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मीडिया नहीं, उद्योग की शिक्षा

मनोज कुमार 
     पत्रकारिता बीते जमाने की बात हो गई है, अब दौर मीडिया है इसलिए पत्रकारों के स्थान पर मीडिया कर्मियों का निर्माण किया जा रहा है. यूं भी मीडिया को उद्योग का दर्जा दिए जाने की मांग अर्से से चली आ रही है. कागज में कानूनन भले ही मीडिया को उद्योग का दर्जा नहीं दिया गया हो लेकिन व्यवहार में उसकी कार्यशैली एक उद्योग की भांति ही है. मीडिया पहले अपने लाभ को देखता है और इसे बचे शेष हिस्से में वह समाज का शुभ देखने की कोशिश करता है. इसमें मीडिया हाऊसों का दोष नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि कोई भी उद्योग शुभ की बात अपने लाभ प्राप्ति के बाद ही सोचता है और यह मीडिया उद्योग यही कर रहा है. इसी से जुड़ा प्रश्र है मीडिया शिक्षा का. मीडिया का चाल-चलन जब एक उद्योग के स्वरूप का है तो उसे काम करने वाले भी उसी नेचर के ही चाहिए होंगे, यह बात मान लेना चाहिए.
मीडिया शिक्षा संस्थानों की संख्या दिन-प्रति-दिन बढ़ रही है तो इसके पीछे क्या कारण होंगे? इस पर चिंतन करने की आवश्यकता है और यह सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि लगभग तीन दशक पहले जब मीडिया शिक्षा नहीं थी तो पत्रकार किस दुनिया से आते थे? इन सवालों में ही जवाब छिपा हुआ है क्योंकि पत्रकार बनाया नहीं जा सकता है बल्कि वे अपने जन्म से ही पत्रकार होते थे और जो कमियां रह जाती थी, वह जमीनी अनुभव उन्हें पक्का कर देती थी. इसलिए कभी पत्रकार कर्मी जैसा शब्द चलन में नहीं आया किन्तु जब मीडिया की बात करते हैं तो इसके पीछे संस्थानों को मेहनत करनी होती है और उन्हें कॉरपोरेट कल्चर सिखाया जाता है. लिखने-पढऩे की योग्यता बहुत मायने नहीं रखती है किन्तु सलीकेदार कपड़े पहनना, अंग्रेजी में बोलना और संस्थान के प्रति स्वयं से बढक़र समर्पित होना. उन्हें यह भी सिखाया जाता है कि वे कॉरपोरेट जर्नलिस्ट हैं और समाज के गरीब, पिछड़े और अत्याचार के शिकार लोगों पर तब खबर लिखी जाए, जब अखबार या टेलीविजन चैनल की लोकप्रियता में कमी आने लगे. वरना लाइफस्टाइल, खाना-खजाना, कार, मोबाइल और ऐसे मंहगे उत्पादों के बारे में ही बात करते रहना जिससे विज्ञापनों से होने वाली आय में कमी ना हो. मीडिया शिक्षा को इस तरह डिजाइन किया गया है जहां हिन्दी को सर्वोच्च स्थान देने की बात तो कही जा रही है लेकिन अंग्रेजी का पल्लू पकडऩा मजबूरी बना दी गई है. 
ऐसा भी नहीं है कि मीडिया में आने वाली नई पीढ़ी के भीतर आग नहीं है या वह सामाजिक सरोकार से बाबस्ता नहीं रखती हैं किन्तु तीन वर्ष की शिक्षा के दरम्यान उनका मानस कॉरपोरेट का बना दिया जाता है. सपनों की दुनिया में उन्हें इस तरह धकेल दिया जाता है कि वे पत्रकारिता की चुनौतियों का सामना करने का साहस नहीं कर पाते हैं और सुविधाओं की मीडिया का लाल कॉरपेट उन्हें भाने लगता है. बंद शीशे वाली बड़ी गाडिय़ों में, महंगे मोबाइल सेट्स पर सोशल मीडिया से जुडक़र वे एक खासवर्ग की पसंद हो जाते हैं. विचारधारा का कोई स्थान नहीं होता है और तर्क के स्थान पर कुतर्क उनका अंतिम औजार होता है. मीडिया शिक्षा की यह कमजोरी नहीं बल्कि मीडिया उद्योग की यह नसीहत है. 
एक थे प्रभाष जोशी जिन्हें शायद हमारे समय के आखिरी सम्पादक के तौर पर चिंहित किया गया है, उनके नक्शेकदम पर चलने वाले लोग थोड़े से बचे हैं तो पत्रकारिता से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की दुनिया में पहला कदम रखने वाले एसपी सिंह को कौन भुला सकता है? ये दोनों महारथी पत्रकारिता के ऐसे मिसाल हैं जो आधुनिक समय में अपनी पहचान बनायी और नयी पीढ़ी के लिए सीख. प्रभाषजी के बताये रास्ते पर चलकर साल में बड़ी संख्या में पत्रकार खबरों के लिए शहीद होते हैं तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में एसपी सिंह के रास्ते में चलने वाले पत्रकारों की कमी नहीं. असल पत्रकारिता शिक्षा जमीनी है और मीडिया तो उद्योग की शिक्षा है जहां अंग्रेजी की प्रेतछाया हमेशा अपनी मौजूदगी का अहसास कराती रहेगी।

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