-मनोज कुमार
एक बार फिर हम अधर्म पर धर्म की जीत का उत्सव मनाने की तैयारियों में जुट गए हैं. बुराईयों पर अच्छाई की जीत का पर्व सदियों से मनाते चले आए हैं लेकिन ऐसा क्या है कि ये बुराई कभी खत्म होने का नाम ही नहीं लेती है? मैं सोचता था कि कभी कोई साल ऐसा भी आएगा जब हम अच्छाईयों का पर्व मनाएंगे. विजय का पर्व होगा. किसी की पराजय की चर्चा तक नहीं करेंगे, पराजित करना तो दूर रहा लेकिन आखिर वह साल अब तक मेरे जीवन में नहीं आया है. इसके बावजूद मैं निराश नहीं हूं. हताश भी नहीं हूंं क्योंकि मुझे लगता है कि एक दिन वह साल भी आएगा जब हम अच्छाई का पर्व मना रहे होंगे. इस अवसर का दीप जला रहे होंगे. सवाल यह है कि सदियां गुजर जाने के बाद भी जब यह संभव नहीं हो पाया तो यह होगा कैसे? मुझे लगता है कि इसमें मुश्किल कुछ भी नहीं है. बस, थोड़ा सा दृष्टि और थोड़ी सी सोच बदलने की जरूरत है. अब तक हम जय बोलते आए हैं और बुराई को पराजित कर उत्सव में मगन हो गए हैं. क्यों ना हम किसी को पराजित करने के बजाय हम उस बुराई की जड़ को ढूंढऩे की कोशिश करें जिसकी वजह से हर बार वह पराजित तो होता है लेकिन अपनी बेलें कहीं छोड़ जाता है जो साल बीतते बीतते फिर एक बड़े आकार में हमारे सामने खड़ी हो जाती है. सवाल यह है कि हमें बार बार युद्व को चुनना है या बुद्ध को? हां, यह जरूर है कि बुद्ध को चुनने से पहले युद्ध के कारणों को तलाश करना पड़ेगा.
महात्मा कहते थे कि पाप से नफरत करो, पापी से नहीं लेकिन हमारी नजर में पाप दूजे स्थान पर है और पापी पहले. यही एक गलती बार बार हमें बुद्ध से दूर और युद्ध के करीब ले आती है. बुराई क्या है? क्या रावण बुराई है या बुराई का प्रतीक है? हम हर वर्ष प्रतीकों को मारते हैं. भारतीय उत्सवी समाज है. वह हर अवसर को उत्सव के अनुरूप बना लेता है. दशहरा का पर्व भी इसी बात का द्योतक है. वर्तमान समाज में हमें रावण जैसा ज्ञानी तो नहीं मिल रहा है लेकिन बुराई का प्रतीक रावण हरेक कदम पर बिठा दिया गया है. एक चपरासी के घर से अवैध कमाई का लाखों रुपया, जमीन-जायदाद और जाने क्या-क्या मिलता है तो हम उसकी कमाई की ओर देखते हैं. विधिसम्मत उसे सजा दिलाने की कार्यवाही करते हैं लेकिन कभी हमने इस बात की कोशिश नहीं की कि आखिर उसने इस बुराई के रास्ते पर चलने को क्यों मजबूर हुआ? आर्थिक कमजोरी उसके भीतर के बुद्ध को हरा देती है और वह युद्ध के भाव से गलत रास्ते पर चल पड़ता है. जब हम इस बुराई की जड़ की तरफ जाने का प्रयास करेंगे तो पाएंगे कि पहले पहल जब उसने 10 या 5 हजार रुपये गलत ढंग से हासिल किए होंगे तो उसके हाथ भले ही ना कांपें हों, मन जरूर कांपा होगा. भयभीत हुआ होगा. उसे एक बार तो लगा होगा कि वह गलत कर रहा है. लेकिन जब यह प्रक्रिया एक से अधिक बार होने लगी तो वह निश्चित हो गया कि उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता. चंचल लक्ष्मी उस बिगड़ते व्यक्ति के चेहरे पर चमक ला देता है. उसके ऊपर के अफसरान को भी इस बात की खबर होगी लेकिन उन्होंने भी रोकने और टोकने की हिम्मत नहीं की. करते भी कैसे? उन्हीं को देखकर उसके भीतर लोभ जागा. उसके भीतर का बुद्ध विलुप्त होता गया और वह युद्ध के भाव से जीवन को जीने लगा. यह वही जगह है जहां से हम बुराई की जड़ को ढूंढ सकते हैं. उस बिगड़ते गरीब आदमी को समझने की कोशिश कर सकते हैं कि आखिर उसने गांधी का रास्ता क्यों छोड़ा? वह रावणरूपी बुराई का प्रतीक क्यों बन गया? वह लंकेश की तरह ज्ञानी तो हो नहीं सकता था.
जिस दिन हम इस बुराई की जड़ पर चोट करेंगे, यकीन रखिए कि हमें हर साल रावण के वध के लिए हथियार नहीं उठाना पड़ेगा. और वह दिन भी दूर नहीं होगा जब हम अच्छाई का पर्व मनाएंगे. एक ऐसा पर्व जिसमें किसी की पराजय नहीं होगी बल्कि चौतरफा जय और जय होगी. इसे करने के लिए अपने भीतर गांधी और बुद्ध को जिंदा करना होगा. कबीर और तुलसी को समझ कर अपने जीवन में उतारना होगा. भौतिक सुविधाओं के फेर में अ से लेकर ज्ञ तक सभी बौरा गए हैं. कनक और कनक में भेद करना भूल गए हैं. एक कनक जो देह की सुंदरता को बढ़ाता है तो दूसरा कनक जीवन की सांस को रोक देता है. सही मायने में दोनों कनक एक से हो गए हैं जिसमें शारीरिक तौर पर व्यक्ति भले ही जीवित हो लेकिन उसकी आत्मा को यह कनक मार देता है. हमें इस बार तय करना होगा कि हम युद्ध के रास्ते पर चलेंगे या बुद्ध के रास्ते पर? हमें रावण बनना है या ज्ञानी लंकेश से कुछ सीखना चाहेंगे? हम गांधी और कबीर बनकर एक नए समाज का निर्माण करेंगे या जीवन भर युद्ध के रास्ते पर चलते रहेंगे?
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