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श्रवण कुमार किताबों में



मनोज कुमार
श्रवण कुमार का नाम भारतीय समाज में अपरिचित नहीं है. जब भी माता-पिता की सेवा करने की बात आती है तो श्रवण कुमार से बड़ा कोई नायक, कोई पात्र नहीं होता है. सनातनकाल से यह नायक आधुनिक समाज में वैसा ही उपस्थित है जैसा कि उसे बताया या दिखाया गया है. समय काल में बदलाव हो रहा है और इस बदलाव में लगता है कि कहीं श्रवण कुमार असामयिक होता जा रहा है. अब वह नये जमाने की नयी पीढ़ी के लिये रोल मॉडल नहीं रह गया है. ऐसा मुझे तब पहली बार लगा जब मैं अपने एक दोस्त के घर गया था. उसका बेटा कोई 12-13 साल का होगा. गुणी है, प्रतिभावान है. वह नये जमाने का बच्चा है तो उसकी सोच भी प्रगतिशील है. वह आने वाले दिनों में अपने कैरियर को देखता है. उसे लगता है कि पिता या माता बीमार पड़ गये तो उसका समय और धन उनके इलाज में खर्च हो जाएगा. धन की उसे चिंता नहीं है. उसे पता है कि वह जितना खर्च करेगा, उसे कहीं ज्यादा कमा लेगा लेकिन उसे चिंता है कि बीमार होने वाले माता-पिता की सेवा में समय खर्च हो जाएगा तो इसकी भरपाई कहां से करेगा. यह सारी चिंता और सारे सवाल उसके मन के भीतर अभी से उमड़-घुमड़ रहे हैं. मुझे नहीं मालूम कि उसके पिता को अपने बच्चे के मन की बात मालूम है कि नहीं लेकिन उस दिन मेरे सामने जो घटा, उसने मुझे सोचने के लिये मजबूर कर दिया. 

हम सब बैठे थे. तभी दोस्त ने शिकायत की कि उसकी तबियत ठीक नहीं है. बीमारी कोई बड़ी नहीं थी. शायद बदलते मौसम का असर था. पिता की बात पर बेटे ने तत्काल टिप्पणी की कि पापा, इसलिये कहता हूं कि अभी से अच्छे डाक्टर से अपना इलाज करा लो ताकि जब मैं काम पर जाऊं तो मुझे आपकी तबियत के कारण परेशान न होना पड़े. बच्चे ने यह बात रूटीन में कहा था. बात कोई खास नहीं थी कि जिसे दिल से लगाया जाये लेकिन बात इतनी हल्की भी नहीं थी कि उस पर सोचा न जाये. 12-13 साल का बच्चा जिसने अभी अपनी शिक्षा भी पूरी नहीं की है, बल्कि वह अभी स्कूली शिक्षा के पार भी नहीं गया है, वह अपने आने वाले दिन को लेकर इतना सर्तक और सजग है तो यह इस बात की घंटी है कि माता-पिता को अभी से अपने भविष्य की चिंता कर लेना चाहिये. यहां तक कि बच्चे को लेकर भविष्य में जो उम्मीदें बांध रखी है, उन उम्मीदों को गठरी में बांधकर अलग से रख दिया जाना चाहिये. यह एक बच्चे की मिसाल है. एक परिवार में घटी मामूली सी घटना है लेकिन यह घटना भविष्य का संकेतक है.

किसी माता-पिता को अपने बच्चे से श्रवण कुमार बन जाने अथवा बने रहने की उम्मीद नहीं की जानी चाहिये. हमारे जीवन से श्रवण कुमार का ऐसे गायब हो जाना और किताब के पन्नों पर सिमट जाना पहली पहली बार होने वाला मामला नहीं है. इसके पहले भी हम अपने नायकों को जिंदगी से गायब होते देखा है. उनकी उपयोगिता और सामयिकता को खत्म होते देखा है. सत्य बोलने के लिये राजा हरिशचन्द्र भले ही हमारे नायकों में गिने जाते रहे हों लेकिन मोबाइल की दुनिया ने हमें झूठ बोलना सिखा दिया है. भगवान राम जैसा चरित्रवान पात्र हमारे बीच से ही है लेकिन अनाचार की जो कहानी रोज सुन रहे हैं, वह नायक के चरित्र से मेल नहीं खाता है. गांधीजी जीवन भर सादगी का पाठ पढ़ाते रहे और हम रोज गांधीजी का स्मरण करते हैं लेकिन सुविधाभोगी होने के मोह से बच नहीं पाये. बच्चे की सोच को दोष देना गलत होगा. उसके सामने भविष्य की चुनौतियां हैं, खुद को दौड़ में आगे निकल जाने की चिंता. ऐसे में वह श्रवण कुमार कैसे बने और क्यों बने. चिंता अब खुद मां-बाप को करनी होगी कि वह अपने बच्चों से श्रवण कुमार बनने की उम्मीद ना करें क्योंकि श्रवण कुमार अब किताबों का हिस्सा है और वहीं शायद वह ठीक भी लगेगा.  

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