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जवाबदारी से दरकिनार करती तस्वीरें


मनोज कुमार
सुबह सवेरे आदत के मुताबिक फेसबुक ऑन किया और सर्च करने लगा तो देखा कि किसी सज्जन ने एक तस्वीर पोस्ट की है जिसमें मां और उसके बच्चे एक लाश को गोदी में उठाये चले जा रहे हैं. सुबह सुबह मन अवसाद से भर गया. सवाल तो मन में अनेक उठे थे और सवालों के जद में खड़ी उड़ीसा के दो गरीब परिवारों की तस्वीरें भी एक बार फिर ताजा हो गई. निश्चित रूप से ये तस्वीरें समाज की संवेदनाओं को खंगाल रही हैं. व्यवस्था पर सवाल उठाती इन तस्वीरों को देखने के बाद सवालों का जंगल की तरह उग आना संभव है. निश्चित रूप से समाज में जो कुछ घट रहा है, अच्छा या बुरा, वह लोगों तक पहुंचना चाहिए. सोशल मीडिया का यह दायित्व भी है कि वह सूचनाओं से समाज को अवगत कराये लेकिन सवाल यह है कि क्या एक जिम्मेदारी के साथ हमारी दूसरी जिम्मेदारी यह नहीं है कि हमारे आंखों के सामने घटती ऐसी भयावह घटनाओं को कैमरे में कैद करने के स्थान पर उसे मदद पहुंचायें? व्यवस्था को आवाज दें और एक गरीब पीडि़त की मदद के लिए आगे आयें? दरअसल, हमने लोकप्रियता पाने के लिए वो सारे उपाय कर लिये हैं जिससे हम लाभ पाते हैं. पहले दो तस्वीरें और हाल ही एक तस्वीर इस बात का प्रमाण है कि हमारे भीतर की संवेदनाएं लुप्त होती जा रही हैं. व्यवस्था दोषी है, इस बात से कौन इंकार करेगा लेकिन इस घटना के हिस्सेदार दोषी नहीं है, यह कहना हमारी गलती होगी.
इस समय हम एक भयावह दौर से गुजर रहे हैं. समय डरावना हो चुका है. सवाल तो हम खूब कर रहे हैं लेकिन जवाब तलाशने की हमने कोशिशें छोड़ दी हैं. हम दूसरे पर दायित्व का बोझ डाल रहे हैं और अपने दायित्व को पीछे छोड़ आये हैं. हम जर्नलिस्ट हैं, एक्टिविस्ट हैं तो क्या हमारा दायित्व व्यवस्था से अलग है? घटना को कव्हर करना हमारा प्रोफेशल ड्यूटी है तो एक गरीब की मदद करना हमारी मॉरल ड्यूटी. हम अपने मॉरल ड्यूटी को क्यों भूल जाते हैं. एक सवाल यह भी है कि देश-दुनिया में गरीब परिवारों की तस्वीरें वॉयरल हो गई लेकिन कितनों ने उस गरीब परिवारों की खैरियत पूछने की जिम्मेदारी ली? शायद इसमें भी मुठ्ठी भर लोग गिने जा सकेंगे क्योंकि अधिकांश लोग तो व्यवस्था, तंत्र, सरकार को कोसने और कटघरे में खड़े करने की कोशिश में लगे हैं और व्यवस्था, तंत्र और सरकार अपने बचाव में तर्क और बहुत हद तक कुतर्क का सहारा ले रही है. यह भी संभव है कि सरकार की तरफ से लाख-पचास हजार देकर मामला ठंडे बस्ते में डाल दिया जाए और फिर एक नई घटना के साथ बहस शुरू हो. हम जानते हैं कि हमारा समाज और हम-सब आगे पाठ, पीछे सपाट के रास्ते पर चलते हैं. मीडिया तो इस मामले में सर्वोपरि है. यह बात केवल कहने के लिए नहीं है बल्कि उसका पूरा चरित्र ही वैसा है. ध्यान करें कि कुछ साल पहले प्रिंस नाम का बच्चा गड्डे में गिर गया था. पूरा मीडिया प्रिंस को लेकर इतना संवेदनशील हो उठा था कि सारी खबरों के स्थान पर केवल प्रिंस की खैरियत की खबरें दी जा रही थी. इस पूरी घटना को कव्हर करने वाले एंकर का विश्व रिकार्ड बन गया. इसके बाद कितने बच्चे, कब और कहां गड्ढे में गिरे, मीडिया ने जगह तक नहीं दी. हाल ही में मध्यप्रदेश के शिवपुरी में एक बच्चा गड्ढे में गिर गया तो नेशनल मीडिया बेखबर रहा किन्तु रीजिनल चैनल ने उसे कव्हर किया. क्या यूपी और दिल्ली का बच्चा गड्ढे में गिरेगा तो खबर बनेगी? ऐसा ही निर्भया केस के बारे में मीडिया का रवैया रहा. क्या समाज यह मान ले कि निर्भया के बाद बच्चियों पर ज्यादतियां खत्म हो गई हैं? या मीडिया ने अब ऐसी घटनाओं को रूटीन का मान लिया है? 
सोशल मीडिया में गरीब परिवारों की इस हालत के बाद क्या मीडिया ने उस राज्य में इस बात का कोई जमीनी रिपोर्ट की कि वास्तव में इसके पहले भी ऐसे हादसे हुए हैं और आने वाले दिनों में गरीबों के साथ तंत्र ऐसा ही निष्ठुर बना रहेगा? क्या उड़ीसा सरकार की संवेदनशीलता समाप्त हो चुकी है और क्या गरीबों की सेवा का दंभ भरने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं का काम समाप्त हो चुका है? और अकेले उड़ीसा ही क्यों? देश के अनेक राज्य हैं जहां ऐसी हालत है और इन पर मीडिया का कैमरा क्यों नहीं घूमता है. बेटियों के रोज नई योजना बनाने वाले मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की बेटियां रस्सी के सहारे नदी-नाले पार कर स्कूल जाती हैं. क्या यह दृश्य मनोरम है या एक डर पैदा करती है? मीडिया की नजर में क्या दुर्घटना घट जाने के बाद ही इस पर चर्चा होगी. रोज-ब-रोज बेबुनियाद मुद्दों को लेकर चीखते-चिल्लाते लोगों के पास इन सवालों का कोई जवाब नहीं है?
यह पूरा मंजर बहुत ही भयानक है. सोचा था कि संचार के साधनों के विकास और विस्तार हो जाने से दुनिया में बदलाव आएगा. अंतिम छोर पर बैठे लोगों को जीने का साधन मुहय्या होगा. समाजवाद की कल्पना सच होगी और समाज में समानता का भाव होगा लेकिन हो उल्टा रहा है. संचार के माध्यमों का विस्तार और विकास तो हुआ है लेकिन जिंदगी सच से दूर भागती नजर आ रही है. इन माध्यमों के संचालन में खर्चों की कोई सीमा नहीं है और इस बेहिसाब खर्चे का हिसाब-किताब पेडन्यूज जैसी बीमारी से किया जा रहा है. यह साबित करना मुश्किल होगा कि कौन सी खबर पेडन्यूज है और कौन सी नहीं लेकिन जो खबरें सामाजिक सरोकार से परे हों, उसे इसका हिस्सा माना जाना चाहिए. फिर वह उड़ीसा की वह दर्दनाक तस्वीर ही क्यों ना हो. कांधे पर लाश ढोती खबरें हम सिहरा देती हैं लेकिन पेज थ्री की पत्रकारिता करने वाली हमारी नयी पीढ़ी एक सच से वाकिफ नहीं होगी कि इसी तथाकथित सभ्य समाज में दलित की लाश के साथ कैसा सुलूक किया जाता है. सच जानना हो तो एक बार महान फिल्मकार सत्यजीत रे की फिल्म ‘सद्गति’ जरूर देख लें. पत्रकारिता का सच जानना हो तो शशि कपूर अभिनीत फिल्म ‘न्यू देहली टाइम्स’ जरूर देखें. इस तरह की फिल्में समाज और पत्रकारिता का आईना है जिसे देख और समझ कर हम अपनी समझ बढ़ा सकते हैं. जिस तरह उड़ीसा की तस्वीरें सच हैं, उसी तरह सच यह है कि हम अपनी जिम्मेदारी से भाग रहे हैं.  

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