मनोज कुमार
नेताओं के बारे में कहा जाता है कि वे अपने प्रचार के लिये कोई भी अवसर नहीं खोते हैं. पिछले कुछ महीनों से यह देखा जा रहा है कि जो भी नेता, मंत्री, विधायक या अन्य पदों पर विराजे लोग गैस सब्सिडी छोड़ रहे हैं, इस पर बकायदा अखबारों के लिये खबर जारी की जाती है. हालांकि वे इस बहाने अपने नेता नरेन्द्र मोदी तक तो बात पहुंचाना चाहते ही हैं कि उनके आदेश का पालन किया गया है और आम आदमी के बीच अपनी छवि भी बनाना चाहते हैं. सवाल यह है कि एक नेता के गैस सब्सिडी छोड़ दिया जाना खबर है या अब तक उसकेे द्वारा गैस सब्सिडी का लाभ लिया जाना? क्या इस पर कोई विमर्श नहीं होना चाहिये कि मोदी प्रधानमंत्री नहीं बनते और वे अपने नेताओं को सब्सिडी छोडऩे के लिये निर्देश नहीं देते तो क्या उनका जमीर स्वयं होकर नहीं जागता? क्या उन्हें नहीं लगता कि भारी-भरकम मानदेय के साथ ही अनेक किस्म की सरकारी सुविधाओं से लैस होने के बाद भी वे सब्सिडी का लाभ उठाना अनुचित था?
सब्सिडी के मुद्दे पर एक सवाल यह भी उठता है कि एक के बाद एक नेता सब्सिडी छोडऩे का ऐलान कर रहे हैं. क्यों एक साथ समूचे लोग सब्सिडी छोडऩे का संकल्प नहीं लेते हैं? क्यों प्रधानमंत्री को ऐसी छोटी-छोटी बातों के लिये पहल करनी पड़ रही है? क्यों जनता के जनप्रतिनिधि जनता के लिये मिसाल नहीं बनते हैं? ऐसे हजार क्यों हैं, जिसे जवाब का इंतजार है लेकिन जवाब नहीं मिलता है. एक बड़ा सवाल यह भी है कि क्या केवल गैस सब्सिडी ही छोड़ देने से देश की अर्थव्यवस्था को लाभ होगा, आम गरीब आदमी को लाभ होगा? शायद नहीं, ऐसे दर्जनों विषय हैं जिन पर प्रधानमंत्री को नहीं, स्वयं राजनेताओं को सोचना होगा. इससे पहले उन्हें सस्ती लोकप्रियता के लिये ऐसी खबरें जारी करने से स्वयं को रोकना होगा. अपने अधीनस्थ पीआरओ को निर्देश देना होगा कि वे इस तरह के निजी हित की खबरों को न जारी करें और न ही प्रकाशन-प्रसारण में अपनी समय व शक्ति का उपयोग करें. पीआरओ तो मंत्री-नेता को खुश करने के लिये ऐसा करते हैं और करते रहेंगे क्योंकि उन्हें तनख्वाह ही इसी बात की मिलती है लेकिन मंत्री-नेता स्व-विवेक से तय करें कि कौन सी खबर से उनकी इमेज बनती है और कौन सी खबर उनकी इमेज की सेहत खराब करती है. पीआरओ तो अपना काम करते हैं. अखबार वालों पर भी तरस आता है कि वे ऐसी मामूली और गैर-जरूरी खबरों को न केवल प्रमुखता से प्रकाशित करते हैं बल्कि संबंधित नेता-मंत्री की तस्वीर लगाना भी नहीं भूलते हैं. इसके लिये अखबार के सम्पादक और रिपोर्टर दोनों की जवाबदेही बनती है. यह भी सच है कि इस तरह की खबरों को अनदेखा करने का साहस सम्पादक और रिपोर्टर कई बार चाहने के बावजूद नहीं दिखा पाते हैं क्योंकि उनके अखबार का हित जुड़ा होता है और पत्र स्वामी का दबाव बना होता है.
इस मामले में भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को संजीदा होने की जरूरत है. उन्हें अपने नेताओं को ताकीद करना होगा कि सब्सिडी छोडऩे जैसा मामला जनहित का नहीं, बल्कि स्वयं के नैतिकता का है तो नैतिक आधार पर ऐसी खबरों को अखबारों में जारी नहीं किया जाये और न ही इसे प्रचारित किया जाये. अपितु एक कदम आगे बढ़ते हुये अपने क्षेत्राधिकार के अधिकार सम्पन्न और आर्थिक रूप से सम्पन्न लोगों को भी सब्सिडी छोडऩे के लिये प्रेरित करें ताकि सब मिलकर इस मुफ्तखोरी की आदत से मुक्ति पा सकें. होना यह चाहिये कि जिन नेताओं ने अब तक सब्सिडी का लाभ लिया है, उनसे इसके बदले मुआवजा वसूला जाना चाहिये. ऐसा किया गया तो आम आदमी में संदेश जाएगा कि हां, अब राजनीति नैतिक हो रही है. मोदीजी ने एक बेहतर पहल की है तो इस पहल को प्रपोगंंडा न बनाया जाये बल्कि समाजहित में इसे आगे बढ़ाने की पहल की जाये. एक भगीरथ प्रयास किया जाये और प्रयास को भगीरथ ही बनें रहने दें.
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