समाज में, हर वर्ग में और हर क्षेत्र में लागू होती है। हद के बाहर होने के कारण ही समाज में अनैतिकता, अनाचार और अव्यवस्था का जन्म हो रहा है। जिस दिन हम अपनी हदों में रहना सीख जाएंगे, उस दिन समस्यायें स्वयमेव समाप्त हो जाएगी। कल्पना कीजिये कि समुद्र अपना स्थान छोड़कर रहवासी इलाकों में चला आता है तो कैसी तबाही मचती है। समुद्र समाज में शुचिता बनी रहे, लोगों में भय न हो इसलिये वह अपनी हद में रहता है। हद से बाहर होते समाज में आप व्यवस्था, शुचिता, सौजन्यता या सम्मान की बात नहीं कर सकते हैं। हद से बाहर होने का एक अर्थ लालसा भी है और यह लालसा अवज्ञा का पर्याय है। अब आपको यह तय करना है कि हम सब हद में रहें, इसके लिये अपने लालच पर नियंत्रण पाने की कोशिश करना होगी।



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